स्वप्न फ़िर भी आँज लें हम

दस्तकें देने लगा है द्वार पर नववर्ष साथी

बीज गमलों में लगायें आओ फ़िर से कामना के

जानते परिणति रहेगी,दोपहर में ओस जैसी

स्वप्न फ़िर भी आँज लें हम आँख में संभावना के



आज फ़िर से मैं कहूँ हों स्वप्न सब शिल्पित तुम्हारे

इस बरस खुल जायें सब उपलब्धियों के राज द्वारे

रुत रहे नित खिड़कियों पर धूप की अठखेलियों की

सांझ अवधी हो उगे हर भोर ज्यों गंगा किनारे

दस्तकें दें द्वार पर आ वाक्य नव प्रस्तावना के



घिस गई सुईयां यही बस बात रह रह कर बजाते

थाल में पूजाओं के, टूटे हुये अक्षत सजाते

रंगहीना हो चुकी जो रोलियां, अवशेष उनके

फ़िर भुलावे के लिये ला भाल पर अपने लगाते

मौन हैं घुंघरू, गई थक एक इस नृत्यांगना के



इसलिये इस बार आशा है कहो तुम ही सभी वह

जो कि चाहत के पटल पर चढ़ न पाया, है गया रह

जो अपेक्षित था अभी भी है नहीं आगे रहे जो

वर्ष का नव रूप जिसको जाये कर इस बार तो तय

प्राप्तिफ़ल लिख दो समय के शैल पर आराधना के


३१ दिसम्बर २०११

--

 

एक पत्थर को हम पोत सिन्दूर से

जोकि बस में नहीं था किसी के कहीं
आस बस इक उसी की लगाते रहे
 
 
बुझ गई आखिरी दीप की वर्त्तिका
रोशनी लड़खड़ाते हुए गिर पड़ी
रात के गर्भगृह में रही बन्दिनी
भोर के हाथ में थी लगी हथकड़ी
स्वर प्रभाती के सब मौन हो रह गये
आरती की नहीं घंटियाँ बज सकीं
दिन चढ़े देर तक सोई थी नीड़ में
एक चिड़िया गई सांझ से थी थकी
 
 
और हम सरगमों पर सजा, रात भर
का है मेहमाँ अंधेरा ये गाते रहे
 
 
थी टिकी उत्तरी ध्रुव के अक्षांश पर
रात की चादरें थीं बहुत ही बड़ी
संशयों में घिरी दूर के मोड़ से
ताकती रह गई धूप सहमी बड़ी
द्वार पर आगमन के पड़ी आगलें
जो कि क्षमताओं की रेख से थीं अधिक
और था सामने हंस ठठाता रहा
खिल्लियाँ सी उड़ाते दिवस का बधिक
 
 
अपने विश्वास की चिन्दियाँ देखते
हम हवा की मनौती मनाते रहे
 
 
कोई आ पायेगा धुन्ध को चीर कर
जानते थे नहीं शेष संभावना
किन्तु फिर भी कहीं आस की ले किरन
हम छुपाते रहे पास का आईना
इक अविश्वास पर फिर मुलम्मा चढ़ा
मूर्तियों को नमन नित्य करते हुए
जो कि अनभिज्ञ अपने स्वयं से रहे
उन नक्षत्रों की गतियों से डरते हुए
 
 
एक पत्थर को हम पोत सिन्दूर में
भोर संध्या में मस्तक नवाते रहे

खुद ना प्रश्न चिह्न बन जायें


कुछ प्रश्नों क्रे उत्तर मैने दिये नही बस इस कारण से
मेरे उत्तर नव प्रश्नो का कारण कहीं नहीं बन जायें

घड़ी प्रहर पल सभी रहे हैं प्रश्नों के घेरे में बन्दी
घटते बढ़ते गिरते उठते साये तक भी प्रश्न उठाते
गति में रुके हुए या मुड़ते पथ की हर सहमी करवट पर
हर पग की अगवानी करते प्रश्न चिह्न ही बस टँग जाते

गायन वादन रुदन हँसी के स्वर सब प्रश्नों के अनुचर हैं
चाहे जितनी बार छेड़ कर देखें स्वर की नय़ी विधायें

ऐसा भी तो नहीं प्रश्न के उत्तर ज्ञात नहीं हौं मुझको
लेकिन मेरे उत्तर भी तो करते रहे प्रश्न ही आकर
जब भी करी व्याख्या कोई, झुकी कमर को दिये सहारा
खड़े हो गये सन्मुख मेरे प्रश्नचिह्न आकर अकुलाकर

झुकी हुई नजरें बिछ जाती हैं हर एक दिशा में पथ की
इनसे दामन साफ़ बचाकरे कहो किस तरफ़ कदम बढ़ायें

प्रश्न प्रश्न ही रहते चाहे उत्तर का आवरण ओढ़ लें
उत्तर भी समझाया जाये अगर, नहीं हो पाता उत्तर
क्यों,कब,कहाँ,किसलिये,किसने,कैसे क्या जब शब्द उठे तो
मौन कंठ रहना चाहा है पल में पूर्ण समर्पण कर कर

प्रश्नों के उत्तर,उत्तर के प्रश्न और फिर उनके उत्तर
इनके रचे  व्यूह में घिर हम खुद  ना प्रश्न चिह्न बन जायें

चित्र बन रह जायें जब इतिहास

बोझ से लगने लगें सम्बन्ध के धागे जुड़े जब
आस हो कर के उपेक्षित द्वार से खाली मुड़े जब
कैद में बन्दी अपेक्षा की रहें सद्भावनायें
स्वार्थ के पाखी बना कर झुंड अम्बर में उड़ें जब
 
 
तब सुनिश्चित संस्कृतियों की हमारी वह धरोहर
जो विरासत में मिली थी, खर्च सारी हो गई है
 
 
छू न पायें याद की दहलीज को जब वे कहानी
मुद्रिकायें भी रहा करती रहीं जिनमें निशानी
अनकहे सन्देश लेकर थीं बहा करती हवायें
पास आ अनुभूतियों के रुत हुआ करती सुहानी
 
 
जान लेना तब मुलम्मों से भरी यह चन्द्रिका सी
पूर्णिमा के शब्द को भी अर्थ नूतन दे गई है
 
 
चित्र बन रह जायें जब इतिहास के सब स्वर्ण पन्ने
अर्थ की अनुभूतियों से ध्यान लग जाये बिछड़ने
मूल्य की भारी कसौटी हो परखती भावना को
सावनों को देख पत्ते वृक्ष से लग जायें झड़ने
 
 
सौंप जो मिट्टी गई थी होंठ को भाषायें कोमल
आज अपनी अस्मिता खोकर अनामिक हो गई है
 
 
शब्द कोशों से उधारी माँगती हो बात अपने
अर्थ को,हर व्याख्याके के पृष्ठ लगती हो पलटने
उलझनों के चक्रच्यूहों में घिरी संवेदना के
देख कर अपनी दशायें अश्रु ही रह पायें झरने
 
 
जान लेना तब हमारी उम्र की उपलब्धियों को
आज की पीढ़ी उठा ले ताक पर जा धर गई है

सुरभित इस मन का वृन्दावन


काजल की कजराई में जब डूबे कलम कल्पनाओं की
हस्ताक्षर उस घड़ी उर्वशी कर देती है मुस्कानों में
अलकों में आ गुँथ जाते हैं मेघदूत वाले सन्देसे
वाणी सरगम बन जाती है वंसी से उठती तानों में
 
शतरूपे !-तुम दूर सदा ही हो भाषा की सीमाओं से
कर देता है निमिष ध्यान का, सुरभित इस मन का वृन्दावन
 
युग के महाकाव्य अनगिनती, अंकित आकाशी अक्षों में
दृष्टि किरण से अनुबन्धित हो, सृष्टि प्रलय पलकों में बन्दी
चितवन में चित्रित सम्मोहन के सब मंत्र मेनका वाले
सांसों के कोमल स्पर्शों से, मलय वनों को मिले सुगन्धी
 
कलासाध्य हर एक कला की तुम ही केवल एक उपासित
चित्रकारिता हो नर्तन हो, हो गायन हो अथवा वादन
 
काल-सन्धि पर बने हुये हैं शिल्प एक तुमको ही अर्पित
मीनाक्षी कोणार्क अलोरा, ताजमहल, सांची खजुराहो
रंग कूचियों की अभिलाषा खींचें चित्र तुम्हारे ही बस
शिलाखंद की यही कामना, मूर्ति तुम्हारी में ढलता हो
 
मृगनयने !हर काव्य कहानी और लेख का लख्श्य तुम्हीं बस
शब्द शब्द पर भाव भाव पर रहा तुम्हारा ही आच्छादन

पढ़ कर सुनाये गुनगुनाते

पृष्ठ पर किसने हवा के याद के कुछ गीत लिख कर
पांखुरी से कह दिया पढ़ कर सुनाये गुनगुनाते
 
जलतरंगों से सिहरती धार की अवलोड़ना में
हो रही तट की प्रकम्पित सुप्त सी अवचेतना में
झाड़ियों पर टँक रही कंदील में जुगनू जलाकर
सांझ को ओढ़े प्रतीची के अधर पर स्मित जगा कर
 
कौन है जिसने उड़ाकर बादलों की चादरों को
बून्द को सन्देश भेजा द्वार पर अपने बुलाते
 
दोपहर में ओक-मेपल के तले इक लम्ब खींचे
कौन पल भर के लिये आकर रुका है आँख मींचे
फ़ेंकता है कौन पासे धूप से बाजी लगाकर
रंग भरता है धुंधलके में अजाने कसमसाकर
 
डालता है कौन मन की झील में फ़िर कोई कंकर
तोड़ता है इन्द्रजाली स्तंभनों को हड़बड़ाते
 
एक पल लगता उसे शायद सभी पहचानते हैं
और है मनमीत यह भी बात सब ही जानते हैं
किन्तु दूजे पल बिखरते राई के दानों सरीखा
छूट जाता हाथ से पहचान पाने का तरीका
 
प्रश्न यह अनबूझ कब से सामने लटका खड़ा है
और हल कर पायें रहतीं कोशिशें बस छटपटाते

तीन देवों का आशीष तीनों दशक

तीन देवों का आशीष तीनों दशक
हर दिवस था सुधा से भरा इक चषक
हर निशा स्वप्न के पुष्प की क्यारियाँ
भोर निर्झर घने रश्मियों के अथक
 
आज इस मोड़ पर याद आने लगे
और पल झूम कर गुनगुनाने लगे
 
दीप के साथ जलती अगरबत्तियां
धूप,तुलसी प्रसादी कलश नीर के
क्षीर का सिन्धु,गोकुल दधी के कलश
पात्र छलके हुए पूनमी खीर के
चन्दनी शीत मं घुल हिनाई महक
केवड़ों में भिगोते हुए वेणियाँ
कामनाओं की महकी हुई रागिनी
मंत्र पूरित स्वरों की पकड़ उंगलियाँ
 
आज जैसे विगत छोड़ आये निकट
और फिर बांसुरी सी बजाने लगे
 
दोपहर ला खिलाती रही पंथ में
फूल गमलों में बो सुरमई सांझ के
सांझ ने ओढ़नी पर निशा की रखे
चिह्न दीपित हुये एक विश्वास के
मानसी भावना ताजमहक्ली हुई
धार रंगती रही नित्य परछाईयाँ
सांस की रागिनी प्रीत की तान पर
छेड़ती थी धुनें लेके शहनाईयां
 
दृश्य वे सब लिये हाथ में कूचियाँ
चित्र फिर कुछ नये आ बनाने लगे
 
एक आवारगी को दिशा सौंप कर
वाटिकायें डगर में संवरती रहीं
ध्येय की फूलमालाओं को गूँथती
भोर अंगनाई में आ विचरती रही
पल के अहसास की अजनबी डोर ने
नाम अपने लिये इक स्वयं चुन लिया
थे बिखरते रहे झालरी से फिसल
भाव ,मन ने उन्हें सूत्र में बुन लिया
 
दृष्टि के दायरे और विस्तृत हुये
व्योम के पार जा झिलमिलाने लगे
 
वीथियाँ पग जिन्हें चूमते आ रहे
कुछ परे गंध से,कुछ रहीं मलयजी
कुछ विजन की दुशाला लपेटे हुये
और कुछ थीं रहीं वाटिका सी सजी
पल कभी साथ में होके बोझिल रहे
वक्त जिनमें रहा होके फ़ौलाद सा
और कुछ थे पखेरू बने उड़ गये
एक भी हाथ अपने नहीं आ सका
 
देख कर सारिणी में अपेक्षा सजी
प्राप्ति के पल सभी मुस्कुराने लगे
 
सांझ के रथ चढ़ा नीड़ जाता हुआ
कह रहा है दिवाकर सजाओ सपन
जो चला पोटली को उठा कर विगत
सौंप दो तुम उसे संचयित सब थकन
शब्द जो थे जगे अग्नि के साथ में
आहुती दे उन्हें प्रज्ज्वलित फ़िर करो
शेष जो आगतों के परस में छिपा
साथ भुजपाश में उसको मिल के भरो
 
प्रीत के भाव उल्लास से भर गये
नूपुरों की तरह झनझनाने लगे

लिखा था तुमने खत में.

