जोकि बस में नहीं था किसी के कहीं
आस बस इक उसी की लगाते रहे
बुझ गई आखिरी दीप की वर्त्तिका
रोशनी लड़खड़ाते हुए गिर पड़ी
रात के गर्भगृह में रही बन्दिनी
भोर के हाथ में थी लगी हथकड़ी
स्वर प्रभाती के सब मौन हो रह गये
आरती की नहीं घंटियाँ बज सकीं
दिन चढ़े देर तक सोई थी नीड़ में
एक चिड़िया गई सांझ से थी थकी
और हम सरगमों पर सजा, रात भर
का है मेहमाँ अंधेरा ये गाते रहे
थी टिकी उत्तरी ध्रुव के अक्षांश पर
रात की चादरें थीं बहुत ही बड़ी
संशयों में घिरी दूर के मोड़ से
ताकती रह गई धूप सहमी बड़ी
द्वार पर आगमन के पड़ी आगलें
जो कि क्षमताओं की रेख से थीं अधिक
और था सामने हंस ठठाता रहा
खिल्लियाँ सी उड़ाते दिवस का बधिक
अपने विश्वास की चिन्दियाँ देखते
हम हवा की मनौती मनाते रहे
कोई आ पायेगा धुन्ध को चीर कर
जानते थे नहीं शेष संभावना
किन्तु फिर भी कहीं आस की ले किरन
हम छुपाते रहे पास का आईना
इक अविश्वास पर फिर मुलम्मा चढ़ा
मूर्तियों को नमन नित्य करते हुए
जो कि अनभिज्ञ अपने स्वयं से रहे
उन नक्षत्रों की गतियों से डरते हुए
एक पत्थर को हम पोत सिन्दूर में
भोर संध्या में मस्तक नवाते रहे
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