केवल तेरे ही अधरों पर


केवल तेरे ही अधरों पर चढ़ पाने में असफल थे सब
मेरे गीत, जिन्हें सरगम ने साजों पर धुन रच कर छेड़ा

मैंने चुन चुन कर कलियों के पाटल शब्द शब्द में टाँके
साँसों के गतिक्रम में रंग कर धड़कन की तालों पर साधे
नयनों के रेशमी सपन की दोशाला में उन्हें लपेटा
और बुना उनको। छंदों  में अनुभूति के लेकर धागे

लेकिन तेरे कंठ स्वरों की रही कसौटी दूर पहुँच से
कितनी बार लगाया मेरे गीतों ने आँगन का फेरा

कूकी कोयल अमराई में रागिनियाँ लेकर छंदों की
मधुपों ने कलियों से बातें की गीतों की रसगंधों की
जालतरंग ने पतवारों के वक्ष स्थल पर सहज उकेरा
कंगन की खनकों में घुलती गीत सुधा बाजू बंदों की

लेकिन लगा गीत का सारा ही लालित्य व्यर्थ आख़िर था
तेरे अधरों की गलियों में मिला नहीं था इनको डेरा

गूंजे गीत मेरे ही हर दिन दरगाहों पर खवाजाजी की
सुबह बनारस बना आरती अर्चन में थी शंख स्वरों की
शामें अवध में नर्तित होते रहे गीत वे मेरे ही थे
और निशा ने भीग प्रीत में की बातें मेरे गीतों  की

फिर भी लगता है गीतों में मेरे कहीं कमी तो होगी
जो शब्दों ने तेरे अधरों की िजिल पर नहीं चितेरा 

अंतरे की तरह अधलिखे गीत ke


दिन गुज़रते हैं उलझन बढ़ाते हुए
अंतरे की तरह, अधलिखे गीत के

 मन के निश्चय सभी हो कपूरी गए
धूप की अलगनी पर टंगे एक पल
स्वप्न सारे तिरोहित हुयेजब गए
 नैन के द्वार की चौखटों से फिसल
खिड़कियों ने दिए दृश्य असमंजसी
जब अवनिका हटा कर हंसा था दिवस
सांझ के पंथ पर  जब चली रोशनी
चार पग में गई थी डगर ही बदल 

मौन की बांसुरी थी बजाती रही 
टूट बिखरे हुए राग संगीत के 

दोपहर पालकी में चढ़ी, थक गई 
राह में आते आते कहीं सो गई
सांझ पलके बिछा बाट जोहा करी
रात की छांह को ओढ़कर खो गई
पटकथा को बदल करते अभिनीत पल
ताकता रह गया पार्श्व से दिन खड़ा
अपने निर्देश  की
,
 ले छड़ी हाथ में
उसके पहले अवनिका पतन हो गई

दीर्घाएं चिबुक पर रखे उंगलियां
देखती शून्य बिखरा हुआ सीट पे

 रोशनी एक संशय में घिरती रही 
 सीढ़ियों पर चढ़े या उतर कर चले
भोर से दोपहर और फिर सांझ के
मध्य में कितने बिखरे हुए फासले
भौतिकी ने नियम ताक पर रख दिए 
इसलिए प्रश्न मन के सुलझ न सके 
 और तुलसी का चौरा  प्रतीक्षित रहा 
दीप कोई तो अंगनाई में जल सके 

और हम वक्त की करवटों पर खड़े 
चुनते  अवशेष मिटती  हुई रीत के 

फिर मैं गीत नया बुनता हूँ

 

भोजपत्र पर लिखी कथाए भावुक मन का मृदु संवेदन
दिनकर का उर्वश -पुरू के रूप प्रेम में डूबा लेखन
काव्य उर्मिलामुझे गुप्त की पीड़ा का निर्झर लगता है
यही भाव तो करते मेरा कविता छंदों से अनुबंधन

यही भावना जीवन के पथ पर बिखरी  चुनता रहता  हूँ
फिर मैं गीत नया बुनता हूँ

वाल्मीकि की रामायण बोती है भक्ति भावना मन में
कालिदास का मेघदूत गूंजा करता है आ सावन में
प्रियप्रवास हरिऔंध महकता कालिंदी के  तट पर आकर
गीत और गोविंद मुखर हो जाते जयदेवी सिरजन में

इन सबके विस्तृत प्रवाह को  मैं अनुभूत किया करता हूँ
फिर मैं गीत बुना करता हूँ

पथराए नयनों से सपने पिघल बहे हैं जब गालों प
मैंने सहज सहेजा अपनी सुधि  के विस्तृत रूमालों पर
ज्योति किरण की स्मित लेकर आँजा है फिर से आँखों में
और बांधता डोर बाग की पुष्पों से सज्जित डालों पर

उपक्रम यह ही करता क्रमशः व्यस्त निशा वासर रहता हूँ
फिर मैं गीत कोई बुनता हूँ

गूंज उठे सारंगी के सुर या सरगम छेड़े  इकतारा
थिरक उठे बंसी की धुन पर जमना जी का कोई किनारा
ब्रज के रसिया खनक रहे हों वृंद गंध की झोंक झालरी
सावन की मल्हार सुनाता आए बादल का  हरकारा

इन्ही सुरों के आरोहण अवरोहों में डूबा बहता  हूँ
फिर मैं गीत नया बुनता हूँ

चले ठुमकते रामचंद्र के पग पग पर खनकी पेंजानियाँ
मात यशोदा के रिसियाने पर ऊखल से बंधती रसियां
शैशव की किलकारीं से घुलता वात्सल्य भोर के रंग में
पी के अनुरागी में डूबी साँझ सिंदूरी कजरी रतियाँ

मैं ऐसे ही चित्रों में ले अपने रंग भरा करता हूँ
जब मैं गीत नया बुनता हूँ

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...