भोजपत्र पर लिखी
कथाए भावुक मन का मृदु संवेदन
दिनकर का उर्वश -पुरू के रूप प्रेम में डूबा लेखन
काव्य “उर्मिला” मुझे
गुप्त की पीड़ा का निर्झर लगता है
यही भाव तो करते मेरा कविता छंदों से अनुबंधन
यही भावना जीवन के पथ पर बिखरी चुनता रहता हूँ
फिर मैं गीत नया बुनता हूँ
वाल्मीकि की रामायण बोती है भक्ति भावना मन में
कालिदास का मेघदूत गूंजा करता है आ सावन में
प्रियप्रवास हरिऔंध महकता कालिंदी के तट
पर आकर
गीत और गोविंद मुखर हो जाते जयदेवी सिरजन में
इन सबके विस्तृत प्रवाह को मैं अनुभूत
किया करता हूँ
फिर मैं गीत बुना करता हूँ
पथराए नयनों से सपने पिघल बहे हैं जब गालों प
मैंने सहज सहेजा अपनी सुधि के विस्तृत रूमालों पर
ज्योति किरण की स्मित लेकर आँजा है फिर से आँखों में
और बांधता डोर बाग की पुष्पों से सज्जित डालों पर
उपक्रम यह ही करता क्रमशः व्यस्त निशा वासर रहता हूँ
फिर मैं गीत कोई बुनता हूँ
गूंज उठे सारंगी के सुर या सरगम छेड़े इकतारा
थिरक उठे बंसी की धुन पर जमना जी का कोई किनारा
ब्रज के रसिया खनक रहे हों वृंद गंध की झोंक झालरी
सावन की मल्हार सुनाता आए बादल का हरकारा
इन्ही सुरों के आरोहण अवरोहों में डूबा बहता हूँ
फिर मैं गीत नया बुनता हूँ
चले ठुमकते रामचंद्र के पग पग पर खनकी पेंजानियाँ
मात यशोदा के रिसियाने पर ऊखल से बंधती रसियां
शैशव की किलकारीं से घुलता वात्सल्य भोर के रंग में
पी के अनुरागी में डूबी साँझ सिंदूरी कजरी रतियाँ
मैं ऐसे ही चित्रों में ले अपने रंग भरा करता हूँ
जब मैं गीत नया बुनता हूँ
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