कहने को तो सब कुछ ही है फिर भी मन रहता एकाकी
सुबह शाम पीड़ा की मदिरा भरती है सुधियाँ की साकी
आइना जो दिखे सामने उसके चित्र मनोहर सारे
पार्श्व पुता है किस कालिख से दिखता नहीं किसी को पूरा
कौन देखता सूख सूख कर प्रक्रिया दर्द सहन करने की
ध्यान रहा सरगम बिखराती धुन पर बजता हुआ तम्बूरा
पार्श्व पुता है किस कालिख से दिखता नहीं किसी को पूरा
कौन देखता सूख सूख कर प्रक्रिया दर्द सहन करने की
ध्यान रहा सरगम बिखराती धुन पर बजता हुआ तम्बूरा
कितनी है मरीचिका सन्मुख उपलब्धि का नाम ओढ़कर
लेकिन सच है स्थूल रूप में कोई एक नहीं है बाकी
लेकिन सच है स्थूल रूप में कोई एक नहीं है बाकी
सूखे हुए धतूरे पाये सुधा कलश का लिए आवरण
राजपथो से विस्तृत मन पर चिह्न नहीं कदमो का कोई
रही मुस्कुराती कलियां तो शोभा बनी वाटिकाओं की
जान सका पर कौन पास की गंध कहाँ पर उनकी खोई
राजपथो से विस्तृत मन पर चिह्न नहीं कदमो का कोई
रही मुस्कुराती कलियां तो शोभा बनी वाटिकाओं की
जान सका पर कौन पास की गंध कहाँ पर उनकी खोई
रिमझिम को आनंदित होकर रहे देखते देहरी अंगना
सोचा नहीं किसी ने प्राची से ना किरण अभी तक झांकी
इतिहासों में भी अतीत के अंकित नहीं शब्द कोई भी
जिसके लिए बना सीढ़ी मन, वो बढ़ चुका शीर्ष से आगे
संचित जितना रहा पास की छार छार होती गठरी में
दिन के हो गतिमान निमिष सब साथ उसे ले लेकर भागे
जिसके लिए बना सीढ़ी मन, वो बढ़ चुका शीर्ष से आगे
संचित जितना रहा पास की छार छार होती गठरी में
दिन के हो गतिमान निमिष सब साथ उसे ले लेकर भागे
सूनी पगडंडी के जैसे बिखरी हुई उमर की डोरी
कहीं नहीं है दूर दूर तक पगतालियों की छाप जरा भी
कहीं नहीं है दूर दूर तक पगतालियों की छाप जरा भी
२६ अगस्त २०१८