आये वे पल याद
अचनक बहुत दिनों के बाद
चले थे चार कदम तुम साथ
एक अनजाने पथ में

सपनों के प्याले फिर से लग गये छलकने
आशाओं के पंछी लगे गगन में उड़ने
महक भर गई नये दिवस की आ सांसों में
रजनीगंधा दोपहरी में लगी महकने

होंठ पर आया था जब नाम
हँसी थी यमुना तट पर शाम
थिरकने लगे नृत्य में पांव
उस घड़ी वंशीवट में

सौगंधों की रेशम डोरी फिर लहत्राई
पीपल पत्रों ने सारंगी नई बजाई
मंदिर की चौखट पर संवरीं वन्दन्वारें
अम्बर ने थी पिघली हुई विभा बरसाई

लगे थे बजने मधुरिम गीत
उमड़ती थी हर पग में प्रीत
गये हैं एकाकी पल बीत
लिखा था तुमने खत में.

समय चक्र की फिर परिवर्तित गति आवारा
जो धो गई ह्रदय का सजा हुआ चौबारा
बहती हुई हवा ने मिलन बांसुरी पर जब
डूबा हुआ विरह में ही हर राग संवारा

अटक कर रही नजर उस मोड़
गया था मन को कोई झिंझोड़
चले तुम गए मुझे थे छोड़
चढ़े फूलों के रथ में

पत्थरों के देवता पे कुछ असर हुआ नहीं

अर्चना के दीप नित्य अनगिनत जलाए थे
प्रार्थना के गीत  भोर सांझ   गुनगुनाये थे
शीश टेकते रहे थे चौखटों पे भोर सांझ
भक्ति में डुबो के फूल पांव पर चढ़ाए थे
पत्थरों के देवता पे कुछ असर हुआ नहीं
हम जहां थे बस वहीं अड़े हुए ही रह गए

अंत हो सका नहीं है रक्तबीज आस का
छिन्न हो गया अभेद्य जो कवच था पास का
वक्त हो पुरंदरी खडा हुआ आ द्वार पर
कुण्डलों को साध के वो ले गया उतार कर
लेन देन का हिसाब इस तरह हुआ कि हम
दान तो दिये परन्तु हो ऋणी ही रह गये

ढूँढ़ते जिसे रहे हथेलियों की रेख में
वो छुपा हुआ रहा सदा ही छद्म वेश में
हम नजर के आवरण को तोड़ पर सके नहीं
अपने खींचे दायरों को छोड़ पर सके नहीं
दिवासपन मरीचिकाओं से बने थे सामने
एक बार फिर उलझ के हम वहीं ही रह गए

प्रश्न थे हजार पर न उत्तरों की माल थी
ज़िंदगी से जो मिली, वो इस तरह किताब थी
हल किये सवाल किन्तु ये पता नहीं चला
कौन सा सही रहा, है कौन सा गलत रहा
जांचकर्ता मौन ओढ़ कर अजाने ही रहे
अर्थ कोशिशों के घोष्य बिन हुए ही रह गए

रँगी निशा की कजरी चूनर

पावस के जाने पर प्राची में ज्यों किरण भोर की निखरे
जैसे गंगा की लहरों पर संध्याओं में सोना बिखरे
आवाज़ें उठ रहे शोर की ढल जायें ज्यों जलतरंग में
विधना कहे द्वार पर आकर,अपना भाग्य स्वयं तू लिख रे
 
कुछ ऐसी अनुभूति संचयित होने लगी मेरी निधियों में
मेरे नयनों के आँगन में आ जब सँवरे चित्र तुम्हारे
 
पारिजात की कोमल गंधों ने गुलाब की रंगत लेकर
शहदीली भाषाओं ने रससिक्त व्याकरण में सज धज कर
देहरी पर अगवानी में आ,सात रंग से रँगी अल्पना
धोने लगे पंथ अम्बर से घड़े नीर के छलक छलक कर
 
संध्या ले सिन्दूर,भोर ले कंकुम आतुर हुईं प्रतीक्षित
पहले कौन तुम्हारा पाकर परस स्वयं का रूप सँवारे
 
चन्दा ने पिघली चाँदी से रँगी निशा की कजरी चूनर
मंगल दीप जला मंदिर ने खोले स्वत: बन्द अपने पट
शहनाई ने गीत सुनाये,अलगोजे से तान मिलाकर
भाव सिक्त बह रही हवा के कँपने लगे अधर रह रह कर
 
रहे ताकते ध्यान केन्द्र कर,फूल पत्तियां,सुरभि वाटिका
मुस्कानों से भीगी वाणी,किसे तुम्हारी प्रथम पुकारे
 
आशा ने छू पाजेबों की रुनझुन को फिर ली अंगड़ाई
पथ गुलाब का पाटल होने लगा तुम्हारी छू परछाईं
चिकुरों पर से फिसल थिरकती किरणों ने कर दिया उजाला
लिखने लगा शब्द ही नूतन गीत स्वयं को कर वरदाई
 
खिड़की के पट थामे आकर पुरबाई ने सरगम के सँग
आँचल लहराकर दोनों में पहले किसको और निखारे

रोशनी चारदीवारियों में न सीमित रहे

दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
मन में खुशियों की उमड़ी हुई नर्मदा
तोड़ तटबन्ध सब,वीथियों में बहे

पंथ जिनको कभी अपने भुजपाश में
मानचित्रों ने बढ़ न सहारे दिये
जिनपे बिखरी हुई बालुओं के कणों
के प्रतीक्षाऒं में जल रहे हैं दिये
जिनसे परिचय नहीं प्राप्त कर पाये हैं
एक पल के लिये भी कदम आपके
दृष्टि में अपनी पाले हुये शून्यता
रह गये दूर हर एक आभास से

उन पथों की प्रतीक्षाओं का अन्त है
इस दिवाली पे स्वर आपका यह कहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे

दीप की ओट में छुप के जीता रहा
और सहसा ही  तन कर खड़ा हो गया
वह  तिमिर, एक झपकी पलक पर चढ़ा
और आकाश से भी बड़ा हो गया
इससे पहले कि वह और विस्तार ले
आप के,देश के,काल के भी परे
आओ प्रण लें कि इस वर्ष मिल हम सभी
उसके आधार के काट फ़ेंकें सिरे

खोखली नींव पर, रावणी दंभ का
शेष प्रासाद, इस ज्योति को छू ढहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे

उंगलियाँ जब उठायें बताशा कोई
याकि मुट्ठी कोई भी भरे खील से
फुलझड़ी की चमक हाथ में झिलमिले
रोशनी बात करती हो कंदील से
उस घड़ी ये न भूलें,कई हाथ हैं
जिनको इनका कभी भी परस न मिला
जिनकी अंगनाईयाँ होके बंजर रहीं
आस का जिन को कोई सिरा न मिला

आओ संकल्प लें आज हम तुम यही
उनकी आशा नहीं रिक्तता अब सहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे

शारदा के कमल पत्र से गीतकलश पर झरी चारसौपचासवीं बूँद

कुछ भी तो नहीं बदला. सूरज आज भी आधी सुबह तक बादलों से ढका हुआ था.वादी में आज भी कोहरा उतरा हुआ था ,ट्रेफ़िक की भीड़ उसी गति से बढ़ रही थी और कैलेन्डर ने वैसे ही प्याज के छिलके की तरह एक और दिन उतार कर रख दिया था अलार्म उसी समय बोला था और दिनचर्या भी पिछले सप्ताह की कार्बन कापी बन कर रह गई थी पर फिर भी कुछ एक अजीब सा अहसास मन को घेरे हुए था.
काफ़ी देर असमंजसों से जूझने के बाद भी कुछ हासिल न हुआ तो माँ शारदा के श्री चरणों में सर झुका कर उनके कमल पत्र से एक बूँद चुन ली. वह बूँद गीत कलश पर कमल पत्र से उतरी हुई चारसौपचासवीं बूँद---आपके समक्ष प्रस्तुत है:-



आज फ़िर से लग गया है प्रश्न करने मन स्वयं से
प्राप्ति का संचय भला है किसलिये इतनी उदासी

तय किये कितने समन्दर रोशनी की आस लेकर
मिल गये कितने मरुस्थल पास का मधुमास देकर
पथ विजन की शून्यता ने, जड़ गये पगचिह्न जैसे
रिक्तता के फल समेटे,नीड़ में निर्वास लेकर

उड़ गये संकल्प होकर के धुंआसे आंधियों में
ज़िन्दगी हो रह गई बस वेद की अन्तिम ॠचा सी

मोड़ यह कैसा जहाँ पर घुल गईं हैं सब दिशायें
सोख लेता है गगन हर रात में बिखरी विभायें
मंदिरों मे शयन पल के जल रहे अंतिम दिये सी
कँपकँपाती,छटपटातीं शेष होकर कामनायें

नित्य ही उपलब्धियाँ मिलती रहीं, होकर निराशित
याचकों के लौटने पर होंठ से झरती दुआ सी

पा नहीं पाये समर्पण का कभी प्रतिकार कोई
राशिफ़ल की वीथियाँ,नक्षत्र के जा द्वार खोईं
ढल गईं इक वृत्त में रेखायें खींची जो स्वयं ही
हो गई कीकर सदा, निशिगन्ध जो हर बार बोई

हाथ में थैली थमाने के लिये तत्पर न कोई
ज़िन्दगी ने रख लिया है किन्तु कर हमको सवासी

अर्थ हर इक शब्द ने बदले हमारे द्वार आकर
मौन की झंकार छेड़ी बाँसुरी ने गुनगुनाकर
वक्र ही होकर निहारा रोशनी के सारथी ने
ले गया दहलीज से वह सात घोड़ों को बचाकर

स्वप्न के बिखरे हुए अवशेष की धूनी रचाकर
आचमन को ढूँढ़ती हैं नीर, हो आँखें रुआँसी

वहीं वापिस बुलाने को

तुम्हारे गीत जो पुरबाईयां आकर सुनाती थीं
तुम्हारा चित्र नभ में जो बदरिया आ बनाती थी
तुम्हारा नाम जो तट को नदी आकर सुनाती थी
वो कलियाँ जो तुम्हारी छाँह पाकर मुस्कुराती थीं
मेरी सुधियों के आँगन में समन्दर पार कर करके
अचानक आ गईं, मुझको वहीं वापिस बुलाने को
 
जहाँ पर भावनाओं की सदा गंगा उमड़ती है
जहाँ पर भोर के संग रागिनी नूतन मचलती है
जहाँ पर गंध के झोंके तुम्हारी बात करते हैं
जहाँ अपनत्व की भाषा बिना शब्दों सँवरती है
जहाँ की वाटिकाओं के गुलाबों की यही आशा
तुम्हारे कुन्तलों में गुँथ सकें, जूड़ा सजाने को
 
मिला था पथ तुम्हारा राह मेरी से जहाँ आकर
जहाँ फ़ूटा अधर से था प्रथम परिचय रँगा आखर
जहाँ दस उंगलियों ने छू लिया था एक पुस्तक को
जहाँ झेंपी निगाहें,रह गये थे होंठ मुस्का कर
जहाँ पर उम्र के उस गांव की चौपाल रहती है
प्रतीक्षा में, कोई आये नया किस्सा सुनाने को
 
जहाँ पीपल तले अब भी शपथ जीवन्त होती है
जहाँ अब भी चुनरिया उंगलियों का बन्ध होती है
जहाँ पर दॄष्टि करती है नये इक ग्रंथ की रचना
जहाँ की रीत में पदरज सिरों पर धार्य होती है
जहाँ पर आस्थायें प्राण का संचार कर अब भी
बनाती ईश पत्थर को, सहज ही सर नवाने को

निश्शब्द ही होकर खड़ा हूँ

क्योंकि लिखने के लिये अब शेष कुछ भी तो नहीं है
कोष में थे शब्द जितने, हो चुके हैं खर्च सारे
भावनाओं की धरा पर बूँद तो बरसें निरन्तर
किन्तु जितने बीज बोये, रह गये हैं सब कुँआरे
इसलिये मैं मौन प्रतिध्वनियाँ समेटे अंजुरी में
आपके आ सामने निश्शब्द ही होकर खड़ा हूँ
 
थे दिये बहती हवाओं ने मुझे पल पल, निमंत्रण
उंगलियाँ अपनी बढ़ाईं थाम कर उनको चलूँ मैं
एक जो सदियों पुरानी ओढ़ रक्खी है दुशाला
फ़ेंक कर उसको नया इक आवरण निज पर रखूँ मैं
 
किन्तु मुझको बाँध कर जो एक निष्ठा ने रखा है
मैं उसी के साथ चलने की लिये इक ज़िद अड़ा हूँ
 
मुस्कुराती गंध भेजी थी बुलाने को कली ने
छेड़ कर वंशी बुलाया था लहर ने गुनगुनाकर
बादलों के कर हिंडोले व्योम ने भी द्वार खोले
और मधुबन मोहता था घुंघरुओं को झनझनाकर
 
किन्तु मैं अपनी विरासत में मिली कोई धरोहर
को बना कर कील अपने आप में जमकर पड़ा हूँ
 
खींचती है आज भी अनजान सी डोरी कहीं से
बाँधने को आज फ़िर आतुर कोई है पांव मेरे
सांझ की धुलती गली में सुरमई छींटे उड़ाता
टेरता है कोई फिर उस पार के मेरे सवेरे
 
किन्तु में अभिव्यक्ति की असमर्थता की शाख पर से
भाव के निष्प्राण पत्तों की तरह फ़िर फ़िर झड़ा हूँ.

