नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024 


दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने
खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे 

अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला कर लाई
डेहरी को सज्जित कर डाला अक्षय और कुमकुम बिखरा कर 
छिटके हुए कुहासे को काटा अपनी सिमटी साड़ी से
और अगरबत्ती दीपित की नई आस को ह्रदय बड़ा कर 

नाव वितान पर रक्तिम पीत रंग की चुनिरिया ओढ़ाकर
जाने लगी छोड़ कर आँगन  गली बैठने यूना तेरे 

देव मूर्ति का गोईवि कटाने को जागा निद्रावस्था सीप
कलोगो ने भी गिरी ओज से सारे पटल अपने धोये
चंदन, अक्षत और पुम्शप ने आकर पूज थल सहाय 
पास हो सामाय aa आ गुँथे मिली में खहै जीतने 

आरती में स्टूई गूंजन करने की शंख लग ए  टी ए ट
हुए सरिताओं ताल सजाने, आज ढोलकी और मजीरे 

कड़ी किनारे तने वृक्ष पर शाखाओं में हुई हलचलें
बने नीड में नव वितान को छूने, पाखी पंख पसारे
नये वर्ष की नई सुबह में अभिलाषा हों पूर्ण आपकी
शिल्पियों हो हर स्वप्न और आ दस्तक स्वन आपके द्वारा

बदलें नक्षत्रों की गतियाँ और दिशायें लेकर करवट 
नया वर्ष चाई क़िस्मत पर जमी हुए कोहरे को चीरे 

राकेश खंडेलवाल
दिसंबर २०२३ 


अधूरी रही

 स्नेह भर दीप में वर्तिकाएँ जली

थी दिवाली पे सारी की सारी बुझी
आस जो भी रही हो अधूरी सदाज 
गिरवी अधूरी अधूरी रही 

आस थीएक नये वर्ष की भोर नव
लाएगी धूप की साथ अपने फसल
स्वर्णमय रश्मियों का पारस प्राप्त कर
हाथ जी रेख जाएगी थोड़ा बदल
जो बने मॉड हैं बाधा  बन कर खड़े
वो भी समतल ज़रा और हो जाएँगे
कितने वर्षों से जिनकी प्रतीक्षा रही
चंद अच्छद दिवस सामने आयेंगे

पर नई धूप भी आ मादरी बनी
ज़िंदगी हाँ मिलाते जमरी रही 

जब दिवाली गई आके क्रिसमस सजी
फिर नया वर्ष आकार खड़ा हो गया
उत्तरायण गगन में दिवाकर हुआ
और दिन पहले से अब। बड़ा हो गया
होके बासंतीय चल पड़ी फिर हवा
होली आई थी फगवा सुनाते हुए
उसको कर के। वीसा जेठ हंसाने लगा
धूप में ताप अपना बढ़ाते हुए

तन को झुलसा रहा धूप का ताप,क्रम
दूर होकर के ऊटी मसूरी रही


फिर घिरे सावनी मेघ आकाश में 
और राखी बांधी हाथ बन फुलझड़ी
टेसुओं, सांझियों के मेले लगे
आई दशमी विजयमाल की ले लड़ी
घूम फिर कर वही आई दीपावली
था जहां से शुरू वर्ष भर का सफ़र
बस इसी एक जंजाल में थी उलझ
तय हई ज़िंदगी ये समूची गुजर

आस थी भीख में भी उपेक्षा लिए
भाग्य की करती बस जीहूज़ूरी रही 

राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२३। 









एक बरस अब यह फिर बीत

 विदा २०२३ एक कहानी को दुहराते

ओ विरह की ठुमरी गाते
सुधि के धुंधले पृष्ठ और आ
एक पुस्तक में जुड़ते जाते

मुट्ठी से रिस रहे सामय  ने मन को प्रतिपाल यहाँ छला है

कोर भी संदेश न आया
द्वार लूजर ने न खड़काया
और डाकिया के कदमों को
घर का पाथ भी चूम न पाया 

ये सब अपना ही बोया है ढली उम्र में आम ढाला है 

मेरा अब भी मित्र एम कोई 
मन में बाक़ी चित्र न कोई 
संध्या करे महकमा दे आकर
शेष कोई भी इत्र नहीं कोई

बरस गुजराती डरते डरते, मेरा मोम में हाथ कला है 

राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२३ 

प्यार के इन गीतों को -सोच रहा

 प्यार के गीतों कोसोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को


ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये 
कचनारों के फूलों पर भी चढ़ते नहीं जवानी आकार 
बौराती है नहीं ऋतु में , सावन ऑफ़ आम की बगिया
कोयल बाथी मैना सुनाती लूजर भी धुन को गाकर 

वर्णित करता रहे कहाँ तक घिसे पूरे जैन शब्द प्रीत के 

काजल, मेंहदी, कुमकुम, बिंदिया अब लगते हैं अर्थाहीन सब
गजरा, कुंतल और अलकटक कोई नहीं लुभाता आकार 
बहती हुई हवा जो घोले रहती रही साँस की ख़ुशबू
अब आती ही यहाँ जो रखे कक्ष मेरा थोड़ा महकमा कर 

करता रहे इन्हीं की बातें नये पृष्ठ रच कर संगीत के 

कब तक करूँ अपेक्षा सूखे पपड़ी जमे आधार चुंबन की
कब तक भुजपाशों में बाँधने हों ये मेरी बाँहें
मटमैले काले अंबर के विस्तृत कैनवस पर कब टैम
एक शतारूपे का खाकर खींचे धुंधली हुई निगाहें 

रंग बिखेरे प्राची और प्रतिची हर दिन रक्त पीत को 

राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२३ 

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...