बस इतना है परिचय मेरा

बस इतना है परिचय मेरा
 
भाषाओं से कटा हुआ मैं
हो न सका अभिव्यक्त गणित वह
गये नियम प्रतिपादित सब ढह
अनचाहे ही समीकरण से जिसके प्रतिपल घटा हुआ मैं
जीवन की चौसर पर साँसों के हिस्से कर बँटा हुआ मैं
 
बस इतना है परिचय मेरा
 
इक गंतव्यहीन यायावर
अन्त नहीं जिसका कोई, पथ
नीड़ नहीं ना छाया को वट
ताने क्रुद्ध हुए सूरज की किरणों की इक छतरी सर पर
चला तोड़ मन की सीमायें, खंड खंड सुधि का दर्पण कर
 
बस इतना है परिचय मेरा
 
सका नहीं जो हो परिभाषित
इक वक्तव्य स्वयं में उलझा
अवगुंठन जो कभी न सुलझा
हो पाया जो नहीं किसी भी शब्द कोश द्वारा अनुवादित
आधा लिखा एक वह अक्षर, जो हर बार हुआ सम्पादित
 
बस इतना है परिचय मेरा

नाम है आपका

भोर में शब्द ने पंछियों के स्वरों में
कहा गूँज कर नाम है आपका
शाख ने बात करते हुए डूब से
मुस्कुराकर कहा नाम है आपका
शांत सोई हुई झील के होंठ पर
आके ठहरी हुई फूल की पंखरी
यों लगा दर्पणों ने लिखा वक्ष पर
बिम्ब बन कर स्वयं नाम है आपका

पेड़ की पत्तियों से छनी धूप ने
छाँह पर नाम लिख रख दिया आपका
थाल पूजा का चूमा खिली धूप ने,
ज्योति बो नाम को कर दिया आपका
धूप ने बात करते हुये बूँद से,
आपके नाम को इन्द्तधनुषी किया
सांझ को धूप ने घर को जाते हुये,
रंग गालों पे ले रख लिया आपका.

जब गीतों को गाकर मेरे

कल्पवृक्ष की कलियों ने जब पहली बार नयन खोले थे
पुरबाई के झोंके पहली बार नाम कोई बोले थे
प्रथम बार उतर कर गिरि से नदिया कोई लहराई थी
पहली बार किसी पाखी ने जब उड़ने को पर तोले थे
 
हुलस गए हैं वे सारे पल आकर के मेरी नस नस में
दृष्टि तुम्हारी से टकराए मीत नयन जब जाकर मेरे
 
पिघली हुई धूप छिटकी हो आकर जैसे ताजमहल पर
क्षीर सिन्धु में प्रतिबिंबित हो कर चमका जैसे पीताम्बर
हिम शिखरों पर नाच रही हो पहली किरण भोर की कोई
थिरक रही हों सावन की झड़ियाँ जैसे आ कर चन्दन पर
 
लगा ओढ़ कर बासंती परिधान तुषारी कोई प्रतिमा
अंगनाई में खडी हो गई अनायास ही आकर मेरे
 
सुधियों में यूँ लगा सुधायें आकर के लग गई बरसने
भावो के कंचन को कुन्दन किया किसी अनुभूत छुअन ने
सांसों के गलियारे में आ महक उठीं कचनारी कलियाँ
पल पल पुलकित होती होती धड़ाकन धड़कन लगी हरषने
 
लगे नाचने सरगम के सातों ही सुर आकर बगिया में
तुमने उनको जरा सुनाया जब गीतों को गाकर मेरे
 
मिलीं दिशायें ज्योंकि उपग्रही संसाधन से हो निर्देशित
अकस्मात ही अर्थ ज़िन्दगी के कुछ नये हुए अन्वेषित
लक्ष्य, साध के ध्येय प्रेम के आये समझ नये फिर मानी
जीवन का हर गतिक्रम होने लगा तुम्हीं से प्रिय उत्प्रेरित
 
गुँथे आप ही आप सुशोभित होकर के इक वरमाला में
जितने फूल सजाये तुमने गुलदानों में लाकर मेरे

गीत गाता रहा

कोई बैठा हुआ सांझ के खेत में
ढल रही धूप के तार को छेड़ते
चंग टूटा हुआ इक बजाता रहा
गीत गाता रहा
 
दूर  चौपाल ने कितनी आवाज़ दीं
फूल पगडंडियाँ थीं बिछाती रहीं
जेहरों पे रखीं पनघटों की भरी
कलसियां थीं निमंत्रण सजाती रहीं
किन्तु अपनी किसी एक धुन में मगन
आँख में आँज कर कुछ अदेखे सपन
नींद की सेज पर सलवटों को मिटा
चान्दनी, चाँदनी की बिछाता रहा
गीत गाता रहा
 
स्वर्णमय आस ले झिलमिलाते रहे
पास अपने सितारे बुलाते रहे
तीर मंदाकिनी के सँवरते हुए
रास की भूमिकायें बनाते रहे
चाँद का चित्र आकाश में ढूँढ़ता
काजरी रात का रंग ले पूरता
दूर बिखरे क्षितिज की वो दहलीज पर
अल्पनायें नयी कुछ सजाता रहा
गीत गाता रहा
 
पास पाथेय सब शेष चुकने लगा
नीड़ आ पंथ पर आप झुकने लगा
शेष गतियाँ हुईं वृक्ष की छाँह में
एक आभास निस्तब्ध उगने लगा
संग चरवाहियों के चला वो नहीं
भ्रम के भ्रम से कभी भी छला वो नहीं
शाख पर कंठ की रागिनी के, बिठा
शब्द को वे हिडोले झुलाता रहा
गीत गाता रहा

ज़िन्दगी है रेशमी साड़ी

ज़िन्दगी है रेशमी साड़ी जड़ी इक चौखटे ,में
बुनकरों का ध्यान जिससे एक दम ही हट गया है
पीर के अनुभव सभी हैं बस अधूरी बूटियों से
रूठ कर जिनसे कशीदे का सिरा हर कट गया है

है महाजन सांस का लेकर बही द्वारे पुकारे
और मन ये सोचता है किस तरह नजरें छुपाये
आँख का आँसू निरन्तर चाहता है हो प्रकाशित
शब्द की ये चाहना है गीत कोई नव सजाये
गीत मन के सिन्धु से जो रोज उमड़े हैं लहर बन
आज ऊपत आ नहीं पाते कहीं पर रुक गये हैं
भावनाओं के हठीले देवदारों के सघन वन
दण्डवत भूशायी हो कर यों पड़े ज्यों चुक गये हैं

दर्द के इक कुंड में जलता हुआ हर स्वप्न   चाहे
कोई आकर सामने स्वाहा स्वधा के मंत्र गाये
पर न जाने यज्ञ के इस कुंड से जो उठ रहा था
हो हविष नभ, को शुंआ वो लग रहा है छंट गया है

धड़कनें बन कर रकम, लिक्खी हुईं सारी , बकाया
रह गईं जो शेष उनको नाम से जोड़ा गया है
एक जो अवसाद में उलास के टांके लगाता
रेशमी धागा, निरन्तर सूत कर तोड़ा गया है
नीलकंठी कामनायें विल्वपत्रों की प्रतीक्षित
पर सजाया है उन्हें आकर धतूरे आक ने ही
राजगद्दी ने जिन्हें वनवास खुद ही दे दिया हो
हो सके अभिषेक उनके, बस उमड़ती खाक से ही

कोस बिख्री सांस के अक्षम हुए लम्बाई नापें
साढ़साती घूम कर फिर आई कितनी बार मापें
उंगलियों पर आंकड़ों का अंक जितनी बार जोड़ा
एक केवल शून्य हासिल, और सब कुछ घट  गया है

कल्पना के पाखियों के पर निकलने से प्रथम ही
कैद करने लग गया सय्याद से दिन जाल लेकर
चाँद के तट तक पहुँचने की उमंगें लड़खड़ाती
ले गई है सांझ वापस, रात की हर नाव खे कर
खूँटिया दीवाल पर नभ की जड़ी थीं जगमगाती
शिल्पियों ने फिर अमावस के, पलस्तर फेर डाला
यामिनी के राज्य ने षड़यंत्र रच कर भोर के सँग
पूर्व की गठरी बँधी में से चुरा डाला उजाला

आस पल पल जोड़ कर संचित करें कुछ आज अपना
आँजने लगती पलक  की कोर पर ला कोई सपना
किन्तु मायावी समय के सूत्र की पेचीदगी में
घिर, रहा जो पास में था, आज सारा बँट गया है

गीत वे ही आज रचना चाहता हूँ


गीत जो साहित्य की दहलीज पर जा झिलमिलायें
गीत जो टीका समय के भाल पर जाकर लगायें
गीत जिनको गुनगुनाने के लिये हों होंठ आतुर
गीत जो हर इक किरन के साथ मिल कर जगमगायें
 
 
गीत! हाँ मैं गीत वे ही आज रचना चाहता हूँ
 
 
स्वप्न वे जो आस बुनती है रही भीगे नयन में
स्वप्न वे जिनकी हुई तय परिणति बस इक अयन में
स्वप्न जिनको सुरमई करती प्रतीची आरुणी हो
स्वप्न जिनसे भोर का तारा सजा रहता शयन में
 
 
स्वप्न ! हाँ मैं स्वप्न बन वे, नयन अँजना चाहता हूँ
 
 
शब्द जिनको कह नहीं पाये अधर वे थरथराते
शब्द जिनका अर्थ पाने के लिये स्वर छटपटाते
शब्द जिन के कोष में हो ज्ञान शत मन्वन्तरों का
शब्द जिनके स्पर्श को सुर सरगमों के झनझनाते
 
 
शब्द ! हाँ मैं शब्द बन वे कंठ बसना चाहता हूँ
 
 
भाव जिनके सिन्धु में लेतीं हिलोरें लहर प्रतिपल
भाव नव अनुभूतियों का जो बने हर बार सम्बल
भाव जो अभिव्यक्त होकर भी सदा हैं पास रहते
भाव जो निस्पन्द होकर भी रहे स्वच्छंद चंचल
 
 
भाव ! हाँ मैं भाव वे बन उर संवरना चाहता हूँ

कितना खोया है कितना पाया है

शाख कलम की फूल अक्षरों के जब नहीं खिला पायेगी
छन्दों में जब ढल न सकेंगी,उमड़ भावनायें अंत:स की
वाणी नहीं गीत गायेगी,डुबो रागिनी में स्वर लहरी
और दृष्टि से कुछ कहने की कला न रह पायेगी बस की
 
 
ओ सम्बन्धित ! क्या तब भी तुम मुझ से यह संबंध रखोगे
जो हर बार गीत को मेरे नया याम देता आया है
 
कल क्या होगा भान न इसका मुझको है, न है तुमको ही
हो सकता है कलम उठाने में हो जायें उंगलियाँ अक्षम
हो सकता है मसि ही चुक ले लिखते हुए दिवस की गाथा
या हो सकता चुटकी भर में जो यथार्थ लगता,होले भ्रम
 
कल परछाईं जब अपनी ही साथ छोड़ जाये कदमों का
क्या तुम तब भी दे पाओगे वह सावन,जो बरासाया है
 
कल मरुथल की उष्मा बढ़कर सोखे यदि भावों का सागर
नुचे परों वाले पाखी सी नहीं कल्पनायें उड़ पायें
मन हो बंजर और धरातल पर न फूटे कोई अंकुर
क्षितिज पार के ज्ञान वृत्त जब सहसा मुट्ठी में बँध जायें
 
कल जब अधर न बोलें कुछ भी महज थरथरा कर रह जायें
क्या तुम वह सब दुहराओगे,जो मैने अब तक गाया है
 
शब्दों को स्वर देने वाला, उनका रचनाकार अगर कल
मुझे बना कर नहीं रख सके, अपनी रचनाओं का माध्यम
तो क्या संभव चीन्ह सकोगे मुझको कहीं भूल से चाहे
इस अनंत में जहां ,रहा अस्तित्व सूक्ष्मतम अणु से भी कम
 
अंत आदि में कल जब मिश्रित हो जाये तो क्या संभव है
तुम कर सको आकलन कितना खोया है कितना पाया है

मंगल दीप जलाया क्यों था

तुमको अगर चले जाना था
राहों में अंधियारा भर के
संझवाती का तो फिर तुमने
मंगल दीप जलाया क्यों था
 
 
मुट्ठी भरे गगन पर अपने
स्वीकृत मुझको रही घटायें
चाहा नहीं भटक कर राहें
ही आ जायें चन्द्र विभायें
मैं व्यक्तित्वहीन सिकता का
अणु इक चिपका कालचक्र से
अपने तक ही सीमित मैने
रखीं सदा निज व्यथा कथायें
 
तुमने नहीं ढालना था यदि
अपने सुर की मृदु सरगम में
मेरे बिखरे शब्दों को फिर
तुमने गीत बनाया क्यों था
 
बदलीं तुमने परिभाषायें
एक बात यह समझाने को
चुनता है आराध्य,तपस्वी
अपनी पूजा करवाने को
राहें ही देहरी तक आतीं
पा जातीं जब नेह निमंत्रण
बादल भी आतुर होता है
नीर धरा पर बरसाने को
 
जो तपभंग नहीं करना था
मेरे विश्वामित्री मन का
तो फिर कहो मेनका बनकर
तुमने मुझे रिझाया क्यों था
 
नियति यही थी सदा रिक्त ही
रही मेरी कांधे की झोली
एक बार भी सोनचिरैय्या
आकर न आँगन में बोली
किस्सों में ही पढ़ी धूप की
फैली हुई सुनहरी चादर
धुन्ध कुहासे दिखे लटकते
जब भी कोई खिड़की खोली
 
तुमको नींद चुरा लेनी थी
मेरी इन बोझिल रातों की
तो पलकोंपर सपने का भ्रम
लाकर कहो सजाया क्यों था

विमुख सभी सम्बन्ध हो गये

एक द्वार था केवल जिससे अटकी हुई अपेक्षायें थीं
जीवन के उलझे गतिक्रम ने उसके भी पट बन्द हो गये
 
कथा एक ही दुहराई है हर इक दिन ने उगते उगते
आक्षेपों के हर इक शर का लक्ष्य हमीं को गया बनाया
जितने भी अनकिये कार्य थे वे भी लिखे नाम पर अपने
बीजगणित का सूत्र अबूझा रहा,तनिक भी समझ न आया
 
कभी किसी से स्पष्टिकरण की चर्चायें जैसे ही छेड़ीं
अनायास ही अधर हमारे पर अनगिन प्रतिबंध हो गये
 
नयनों के दर्पण तो दिखलाते ही रहे बिम्ब जो सच थे
पता नहीं कैसे भ्रम ने आ उन पर भी अधिकार कर लिया
शेष नहीं था मार्ग इसलिये नीलकंठ के अनुगामी हो
जो कुछ मिला भाग में अपने, हमने अंगीकार कर लिया
 
किन्तु न जाने छिन्दर्न्वेषी समयचक्र की क्या इच्छा थी
निर्णय सभी हवा के पत्रों पर अंकित अनुबन्ध हो गये
 
बन कर छत्र निगलता आया दिनकर परछाईं भी अपनी
लहरें रहीं बहाती पग के नीचे से सिकता को पल पल
दिशा बोध के चिह्न उड़ाकर सँग ले गईं दिशायें खुद ही
लगा रूठने निमिष निमिष पर धड़कन से सांसों का संबल
 
तुलसी पत्रों गंगाजल की रही तोड़ती दम अभिलाषा
विमुख स्वयं ही से अब जितने अपने थे सम्बन्ध हो गये

अब चुप होकर मैं

थमे हवा के झोंके छत के कमरे में बैठे
लहरें छुपीं रहीं जाकर पर्वत के कोटर में
तारों पर झंकार नींद से होड़ लगा सोई
सोच रहा हूँ बैठूं थोड़ा अब चुप होकर मैं


पीपल बरगद चन्दन पानी
लहराते निर्झर
यज्ञभूमि वेदी आहुतियाँ
संकल्पों के स्वर
निष्ठा और आस्था संस्कृतियों
की गाथाएँ
मन्त्रों मेम गुन्थित जीवन की
सब परिभाषाएं
 
 
लिखते लिखते बिखर गई है चादर पर स्याही
जिसे उठा कर सोच रहा हूँ,रख दूं धोकर मैं
 
सपनों के अनुबन्ध और
सौगन्धें अयनों की
रतनारे,कजरारे,मदमय
गाथा नयनों की
गठबन्धन,सिन्दूर,मुद्रिका
पैंजनिया कंगन
चौथ,पंचमी,पूनम,ग्यारस
अविरल आयोजन
 
दोहराते बीते जीवन की निधि का रीतापन
सोच रहा हूँ चलूँ और अब कितना ढोकर मैं
खुले अधर के मध्य रह गईं
बिना कहे बातें
मौसम साथ न जिनको लाया
वे सन सौगातें
क्यारी,फूल,पत्तियाँ,काँटे
भंवरों का गुंजन
अलगोजे की तान-अधूरी
पायल की रुनझन
 
सब सहेज लेता अनचाहे यायावरी समय
सोच रहा क्या पाऊंगा,फ़िर से यह बोकर मैं

जो छिपे हैं हुये नाम के नाम में

रूढ़ियों से बँधी सोच को दे रहा
सोच के कुछ नये आज आयाम मैं
चेतना में नये बोध के बीज ले
बो रहा हूँ नई भोर में शाम में
 
जो डगर ने सजा चिह्न पथ में रखे
मैने उनका किया है नहीं अनुसरण
मैने खोजीं सदा ही दिशायें नई
मंज़िलों के पथों की नई व्याकरण
बादलों की बना तूलिका खींचता
चित्र मैं कैनवस इस गगन को बना
लीक को छोड़कर साथ मेरे चले
मैं हवा को सिखाता नया आचरण
 
नाम विश्लेष कर ढूँढ़ता अर्थ वे
जो छिपे हैं हुये नाम के नाम में
 
मैने कागज़ उठा ताक पर रख दिये
गीत लिखता हूँ मैं काल के भाल पर
सांस की सरगमें नृत्य करती सदा
मेरी धड़कन की छेड़ी हुई ताल पर
रात मसि बन रही लेखनी पर मेरी
रंह भरता दिवाकर मेरे शब्द में
छन्द शिल्पित करे अन्तरों को मेरे
चित्र खींचे अनागत स्वयं अक्ष में
 
मैं सजाने लगूँ जब भी पाथेय तब
आके गंतव्य बिछता रहा पांव में
 
दीप बन कर लड़ा मैं तिमिर से स्वयं
चाँदनी के भरोसे रहा हूँ नहीं
तीर होते विलय धार में जा जहाँ
मैं उम्नड़ कर बहा हूँ सदा ही वहीं
जो सितारे गगन से फ़िसल गिर पड़े
टाँकता हूँ क्षितिज के नये पृष्ठ पर
नैन की पार सीमाओं के जो रहा
मैं उसे खींच ला रख रहा दृष्टि पर
 
छाप अपनी सदा मैं रहा छोड़ता
पल,निमिष ,क्षण, घड़ी और हर याम में

महकाता मन का वृन्न्दावन

धड़कन धड़कन सां सांस सब मेरी तुमसे जुड़ी हुई हैं
दिवस निशा के हर इक पल पर सिर्फ़ तुम्हारा ही है शासन
काजल की कजराई में जब डूबे कलम कल्पनावाली
हस्ताक्षर उस घड़ी उर्वशी के घुल जाते मुस्कानों में
अलकों में आ गुँथ जाते हैं मेघदूत वाले सन्देशे
वाणी की सरगम बनती है वंसी से उठती तानों में
गंगा यमुना कावेरी की लहरों में तुम लो अँगड़ाई
कलासाधिके तुम करती हो चित्रित मेरे मन का आंगन
युग के महाकाव्य अनगिनती अंकित आकाशी अक्षों में
दृष्टि किरण से अनुबन्धित हो सृष्टि प्रलय पलकों में बन्दी
चितवन में अंकित सम्मोहन के सब मंत्र मेनका वाले
सांसों के इक सुरभि परस से मलयवनों को मिले सुगन्धी
शतरूपे तुम परे सदा ही भाषाओं की सीमाओं से
एक निमिष ही ध्यान तुम्हारा महकाता मन का वृन्दावन
शिल्पकार की छैनी हो या कलाकार की कूची कोई
उनका वेग नियंत्रित करता है बस एक तुम्हारा इंगित
ताजमहल की मीनारें हों या कि अजन्ता की दीवारें
सब के सब होते आये हैं एक तुम्ही को सदा समर्पित
तुम फागुन की मस्त उमंगों में लहराती चूनरिया हो
और तुम्ही तो हो मल्हारें जिनको नित गाता है सावन

कोई वह गीत गाये तो

सुरभि की इक नई दुल्हन चली जब वाटिकाओं से
तुम्हारा नाम लेने लग गये पुरबाई के झोंके
महकती क्यारियों की देहरी पर हो खड़ी कलियाँ
निहारी उंगलियों को दांत में रख कर,चकित होके
 
 
उठे नव प्रश्न शाखों के कोई परिचय बताये तो
लिखा जो गीत स्वागत के लिये, आकर सुनाये तो
 
 
खिलीं सतरंगिया आभायें पंखुर से गले मिलकर
गमकने लग गई दिन में अचानक रात की रानी
कभी आधी निशा में जो सुनाता था रहा बेला
लचकती दूब ने आतुर सुनाने की वही ठानी
 
 
खड़कते पात पीपल के हुये तैयार तब तनकर
बजेंगे थाप तबले की बने, कोई बजाये तो
 
 
लगीं उच्छल तरंगें देव सरिता की डगर धोने
जलद की पालकी भेजी दिशाओं ने पुलक भर कर
सँवर कर स्वस्ति चिह्नों ने सजाये द्वार के तोरण
लगीं शहनाईयां भी छेड़ने शहनाईयों के स्वर
 
 
मलय के वृक्ष ने भेजे सजा कर लेप थाली में
सुहागा स्वर्ण में मिल ले, जरा उसको लगाये तो
 
 
बिखेरे आप ही लाकर, नये, दहलीज ने अक्षत
सजाईं खूब वन्दनवार लाकर के अशोकों ने
प्रतीक्षा में हुई उजली गली की धूप मैली सी
सजाये नैन कौतूहल भरे लेकर झरोखों ने
 
 
मचलती बिजलियों की ले थिरक फिर रश्मियाँ बोलीं
हजारों चाँद चमकेंगें, जरा घूँघट हटाये तो..

मौसमों की रहीं चिट्ठियाँ सब फ़टी

एक पल चाँदनी की किरन साथ थी
दूसरे पल घटा घिर उसे पी गई
पीर नयनों की तकली पे कतते हुए
सूत बन कर अधर की कँपन सी गई
चिह्न सब कंठ की राह के मिट गये
स्वर भटकता रहा बन पतंगे कटी
कुछ न अनुकूल था जो मिला सामने
मौसमों की रहीं चिट्ठियाँ सब फ़टी
 
जितने सन्देश उत्तर को भेजा किये
उनके उत्तर सुनाती रही दक्षिनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी
 
दूर फ़ैले हुए दृष्टि के व्योम पर
चित्र बनते संवरते बिगड़ते रहे
कोई अहसास उंगली छुड़ाता रहा
पग दिशाहीन थे, किन्तु चलते रहे
नीड़ पाथेय संध्या उगी भोर सब
रह गये अर्थ के अर्थ में ही उलझ
राह की दूरियों का कहाँ अन्त है
और उद्गम कहाँ,आ सका न समझ
 
धूप को पी गई,दोपहर जब हुई
पास में रह गई धुन्ध ही बस घनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी
 
श्याम विवरों में खोते सितारे सभी
लेख लिख भी नहीं पा सके भाल का
रात की कोठरी में सिमट रह गया
एक निर्णय, दिवस के लिये,काल का
राशियों ने रखे पांव घर में नहीं
अंक गणनाओं के शून्य में खो गये
जो फ़लित पल हुए,वे विजन ही रहे
और जो शेष थे, हाथ से खो गये
 
कालिखों ने जकड़ पाश में रख लिये
रंग चन्दन के कल तक रहे कंचनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी
 
मंत्र के अनसुने स्वर निगलते रहे
जो अपेक्षायें थीं प्रार्थना में घुली
कुछ धुँये की लकीरों की अँगड़ाईयां
बन्द करती रहीं खिड़कियाँ जो खुली
उपक्रमों के सिरे थामने के लिये
कोई निर्देश आया नहीं सामने
बिन पते के सभी लौट आते रहे
जितने सन्देश भेजे मेरे गांव ने
 
और निस्तब्धता को रही चीरती
चूनरी एक पगली हवा की तनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी

हम कुशल क्षेम के पत्र लिखते रहे

आंसुओं में घुली पीर पीते हुए
हम कुशल क्षेम के पत्र लिखते रहे
 
एक पल के लिए भी न सोचा कभी
हम व्यथाएं किसी और से जा कहें
सांत्वना के हवाओं को आवाज़ दें
फिर गले से लिपट साथ उनके बहें
होंठ ढूंढें कोई अश्रु पी जाए जो
कोई कान्धा,जहां शीश अपना रखें
कोई अनुग्रह,अपेक्षाओं के डोर से
थाम कर हाथ में साथ बांधे रखें
 
पंथ ही ध्येय माने हुए रख लिया
त्याग विश्रांति पल,नित्य चलते रहे
 
भीड़ मुस्कान के साथ चलती सदा
अश्रु रहता अकेला,यही कायदा
इसलिए ढांप कर अश्रु अपने रखे
था प्रकाशन का कोई नहीं फ़ायदा
कारुनी द्रष्टि जो एक पल हो गई
दूसरे पल विमुख ज्ञात हो जायेगी
और फिर से स्वयं को ही इतिहास के
अनवरत हो कहानी ये दुहारायेगी
 
मंडियों में उपेक्षित हुए शूल हैं
फूल ही सिर्फ दिन रात बिकते रहे

उस पल यादों के कक्षों के

लिखते हुए दिवस के गीतों को जब थकीं रश्मि की कलमें
एक लगी ठोकर से बिखरी दावातों की सारी स्याही
सिंदूरी हो गई प्रतीची ने लिख दिया आख़िरी पन्ना
प्राची पर रजनी के आँचल की आ परछाई लहरे
उस पल यादों के कक्षों के वातायन खुल गए अचानक
और तुम्हारे साथ बिठाये क्षण सरे जीवंत हो गए

अमलतास की गहरी छाया गुलमोहर के अंगारों में
जंगल के तट से लग बहती नदिया के उच्छल धारों में
विल्व-पत्र पर काढ़े स्वस्ति के चिन्हों की हर इक रेखा में
इतिहासों के राजमहल के लम्बे सूने गलियारों में
समय तूलिका ने जितने भी चित्रित किये शब्द के खाके
सुधियों के पन्नों पर अंकित हुए, प्रीत के ग्रन्थ बन गए

झुकी द्रष्टि पर बनी आवरण पलकों कजी कोरों पर ठहरे
मन की गहराई से निकले डूब प्रीत में भाव सुनहरे
लिखते हुए चिबुक पर उंगली के नख से नूतन गाथाएं
सिरहाना बन गई हथेली की रेखाओं में आ उतारे
अनचीन्ही इक अनुभूति के समीकरण वे उलझे उलझे
एक निमिष में अनायास ही जन्मों के अनुबंध हो गए

जहां मोड़ पर ठिठक गए थे पाँव कहारों के ले डोली
जिन दहलीजों पर अंकित थी, शुभ शुभ श्गागुन लिए रंगोली
पायल के गीतों से सज्जित रहती थी इक वह अंगनाई
जहाँ नीम की शाखाओं पर सुबह साँझ चिड़ियाएँ बोलीं
उस विराम के अपने खाने बने हुए स्मृति मंजूषा में
आज अचनाक निकल कोष से वे सरे स्वच्छंद हो गए

संप्रेषणों में शब्द की सीमा

कभी अनुभूति के संप्रेषणों में शब्द की सीमा
अजाने ही अचाहा भाव का कुछ अर्थ कर देती
बदलती सोच की परछाईं में उलझी हुई सुधियां
अपेक्षित जो नहीं होता वही ला गंध भर देती


हुये जब दायरे सीमित हमारी चेतनाओं के
न कहना जान पाते हम न सुनना जान पाते है


उमड़ते अश्रुओं के भाव जब जब शब्द में ढलते
तो शब्दों को भी निश्चित ही हुई अनुभूत पीड़ायें
मगर हर शब्द का धीरज, सहन की शक्तिइ अद्भुत है
किया बिलकुन न उन सब ने व्यथा अपनी जता जायें


दिये भाषाओं ने जो ज्ञान के मुट्ठी भरे मोती
वे बिंधते तो हैं, माला में नहीं सम्मान पाते हैं


निरन्तर जो बहे झरने द्रवित हो शैल से मन के
उन्हीं में खो गये हैं धार के खनके हुये नूपुर
तटी की दूब ने सारंगियाँ बन तान जो छेड़ीं
रहा अवरोह में उनके भटकता कंठ का हर सुर


गयी सौंपी करों में ला हमारे एक जो वीणा
नहीं संगीत रचते ,तार केवल झनझनाते हैं

आवाज़ कोई द्वार आकर

हो गया विचलित अचानक सांझ में यह वावला मन
दे रहा है यूँ लगे,आवाज़ कोई द्वार आकर
 
देखता हूँ द्वार पर दहलीज पर है शून्य केवल
दूब को सहलायें ऐसे भी नहीं थिरकें हवायें
ओढ़ कर सूना अकेलापन बिछी पगडंडियाँ हैं
लौट आती हैं क्षितिज से रिक्त ही भटकी निगाहें
 
शान्त इस निस्तब्धता में किन्तु जाने क्यों निरन्तर
लग रहा सरगम सुनाती नाम कोई गुनगुनाकर.
 
शाख पर से झर बिखर कर रह गया है पर्ण अंतिम
शोषिता सिकता हुई है मौन अब होकर समर्पित
झाड़ियां तटबन्ध पर जैसे लिये बैठीं समाधी
छुप गईं जाकर क्षितिज के पार हर बदरी अचम्भित
 
रुद्ध तारों पर हुए हैं साज के गूँजे हुए स्वर
किन्तु लगता छुप रहा कोई मुझे रह रह बुलाकर
 

एक पल जो खींचता है डोरियां सुधि की सहज ही
शुष्क मरुथल में अचानक प्राण आकर सींचता है
हैं ललकती सिन्धु की उच्छल तरंगे बाँह भर लें
जो अचानक पीठ पीछे आ पलक को मींचता है
 

चाहता हूँ देख पाऊँ मैं उसे अपने नयन से
किन्तु रहता है घटा की ओट में छुप वह प्रभाकर

कोई भी आवाज़ न गूँजी

पायल तो आतुर थी थिरके
बजी नहीं वंशी पर ही धुन
सूना रहा तीर यमुना का
कोई भी आवाज़ न गूँजी
 
फूल, कदम के तले बिछाये
रहे गलीचा पंखुरियों का
सिकता अभ्रक के चूरे सी
कोमल हुई और चमकीली
लहरों ने थी उमड़ उमड़ कर
दीं तट को अनगिन आवाज़ें
हुई सांवरी डूब प्रतीक्षा में
अम्बर की चादर नीली
 
पलक बिछाये बाट जोहता
था बाँहे फ़ैलाये मधुवन
लालायित था चूम पगतली
सहज लुटा दे संचित पूँजी
 
गोकुल से बरसाने तक था
नजरें फ़ैलाये वॄन्दावन
दधि की मटकी बिछी डगर पर
कहीं एक भी बार न टूटी
छछिया में भर छाछ खड़ी थी
छोहरियां अहीर की पथ में
नाच नचाती जिसको जाने
कहाँ गई कामरिया रूठी
 
भटक गया असमंजस में फ़ँस
मन का जैसे हर इक निश्चय
एक पंथ पर रहा प्रतीक्षित
दूजी कोई राह न सूझी
 
घुँघरू ने भेजे वंशी को
रह रह कर अभिनव आमंत्रण
संबंधों की सौगंधों की
फिर से फिर से याद दिलाई
प्रथम दॄष्टि ने जिसे लिख दिया था
मन के कोरे कागज़ पर
लिपटी हुई प्रीत की धुन में
वह इक कविता फिर फिर गाई
 
लेकिन रहे अधूरे सारे, जितने
किये निरन्तर उपक्रम
गुंथी हुई अनबूझ पहेली
एक बार भी गई न बूझी

यों उधारी की हमको मिली ज़िंदगी

यों उधारी की हमको मिली ज़िंदगी

दिल्ली मेट्रो में दफ्तर को जाते हुए
धक्का मुक्की के नियमित हुए खेल सी
आफ सीजन में क्लीरेंस के वास्ते
हेवी डिस्काउंट पर लग रही सेल सी
बीस दिन बर्फ के बोझ से दब रही
लान की सूख कर मर गई घास सी
एक कोने में टेबुल के नीचे पडी
गड्डियों से जुदा हो गए ताश सी
ठण्ड में वस्त्र खोकर ठिठुरते हुए
एक गुमसुम अकेले खड़े पेड़ सी
हर किसी की छुंअन से अपरिचित रहे
टूट नीचे गिरे एक झरबेर सी

ज्यों फटी जेब हो अनासिली ,ज़िंदगी
थी उधारी की हमको मिली ज़िंदगी

शब्द के अर्थ की उँगलियों से विलग
पृष्ठ पर एक आधे लिखे गीत सी
पश्चिमी सभ्यता की चमक ओढ कर
भूली बिसरी पुरानी किसी रीत सी
दाग पहने हुए टोकरी से किसी
दूर फेंके हुए लाल इक सेव सी
रेडियो से बदल एक फ्रीक्वेंसी
हो प्रसारित नहीं जो सकी, वेव सी
बंद हो रह गई इक घड़ी से बजा
ही नहीं भोर के एक एलार्म सी
देखता ही नहीं कोई भी आ जिसे
बंद कमरे में बिखरे हुए चार्म सी
 
 
ठूंठ जैसी रही अनखिली ज़िंदगी
यों उधारी की हमको मिली ज़िंदगी
 
 
सीढि़याँ ले विरासत की चलता रहा
ब्याज दर ब्याज इक अनचुके कर्ज़ सी
दर्पणों को दिखाते हुए प्रश्न बन
सामने आ खड़े अननिभे फ़र्ज़ सी
इक स्वयंवर में टूटे धनुष की तरह
चौथ के चन्द्रमा के कलुष की तरह
कामनाओं के बोझों तले दब गिरे
स्वर्ग पाकर के राजा नहुष की तरह
एक पूजा के बासी हुए फूल सी
नित्य दुहराई जाती रही भूल सी
प्यास की आग में होंठ जलते लिये
एक नदिया के सूखे पड़े कूल सी
 
 
धूप मे, पापड़ों सी बिली ज़िन्दगी
यों उधारी सी हमको मिली ज़िन्दगी
 
 
ज़िंदगी मुझसे नजरें चुराती रही
दूर बैठे हुए मुस्कुराती रही
आज सहसा मेरे सामने आ गई
मुझको बैठे बिठाए हंसी आ गयी

मातृ दिवस

शब्द कोशों ने पूरा समर्पण किया
और भाषायें सब मौन होकर रहीं
तेरा उपमान बन आ सके सामने
पूर्ण ब्रह्मांड में कोई ऐसा नहीं
सॄष्टि की पूर्ण निधि से बड़ा है कहीं
तेरे आशीष का इक परस शीश पर
चिह्न तेरे चरण के जहां पर पड़े
स्वर्ग है देव-दुर्लभ वहीं पर कहीं


शब्द जितने रहे पास सब चुक गये, वन्दना के लिये कुछ नहीं कह सके
तूने जिनको रचा वे हो करबद्ध बस प्रर्थना में खड़े मौन हो रह गये
तूने पूरा दिया पर अधूरा रहा ज्ञान मेरा,रहीं झोलियां रिक्त ही
कंठ के स्वर मेरे आज फिर से तेरा पायें आशीष शत बार हैं कह गये

जितनी संचित हुईं मेरी अनुभूतियां,भावनायें रहीं या कि अभिव्यक्तियाँ
होंठ पर आके जितनी सजीं हैं सभी तेरा अनुदान बन ज़िन्दगी को मिलीं
सिद्धियाँ रिद्धिया जितनीं पाईं ,चढ़े जितने गिरि्श्रग मैने प्रगति पंथ पर
उनकी राहें सुगम कर रहीं रात दिन कलियां आशीष की क्यारियों में खिली
----------------------------------------------------------------------------------
कामधेनु की क्षमतायें कर सहसगुनी
कल्पवृक्ष की निधियों को कर कोटि गुणित
जितना होता संभव, उसका अंश नहीं
जो तेरे आँचल में रहता है संचित

युगों युगों तक करते हुए तपस्यायें
जितना ऋषि-मुनियों को प्राप्त हुआ करता
वह इक पल में तेरी ममता का अमृत
बन कर सहज शीश पर आ जाता झरता

तेरे इक इंगित से होता सृष्टि सृजन
तू ही ब्रह्मा विष्णु और शिव से वंदित
कलुषों की संहारक,ज्ञान-ज्योति दायक
तुझको है जीवन का हर इक क्षण अर्पित

जग ने जो कुछ पाया, तू ही है कारण
शब्द कहें कुछ तुझको,संभव हुआ नहीं
तू ही भाषा, भाव और संप्रेषण तू
तेरा कोई गुण गाये हो सका नहीं

तू तराश कच्ची मिट्टी के लौंदे को
एक सुघड़ और सुन्दर मूर्ति बनाती है
संस्कार,संस्कृतियाँ,सारी शिक्षायें
तेरे ही चरणों से बह कर आती हैं

एक बार फिर यही कामना है मेरी
तेरा हस्त छ्त्र बन सिर पर तना रहे
माँ ! जीवन की हर करवट में बसा हुआ
तेरा यह अनुराग साथ में बना रहे

कौन जिससे फूल ने सीखा महकना


कौन है जो चाहता है गीत में मेरे संवरना
भावना की उंगलियों को थाम छन्दों में विचरना
 
 
कौन है जो सुर मिलाये गुनगुनाहट से मधुप की
कौन तितली के परों पर आप अपना चित्र खींचे
कौन अलसाई दुपहरी की तरह अंगड़ाई लेता
स्वप्न बन आये नयन में,सांझ जब भी आँख मीचे
 
 
सोचत्ता हूँ, कौन जिससे फूल ने सीखा महकना
कौन है जो चाहता है गीत में मेरे सँवरना
 
 
कौन है जो शब्द को देता निरन्तर अर्थ नूतन
कौन जो गलबाँह डाले चेतना सँग मुस्कुराता
कौन भरता प्राण में माधुर्य सुधियों के परस का
कौन मेरी धमनियों में शिंजिनी सा झनझनाता
 
 
ढूँढ़ता हूँ कौन,जिससे सीखती कलियाँ चटखना
कौन है जो चहता है गीत में मेरे संवरना
 
 
कौन है मन में जगाये ताजमहली प्रेरणायें
कौन बन कर तूलिकायें,रंग खाकों में उकेरे
यामिनी की सेज सज्जित कौन करता आ निशा में
कौन बन कर दीप अभिनन्दित करे उगते सवेरे
 
 
कौन अंधियारे ह्रदय में सूर्य सा चाहे चमकना
कौन है जो चाहता है गीत में मेरे संवरना
 
 
हो रहीं सुधियाँ विलोड़ित कौन जिसकी एक स्मृति से
कौन है परछाईयों में भर रहा आभा सिँदूरी
कौन होकर के समाहित कालगति में चल रहा है
कौन जिसके नाम बिन हर साँस रह जाती अधूरी
 
 
कौन जिसका बिम्ब चाहे नैन में रह रह उतरना
कौन है जो चाहता है गीत में मेरे संवरना

पीड़ा की मदिरा भर देती

सुधा बिन्दु की अभिलाषायें लेकर आंजुर जब फ़ैले
पीड़ा की मदिरा भर देती तब तब सुधियों की साकी


जीवन नहीं नियोजित होता किसी गीत के छन्दों सा
बिखरावा इतना है जितना आता नहीं सिमटने में
चढ़ते दिन की सीढ़ी पर यूँ जमीं काई की परतें हैं
संध्या तक पल बीतें रह रह गिरने और संभलने में


उत्सुक नजरों के प्यालों को लेकर प्रश्न खड़े रहते
उत्तर की भिक्षा देने को, नहीं कोष में कुछ बाकी


घुल जाते हैं रंग भोर के संध्या के अस्ताचल में
पिघली हुई रात बह बह कर दोपहरी तक आ जाती
जली धूप के उठे धुंये में रेखाचित्रों के जैसी
जो भी आकॄति बनती, पल के अंशों में ही खो जाती

मार्गचिह्न का लिये सहारा खड़े रह गये पांवों को
डगर दिखा करती है केवल कांटो वाली विपदा की


अम्बर की खिड़की से झांका करता है एकाकीपन
देहलीजों के दीपक थक कर सो जाते राहें तकते
पीते टपकी हुई चाँदनी, पर रहते प्यासे तारे
फूल ढूँढ़ते ओस कणों को जगी भोर के सँग झरते


मछुआरा हो समय समेटे फ़ैंका हुआ जाल अपना
पर मरीचिका हो रह जाती नयनों की हर इक झांकी

ढाई अक्षर मैं नहीं वे पढ़ सका हूँ

वह अधर के कोर से फिसली हुई सी मुस्कराहट
वह दुपट्टे की सलों में छुप रही सी खिलखिलाहट
चित्र वे तिरते नयन में कुछ नए संभावना के
वह स्वरों की वीथि में अनजान सी कुछ थरथराहट

जानता हूँ दे रहे थे वह मुझे सन्देश कोई
किन्तु अब तक ढाई अक्षर मैं नहीं वे पढ़ सका हूँ

कह रही थी कुछ हवाओं की तरंगों में उलझ कर
साथ उड़ कर बून्द की चलती हुई इक गागरी के
थी लिखी उमड़ी घटाओं के परों पर भावना में
बात वह जो बज रही थी इक लहर पर ताल की के

एक उस अनबूझ सी मैं बात को समझा नहीं हूँ
यद्यपि वह सोचता हर रात चिन्तित हो जगा हूँ

था हिनाई बूटियों ने लिख दिया चुपके चिबुक पे
उंगलियों ने जो लिखा था कुन्तली बारादरी में
कंगनों ने खनखना कर रागिनी से कह दिया था
और था जो खुसपुसाता सांझ को आ बाखरी में

मैं उसी सन्देश के सन्दर्भ की डोरी पकड़ने
हाथ को फ़ैलाये अपने अलगनी पे जा टँगा हूँ

अर्थ को मैने तलाशा,पुस्तकों के पृष्ठ खोले
प्रश्न पूछे रात दिन सूरज किरण चन्दा विभा से
बादकों की पालकी वाले कहारों की गली में
पांखुरी पर ले रही अँगड़ाईयाँ चंचल हवा से

प्रश्न चिह्नों में उलझताधूँढ़ता उत्तर कहीं हो
मैं स्वयं को आप ही इक प्रश्न सा लगने लगा हूँ

एक ही साध मन में सँजोये

छन्द के फूल अर्पित किये जा रहा
तेरे चरणों में, मैं नित्य माँ शारदे
एक ही साध मन में सँजोये हुए
मुझको निर्बाध तू अपना अनुराग दे
भावना के उमड़ते हुए वेग को
कर नियंत्रित,दिशायें नई सौंप दे
मेरे अधरों को सरगम का आशीष दे
बीन के तार तू अपने झंकार के
तेरे शतदल कमल से छिटकती हुई
ज्ञान की ज्योति पथ को सुदीपित करे
तेरे वाहन के पर से तरंगित हुईं
थिरकनें, कल्पनायें असीमित करे
माल के मोतियों से अनुस्युत रहें
शब्द जो लेखनी के सिरे से झरें
अक्षरों को नये भाव के प्राण दे
तेरा आशीष उनको सँजीवित करे
तेरे स्नेहिल परस से निखरते हुए
शब्द घुँघरू बने झनझनाते रहें
आरुणी कर परस प्राप्त करते हुए
छंद तारक बने झिलमिलाते रहें
तेरी ममता की उमड़ी हुई बदलियाँ
शीश पर छत्र बन कर बरसती रहें
कामना है यही साँस की डोर से
हों बँधे गीत बस खिलखिलाते रहें.

याद मेरी कुछ आई थी क्या

दीप जलाकर जब तुम तीली फ़ूँक मार कर बुझा रहीं थी
सच बतलाना उस पल तुमको याद मेरी कुछ आई थी क्या


सुधि के पृष्ठों पर अंकित हैं दिवस अभी भी जब हम औ तुम
मनकामेश्वर के मन्दिर में जाकर दीप जलाया करते
गूँज रही आरति के घन्टों की मधुरिम ध्वनियों के सँग सँग
कंठ मिला कर पंचम सुर में हम तुम दोनों गाया करते

चन्द्रवार को शिव मन्दिर में विल्वपत्र जब चढ़ा रहीं थी
यह बतलाना आरतियाँ वे पुन: होंठ पर आईं थी क्या


गुलमोहर के फूलों पर जब प्रतिबिम्बित होती थी सन्ध्या
तब कपोल से रंग तुम्हारे लेकर सजती रही प्रतीची
प्राची की चूनर होने लग जाती स्वयं और कजरारी
जब भी तुमने दॄष्टि भंगिमा से कोई रेखा थी खींची


आज झुटपुटे में तुमने जब बादल पर परछाईं देखी
तो लाली की रंगत फ़िर से आ कपोल पर छाई थी क्या


रचे तीर पर कालिन्दी के, नदिया जल में मिश्रित कर के
श्यामल सिकता को, जो मैने तुमने मिल कर कई घरौंदे
रोपे थे, अनजानी अभिलाषाओं की कलमें ले लेकर
लिखी भूमिका के, वे दहलीजों पर रंग बिरंगे पौधे


आज वाटिका में कुटीर की ,तुम बटोर थीं जब महकें
तो उन सब ने मिल कर उन पौधों की याद दिलाई थी क्या

अधलिखी कोई रुबाई गुनगुनाता जा रहा हूँ.

बन्द द्वारे से पलट कर लौट आते स्वर अधर के
दॄष्टि के आकाश पर आकर घिरीं काली घटायें
थाम कर बैठे प्रतीक्षा को घने अवरोध के पल
लीलने विधु लग गया है आज अपनी ही विभायें

किन्तु मैं दीपक जला कर आस की परछाईयों में
अधलिखी  कोई रुबाई गुनगुनाता जा रहा हूँ.

सिन्धु मर्यादाओं के तट्बन्ध सारे तोड़ता सा
बिछ रहा आकाश आकर के धरा की पगतली में
राजपथ को न्याय के जो पांव आवंटित हुए थे
रह गये हैं वे सिमट कर के कुहासों की गली में

किन्तु मैं निज को बना कर यज्ञकुंडों की लपट सा
दर्पणों में साध के बस झिलमिलाता जा रहा हूँ

उत्तरों की सूचियों का नाम लेकर प्रश्न बैठे
दोपहर ने ढूँढ ली है छांह निशि की चूनरी में
रक्तवर्णी पंकजों के पात सारे झर चुके हैं
आज  मणियाँ हो गईं मिश्रित  समर्पित घूघरी में

और मैं भटके हवा की डोर में अटके तृणों सा
बिन किसी कारण कोई गाथा सुनाता जा रहा हूँ

हैं उजालों के मुखौटे ओढ़ कर आते  अंधेरे
दे रहा इतिहास रह रह दंश अनगिनती दिवस को
वे अधर जो जल चुके हैं एक दिन पय स्पर्श पाकर
चाहते तो हैं नहीं पर थामते प्याला विवश हो

और मैं धुंधलाये पन्ने धर्मग्रंथों के उठाकर
दिन फ़िरेंगें, ये दिलासा ही दिलाता जा रहा हूँ
--

चैतिया सारंगियां अब लग गईं बजने

हवा में गन्ध आकर कोई मोहक लग गई घुलने
क्षितिज पर बादलों के बन्द द्वारे लग गये खुलने
धरा ने श्वेत परदों को हटा कर खिड़कियाँ खोलीं
गमकती ओस से पाटल कली के लग गये धुलने

नगर से मौसमों के दूर जाता है शिशिर का रथ
पुलकती चैतिया सारंगियां अब लग गईं बजने

लगे हैं कुनमुनाने पालने में शाख के पल्लव
हुआ आरम्भ फ़िर से पाखियों का भोर में कलरव
उठी है कसमसाकर, धार नदिया की लगी बहने
हवा को चूम पाना दूब को होने लगा सम्भव

अंगीठी सेक कर पाने लगी है धूप अब गरमी
बगीचे के सभी पौधे चढ़ा आलस लगे तजने

लगा है धूप का साम्राज्य विस्तृत और कुछ होने
सिमटने लग गया है अब निशा के नैन का काजल
सँवरने लग गये पगचिह्न निर्जन पंथ पर फिर से
विचरते हैं गगन में दूध से धुल कर निखर बादल

लगीं लेने उबासी तलघरों में सिगड़ियां जलतीं
उठे कम्बल स्वयं को लग पड़ें हैं ताक पर धरने

वह हो गया स्वयं परिभाषित

यद्यपि कर न सका है ये मन
कभी समय की परिभाषायें
साथ तुम्हारे जो बीता है
वह हो गया स्वयं परिभाषित

उगी भोर जब अँगनाई में
पाकर के सान्निध्य तुम्हारा
शहदीले हो गये निमिष सब
पल पल ने छेड़ी बाँसुरिया
किरन तुम्हारे दर्शन का पा
पारस परस, सुनहरी हो ली
फूलों पर लाकर उंड़ेल दी
नभ ने ओस भरी गागरिया

प्राची ने खिड़की के परदे
हटा निहारा जब नदिया को
लहर लहर में गोचर तब थी
सिर्फ़ तुम्हारी छवि सत्यापित

अरुणाई हो जाती बदरी  
पाकर परछाईं कपोल की
पहन  अलक्तक के गहने को
संध्या हुई और सिन्दूरी
सुईयाँ सभी घड़ी की उस पल
भूल गईं अपनी गति मंथर
निर्निमेष हो अटक गई, तय
कर न सकी सूत भर दूरी

अनायास ही चक्र समय का
ठिठक रहा तुमको निहारता
चित्र दृष्टि ने खींच दिया जो
नहीं स्वप्न में था अनुमानित

आस का पात्र बस झनझनाता रहा


दिन उगा,ढल गया,रात आई,गई
साँस का कर्ज़ बढ़ता ही जाता रहा

काल के चक्र से बँध गये थे कदम
एक क्षण के लिये भी कहीं न रुके
नीड़ विश्रान्ति को था कहीं पर नहीं
अनवरत चल रहे पांव हारे थके
पंथ पाथेय में राह देता रहा
धुन्ध में डूब गन्तव्य ओझल रहा
दृष्टि छू न सकी दूर फ़ैला क्षितिज
भार पलकों का कुछ और बोझल रहा

इक भुलावा कि गति ज़िन्दगी से बँधी
फ़िर भ्रमित कर हमें मुस्कुराता रहा

शेष होते दिवस की खड़ी  सांझ ले
अपने हाथों में बस आरती के दिये
हर सुबह की उगी धूप ने हर घड़ी
ये छलावे हमें भेंट में ला दिये
मरुथली मेघ थे छत डगर की बने
धूप जलती रही जेठ को ओढ़कर
और हम कैद से मुक्त हो न सके
अपनी खंडित धरोहर का भ्रम तोड़कर

सीढ़ियों से निराशा की गिरते हुए
आस का पात्र बस झनझनाता रहा

हाथ जोड़े हुए शीश अपना झुका
हम समर्पण किये जब हुए थे खड़े
तो विदित हो गया साये अब हो गये
अपनी सीमाओं से कुछ अधिक ही बड़े
भीख मिल न सकी इसलिये, झोलियाँ
एक संकोच में खुल न पाईं कभी
और झूठे हुए दम्भ दीवार बन
एक दिन के लिये भी झुके न कभी

शून्य फ़ैली हथेली की रेखाओं पर
अपना हल लाके फिर फिर चलाता रहा

चाँदनी का नहीं कोई उल्लेख था
शब्द के कोष जितने रहे पास में
ओस की बून्द भी एक घुल न सकी
हर निमिष होंठ पर उग रही प्यास में
टूटती नाव के एक मस्तूल पर
छीर होता हुआ पाल देखा किये
ढूँढ़ते थक गये जिसको अपना कहें
कोई हो एक पल,हम कभी जो जिये

सिन्धु का तीर लहरें बुलाते हुए
हर घरौंदा बनाया, मिटाता रहा

रात आई थी मगर आई उबासी लेती

हमने पट नैन के हर रोज खुले छोड़े हैं
चाँदनी रात नये स्वप्न लिये आयेगी
होठ की गोख पे डाली नहीं चिलमन हमने
कोई सरगम ढली शब्दों में उतर आयेगी
आस खिड़की पे खड़ी दिल की, गगन से आकर
कोई बदली किसी पाजेब से टकरायेगी
और तारों की किरन पर से फ़िसलती यादें
बूँद बरखा की लिये साथ चली आयेंगी
गुनगुना उठेंगी कमरे में टँगीं तस्वीरें
पाँव क अलते को छू देहरी सँवर जायेगी
कोई धानी सी चु्नर हाथ हवा का पकड़े
मेरी आंखों के दहाने पे लहर जायेगी

मगर ये हो न सका, स्वप्न नहीं लाई थी
रात आई थी मगर आई उबासी लेती
पंथ फ़ागुन ने बुहारा था राग गाते हुए
बात उसकी न समझ पाई, रही चुप चैती
और पाजेब के घुँघरू भी गये टूट बिखर
तान बदली ने सुनाई तो झनझनाये नहीं
पाहुने यूँ तो बहुत द्वार पे आ आ के रुके
जिनकी चाहत रही दहलीज को, वे आये नहीं

पाहुने आये नहीं मांग लिये सूनी सी
देहरी बैठी ही रहीं श्वेत पहन कर साड़ी
आज भी ताकती हैं सूनी कलाई उसकी
एक कंगन ने जो चूनर पे बूटियाँ काढ़ीं

किरणों ने तम की चादर धोने की कसम उठा डाली है

लौट गईं सागर की लहरें जब तट से टकरा टकरा कर
मौन हुए स्वर गिरजों मस्जिद मंदिर में स्तुतियाँ गाकर
थके परिंदों ने नीडों में अम्बर का विस्तार  समेटा
स्वप्न ताकते रहे नयन की चौखट जब रह रह अकुलाकर
तब सीने में छुपी एक चिंगारी ज्वाला बन कर भड़की
और तुष्टि की परिभाषाएं सहसा सभी बदल डाली हैं

पग के तले बिछी सिकता भी अपना रूप बदल लेती है
एक सहारा बही हवा का मिले भाल पर चढ़ जाती है
यद्यपि सहन शक्ति की सीमा अन देखी है अनजानी है
लेकिन एक मोड़ पर वह भी सारे बंध तोड़ जाती है

प्राची की चौखट से थोड़ा पहले जो थी तनी रही थी
किरणों ने तम की चादर धोने की कसम उठा डाली है

रक्तबीज का अंत सुनिश्चित, मुंह फैलाया चामुंडा ने
महिशामर्दिनी  हुई चेतना उठी नींद से ले हुंकारें
गिरा शुम्भ अस्तित्वविहिना,धराशायी होता निशुम्भ भी
युद्ध भूमि बन गए घ५रों की पायल बन कटार झंकारें

एक चेतना जो अलसाई सोई रही कई बरसों से
आज उठी तो रूप बदल बन आई बनी महाकाली है


जरासंध की सत्ता हो या मधु कैटभ हो नरकासुर हो
शोषक का अस्तित्व पलों की गिनती तक ही तो टिक पाता
तप अभाव के अंगारों में विद्रोही बन उठता कुन्दन
और निखर उठने पर उसके फिर प्रतिबन्ध नहीं लग पाता

गिरे शाख से फूल पुन: चढ़ डाली पर खिलने लगते हैं
जिस बगिया में स्वार्थपरक ही होकर रह जाता माली है

कहीं नीड़ कोई मिल जाए

महानगर की संस्कॄतियों के लिखे हुए नव अध्यायों में
खोज रहे हैं परिचय वाला कोई तो अक्षर मिल जाये

लाते नहीं हवायें स्मृति की
मन के अवरोधित वातायन
सोख लिया करतीं दीवारें
जागी हुई भोर का गायन
दॄष्टि सिमट कर रह जाती ह
बन्दी होकर गलियारों मे
सूरज की परिभाषा होत
कन्दीलों के उजियारों में

बँधे चक्र में चलते चलते आस यही इक रहती मन में
बांधे हुए नियति का जो है, इक दिन वह खूँटा हिल जाये

कैद हो गया है कमरों की
सीमाओं में आकाशी मन
सब के अर्थ एक जैसे हैं
कार्तिक फ़ागुन, भादों सावन
शब्दकोश से बिछुड़ गये हैं
पनघट, चौपालें, चरवाहे
दंशित है निस्तब्ध पलों से
अलगोजा चुप ही रह जाये

नये चलन ने बोये तो हैं बीज बबूलों के गमलों में
फिर भी अभिलाषा है इनमें पुष्पित हो गुलाब खिल जाये

उड़ती हुई कल्पनाओं का
पाखी है जहाज का पंछी
हर सरगम को निगल गई है
अपनी धुन में बजती वंसी
क्षितिज चौखटों पर आ ठहरा
शहतीरें नक्षत्र बन गई
सम्बन्धों के अनुबन्धों में
डोरी डोरी रार ठन गई

अंगनाई में शिला जोड़ कर पर्वत एक बना तो डाला
और अपेक्षा बिना किसी श्रम के यह खुद ही हो तिल जाए

दिन का माली बेचा करता
नित्य सांस की भरी टोकरी
आखें काटा करतीं रातें
ले सपनों की छुरी भोंथरी
आशंका की व्याधि घेर कर
रहती सोचों की हर करवट
कोई अंतर ज्ञात न होता
क्या मरघट है क्या वंशीवट

भीड़ भरे इस शून्य विजन में भटक रहे इक यायावर की
केवल आस यही है इक दिन कहीं नीड़ कोई मिल जाए

दर्द तुम्हारे हैं हम बेटे

सुख का सपना जिससे मिलकर ले लेता है दुख की करवट
दर्द तुम्हारी अंगनाई के हम ही हैं बेटे इकलौते

परिचय के धागों ने बुनकर कोई आकॄति नहीं बनाई
साथ न इक पग चली हमारे पथ में अपनी ही परछाईं
घट भर भर कर झुलसी हुई हवायें भेजा करता मधुबन
इन राहों से रही अपैरिचित, गंध भरी कोमल पुरबाई

अभिलाषा की लिखी इबारत बिखर गई,हो अक्षर अक्षर
टूट गये सांसों ने जितने किये आस्था से समझौते

पतझड़ के पत्तों सा उड़ता रहा हवा में मन वैरागी
लगा न टुकड़ा इक बादल का गले कभी बन कर अनुरागी
बुझी राख से रँगे गये हैं चित्र टँगे जो दीवारों पे
सोती वापस साथ भोर के ऊषा एक निमिष भर जागी

अपनेपन की चादर ओढ़े जो मरीचिका बन कर आये
भ्रम ने घूँघट खोल बताया, ये थे सारे झूठे न्यौते

खिलती हुई धूप के सँग आ पीड़ाओं ने पंथ बुहारे
कांटे वन्दनवार बन गये, रहे सजाते देहरी द्वारे
पाथेयों की परिभाषायें संध्या के नीड़ों में खोई
चन्दा की चादर को ओढ़े मिले महज जलते अंगारे

साधों के करघे पर जब भी बुनी कोई दोशाला हमने
और उतारा तो फिर पाया सारे धागे ज्यों के त्यों थे

रांगोली रचती आंखों में उड़ती हुई डगर की धूलें
अवरोधों के फ़न फ़ैलाये खड़ी रहीं जो की थीं भूलें
कतरा कर निकले गलियों से स्पर्श हवाओं की गंधों के
अपनेपन के अहसासों से हुआ नहीं आकर के छू लें

गंगा रही कठौती में भी गाथाओं में सुना हुआ था
रहे हमारे अभिलाषा के जल से वंचित किन्तु कठौते

आशंका की घिर कर आई सांझ सवेरे रह रह बदरी
जागी आंखों के सपनों में उलझी रही सदा दोपहरी
आर्त स्वरों से सजे थाल की पूजा ठुकरा दी देवों ने
असमंजस के चौराहे पर अटकी रही प्रगति जो ठहरी

टीका करती रहीं शीश पर दहलीजों पर उगीं करीलें
हमने उमर गँवाई अपनी बीज फूल के बोते बोते

गीत नया इक बन जाते हैं

ढली शाम के लम्हों में जब बीते हुए दिवस की चादर
सुधियों की अलगनियों पर आ सहसा ही लहरा जाती है
धुंधले हुए निमिष उस पल में फिर संजीवित हो जाते हैं
और अचानक शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

चले जा रहे दिन के साए में खो जाती अभिलाषाएं
लगतीं हैं दोहराने मन की चौपालों पर वे गाथाएँ
जिनमें रस्ता भटके वन में पता पूछते राजकुंवर को
राह निदेशन के संग संग में बिन मांगे वर मिल जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

जुड़ती नहीं नयन की कोरों से आकर सपनों की डोरी
एक बार फिर रह जाती है आशा की चूनरिया कोरी
हाथों की रेखाओं में जब दिशा ढूँढते संघर्षी को
उलझी हुई राह के बनते हुये व्यूह ही दिख पाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

रोज लुटाती निधि को फिर भी क्षीण न होती पीर पोटली
लगती भरी सांत्वनाओं से वाणी की हर बात खोखली
सरगम के आरोहों पर से फिसले सारंगी के सुर में
इकतारे के एकाकी स्वर जब आ शामिल हो जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

आदिकाल से बना हुआ इक दोपहरी का पुल जब टूटे
निशा संधि  की रेखाओं तक आये नहीं कभी भी, रूठे
जब प्राची के रक्तकपोलों पर से छिटकी हुई अरुणिमा
के आभास प्रतीची की दुल्हन का आँचल बन जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

अंगड़ाई जब उठी भोर की रह रह कर करवट ही बदले
और सेज पर फूल स्वयं ही अपनी पांखुर रह रह मसले
लुटी हुई रजनी के पथ में नयनों से सपनों की गठरी
को ला करुणामयी सितारे आ सिरहाने रख जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

तुम भी दे जाओ पीड़ायें

नीलकंठिया कह कर जग ने दिया हलाहल हमें भेंट में
है आभार तुम्हारा भी यदि तुम भी दे जाओ पीड़ायें

जागी हुई भोर ने केवल विष में बुझे तीर संधाने
सूरज की किरणें ले आईं उपालंभ जाने पहचाने
पल के  आक्षेपों की उंगली, रही केन्द्रित एक हमीं पर
दोषारोपण की दोशाला गये उढ़ा जाने अनजाने

अभिलाषा के दीप सांझ की चौखट तक भी पहुँच न पाये
दोपहरी से रहीं ताक में उन्हें बुझाने तेज हवायें

वयसंधि पर पूजा वाले दीपक ने भी पांव जलाये
यज्ञ कुण्ड की आहुतियों से उमड़े बस संशय के साये
मंत्र रहे अभिशापित सारे जितने आन चढ़े अधरों पर
लेने हविष न उतरा कोई हमने कितने देव बुलाये

टूट बिखर रह गये तार से सरगम के स्वर जो भी सा्धे
फूटी नहीं कंठ से वाणी कितनी भी कोशिश की, गायें

रहे मिटाते हाथों की रेखाओं को पल फ़िसले फ़िसले
आंसू रहे तड़पते नयनों की देहरी को छोड़ न निकले
शब्दों के सांचे से दूरी बढ़ती रही भावनाओं की
बन कर आगत आये सम्मुख भुले हुए दिवस सब पिछले


अक्षम होकर पांव ठिठक कर पीछे ही रह गये राह में
यों तो गतिमय रहे निरन्तर,साथ साथ दिन के चल पायें



याद की चादरें कुछ नई फिर बुनें

नैन के गांव की राह भूले हुए
इक अधूरे सपन की कहानी सुनें
तार के कंपनों में छुपी जो व्यथा
आओ वह सरगमों की जुबानी सुनें

सामने जो रहा सब ही देखा किये
पार्श्व में अर्थ लेकिन छुपे रह गये
कोई नेपथ्य में झांकने न गया
मंच की होड़ करते हुए रह गये
डोरियां खींचते थक गईं उंगलियों
की कहानी किसी को पता न चले
कुमकुमे रोशनी के इसी ताड़ में
अपनी परछाईयों से गये थे छले

फ़ड़फ़ड़ाते हुए पृष्ठ जो कह रहे
सार उसमें निहित जो रहा वह गुनें

शब्द जो थे नहीं होंठ को छू सके
एक भीगी पलक ने कहे वे सभी
कल न पहचान पाई नजर थी जिन्हें
अजनबी रह गये वे सभी आज भी
दॄष्टि के जो न विस्तार में आ सके
पीर के वे निमिष और बोझिल हुए
एक ही बात की रट लगाये हुए
बस मचलते रहे धड़कनों के सुए

सांस की बांसुरी ने पुन: टेर दीं
राग विरहा में डूबी हुई कुछ धुने
चिह्न तो उद्गमों के डगर पी गई
और गंतव्य का कुछ पता न चला
दूरियाँ जितनी तय पांव करते रहे
उतना बढ़ता रहा बीच का फ़ासला
एक ही वृत्त में हर दिशा घुल गई
नीड़ पाथेय सब एक हो रह गये
छोर इस पंथ का है कहीं भी नहीं
माप गति के, ठिठकते हुए कह गये

धूप से धुल, हुई छार ओढ़ी हुई
याद की चादरें कुछ नई अब बुनें 

जो पटों पे थे वातायनों के टँगे
चित्र कल तक, नहीं एक अब पास है
रात कंदील जिनकों सुनाती रही
उन कथाओं से अनभिज्ञ इतिहास है
आगतों के लिये दीप बाले कोई
आस रूठी हुई थी मना कर गई
मौन प्रश्नों को लुढ़का गई आस्था
बिन कहे कुछ उठी फिर चली घर गई

आओ कुछ यूँ करें पायलें आस की
छेड़ दें आस्था की नई रुनझनें

प्रश्न और भी प्रश्न बो गये

क्या मैं तुझको कहूं सुनयने
संचित सारे शब्द खो गए
भाव उठे थे जितने मन में
अधर पंथ तक विलय हो गए


असमंजस की भूलभुलैया
संशय के गहरे अंदेशे
इन सब में ही घुले रह गए
जितने लिख पाया संदेशे
कहीं न ऐसा हो,वैसा हो
उहापोह रहा उलझता
अवगुंठित हर तान हो गई
गाता भी तो मैं क्या गाता


झंकारे तो तार साज के
पर सुर सारे मौन हो गए


बुने नयन की बीनाई में
अर्थ अनकही सी बातों के
गूंथे सपने भी अनदेखे
जाग कटी थीं उन रातों के
सम्प्रेषण की डोरी डोरी
रही टूटती पर रह रह कर
और कथ्य झर गया आँख से
एक बूँद के संग बह बह कर


पाटल पर आने से पहले
स्वप्न संजोये सभी सो गए


आशंकाएं परिणामों की
बनती रहीं कर्म की बेडी
दृष्टिकोण यों हुए प्रभावित
सीधी रेखा दिखती टेढ़ी
सजा करीं अनगिनत अपेक्षा
किन्तु नहीं हो सका प्रकाशन
देते रहे स्वयं ही निज को
भ्रम में डूब रहे आश्वासन


निष्कर्षों पर पहुँच न पाए
प्रश्न और भी प्रश्न बो गये

सन्ध्या के बादल

याद तुम्हारी ले आये जब संध्या के बादल
और अधिक गहराया तब तब रजनी का आंचल

बिखरा हुआ हवा का झोंका सन्नाटा पीता
मरुथल के पनघट सा लेकिन रह जाता रीता
फिर अपनी पहचान तलाशे पगडंडी पागल
और अधिक गहरा जाता है रजनी का आंचल

सहमा सहमा सा बादल अम्बर की राहों में
सपना कोई आकर रुक न पाता बाहों में
चन्दनबदनी आस लगाये मावस का काजल
यादों के घट भर भर लाते संध्या के बादल

वादी कोई अपनी परछाईं से भी डरती
प्यासी आशा की रीती आंजुर भी न भरती
बून्द नहीं देती कोई भी उलट गई छागल
और याद फिर आ खड़काती है मन की साँकल

असम्भव है लिखा हो खत नहीं तुमने

न आया डाकिया अब तक ये दिन भी लग गया ढलने
असम्भव है, पता मुझको लिखा हो खत नहीं तुमने

न भेजा डाक से तुमने अगर तो किस तरह भेजा
लिखा था प्यार में डुबा मधुर जो एक सन्देशा
ह्रदय की बात को तुमने जो ढाला शब्द में लिख कर
मेरी नजरों की सीमा से अभी तक है वो अनदेखा

लगा है रोक रख रक्खा किसी उलझे हुए पल ने
असम्भव है, पता मुझको लिखा हो खत नहीं तुमने

कहा तुमसे था उड़ती हो हवा की लहरिया चूनर
तभी तुम शब्द लिख देना उमड़ती गंध भर भर कर
पड़ें जो पांखुरी पर भोर में आ ओस की बून्दें
तुम्हें लिखना है सन्देशा उन्हीं की स्याहियाँ कर कर

लगीं प्राची में अँधियारे की अब तो बूँद भी झरने
असम्भव है, पता मुझको लिखा हो खत नहीं तुमने

न छोड़ा है मेरी अँगनाई में पाखी ने ला कर पर
न कोई मेघ का टुकड़ा दिशा से आ सका चल कर
न आकर बोल ही पाया मेरी छत पर कोई कागा
न तारों ने उकेरा है कोई सन्देश अम्बर पर

मेरी आतुर प्रतीक्षा का न रीता घट सका भरने
असम्भव है, पता मुझको लिखा हो खत नहीं तुमने

ये संभव पत्र भेजा हो नयन की एक थिरकन ने
तरंगों में पिरोया हो विचारों के विलोड़न ने
मेरी नजरों की सीमा से परे ही रह गया कैसे
जो सन्देशा पठाया है किसी नूतन प्रयोजन से

लगी है चेतना मेरी उठी शंकाओं से लड़ने
असम्भव है,पता मुझको लिखा हो खत नहीं तुमने

तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

जो छू गया हाथ की मेरे रेखायें
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा थ
सजने लगा धनक के रंगों में सहसा
मेरा भाग्य,लगा जो मुझको रूठा था

फूटे मरुथल में शीतल जल के झरने
बौर नयी लेकर गदराई अमराई
करने लगे मधुप कलियों से कुछ बातें
लगी छेड़ने हवा प्रीत की शहनाई
मार्गशीर्ष ने फ़ागुन सा श्रंगार किया
लगा ओढ़ने पौष चूनरी बासन्ती
पथ की धूल हुई कुछ उजरी उजरी सी
खिलने लगी पगों में आकर जयवन्ती

फिर से प्राप्त हुये पल वे आनन्दित सब
जिनसे साथ मुझे लगता था छूटा था
जो छू गया हाथ की मेरे रेखायें
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

लगे संवरने आंखों में आ आकर के
सपने रत्नजड़ित नूतन अभिलाषा के
मथने लगे ह्रदय को पल अधीर होकर
आगत क प्रति आकुल सी जिज्ञासा के
फ़लादेश के शुभ लक्षण खुद ही लिख ्कर
और संवरने हेतु लगे खुद ही मिटने
मक्षत्रों से बरसे हुए सुधा कण से
लगी भोर के सँग संध्यायें भी सिंचने

बसा हुआ है मेरी खुली हथेली पर
वह अनुभूत परस अनमोल अनूठ था
जो छू गया हाथ की मेरे रेखाये
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

चार दिशा से चली हवायें मनभावन
पारिजात के फूलों से महका आँगन
जल से भरे कलश द्वारे पर ला ला कर
रखने लगी स्वयं सारी नदियाँ पावन
आरतियों के बोल देह धर कर आये
दहलीजों ने रंगी स्वयं ही रांगोली
वन्दनवारों से बातें कर हल्दी ने
सिन्दूरी कर दी फिर सपनों की डोली

बिल्लौरी हो गया सामने आकर वह
एक अपेक्षा का शीशा जो टुटा था
जो छू गया हाथ की मेरे रेखाय
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

तुम्हारा ही तो है न प्रियतम बोलो

चलते चलते दिन के रथ की गति जब धीमी हो जाती है
जलते हुए दीप ले आते पास बुला संध्या की बेला
लौटा करते थके हुए वनपाखी जब नीड़ों को अपने
जब हो जाता है एकाकी मन सहसा कुछ और अकेला


उस पल खोल क्षितिज की खिड़की, कजरारी चूनरिया ओढ़े
झांका करता चित्र तुम्हारा ही है क्या वो प्रियतम बोलो


कोहनी टिका खिड़कियों की सिल पर रख गाल हथेली अपने
निर्निमेष देखा करती हैं शरद चन्द्र की जिसे विभायें
जिसकी आंखों के काजल की हल्की सी कजराई पीकर
असमानी चूनर अम्बर की हो जाती सावनी घटायें


उसमें जो बूटा बन लिखती मचल मचल बिजली की रेखा
वह इक नाम तुम्हारा ही तो है न मुझको प्रियतम बोलो


दोपहरी पर अकस्मात जब छाने लगती गहन उदासी
अनबूझी चाहत को लेकर रह जाती हैं सुधियाँ प्यासी
आईने की धुंध सोख लेती है सारी आकॄतियों को
आने वाला हर पल लगता हो जैसे बरसों का बासी

भित्तिचित्र में संजीवित हो जो मुस्काता दॄष्टि थाम कर
वह इक बिम्ब तुम्हारा ही तो है न मुझको प्रियतम बोलो


समय पॄष्ठ पर कभी हाशिये पर जब कुछ पल रुक जाते हैं
शब्द अचानक अँगड़ाई ले ढल जाते हैं नूतन क्रम मे
भोज पत्र के सभी उद्धरण न्याय नहीं कर पाते हैं जब
और कथाओं के नायक भी पढ़ जिसको पड़ जाते भ्रम में


शिलालेख के हस्ताक्षर सा इतिहासों की छाप अमिट बन
जो अंकित है  नाम तुम्हारा ही तो है न प्रियतम बोलो

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...