मौसमों की रहीं चिट्ठियाँ सब फ़टी

एक पल चाँदनी की किरन साथ थी
दूसरे पल घटा घिर उसे पी गई
पीर नयनों की तकली पे कतते हुए
सूत बन कर अधर की कँपन सी गई
चिह्न सब कंठ की राह के मिट गये
स्वर भटकता रहा बन पतंगे कटी
कुछ न अनुकूल था जो मिला सामने
मौसमों की रहीं चिट्ठियाँ सब फ़टी
 
जितने सन्देश उत्तर को भेजा किये
उनके उत्तर सुनाती रही दक्षिनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी
 
दूर फ़ैले हुए दृष्टि के व्योम पर
चित्र बनते संवरते बिगड़ते रहे
कोई अहसास उंगली छुड़ाता रहा
पग दिशाहीन थे, किन्तु चलते रहे
नीड़ पाथेय संध्या उगी भोर सब
रह गये अर्थ के अर्थ में ही उलझ
राह की दूरियों का कहाँ अन्त है
और उद्गम कहाँ,आ सका न समझ
 
धूप को पी गई,दोपहर जब हुई
पास में रह गई धुन्ध ही बस घनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी
 
श्याम विवरों में खोते सितारे सभी
लेख लिख भी नहीं पा सके भाल का
रात की कोठरी में सिमट रह गया
एक निर्णय, दिवस के लिये,काल का
राशियों ने रखे पांव घर में नहीं
अंक गणनाओं के शून्य में खो गये
जो फ़लित पल हुए,वे विजन ही रहे
और जो शेष थे, हाथ से खो गये
 
कालिखों ने जकड़ पाश में रख लिये
रंग चन्दन के कल तक रहे कंचनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी
 
मंत्र के अनसुने स्वर निगलते रहे
जो अपेक्षायें थीं प्रार्थना में घुली
कुछ धुँये की लकीरों की अँगड़ाईयां
बन्द करती रहीं खिड़कियाँ जो खुली
उपक्रमों के सिरे थामने के लिये
कोई निर्देश आया नहीं सामने
बिन पते के सभी लौट आते रहे
जितने सन्देश भेजे मेरे गांव ने
 
और निस्तब्धता को रही चीरती
चूनरी एक पगली हवा की तनी
कोई कारण समझ में नहीं आ सका
हो गई क्यों स्वयं से स्वयं अनबनी

हम कुशल क्षेम के पत्र लिखते रहे

आंसुओं में घुली पीर पीते हुए
हम कुशल क्षेम के पत्र लिखते रहे
 
एक पल के लिए भी न सोचा कभी
हम व्यथाएं किसी और से जा कहें
सांत्वना के हवाओं को आवाज़ दें
फिर गले से लिपट साथ उनके बहें
होंठ ढूंढें कोई अश्रु पी जाए जो
कोई कान्धा,जहां शीश अपना रखें
कोई अनुग्रह,अपेक्षाओं के डोर से
थाम कर हाथ में साथ बांधे रखें
 
पंथ ही ध्येय माने हुए रख लिया
त्याग विश्रांति पल,नित्य चलते रहे
 
भीड़ मुस्कान के साथ चलती सदा
अश्रु रहता अकेला,यही कायदा
इसलिए ढांप कर अश्रु अपने रखे
था प्रकाशन का कोई नहीं फ़ायदा
कारुनी द्रष्टि जो एक पल हो गई
दूसरे पल विमुख ज्ञात हो जायेगी
और फिर से स्वयं को ही इतिहास के
अनवरत हो कहानी ये दुहारायेगी
 
मंडियों में उपेक्षित हुए शूल हैं
फूल ही सिर्फ दिन रात बिकते रहे

उस पल यादों के कक्षों के

लिखते हुए दिवस के गीतों को जब थकीं रश्मि की कलमें
एक लगी ठोकर से बिखरी दावातों की सारी स्याही
सिंदूरी हो गई प्रतीची ने लिख दिया आख़िरी पन्ना
प्राची पर रजनी के आँचल की आ परछाई लहरे
उस पल यादों के कक्षों के वातायन खुल गए अचानक
और तुम्हारे साथ बिठाये क्षण सरे जीवंत हो गए

अमलतास की गहरी छाया गुलमोहर के अंगारों में
जंगल के तट से लग बहती नदिया के उच्छल धारों में
विल्व-पत्र पर काढ़े स्वस्ति के चिन्हों की हर इक रेखा में
इतिहासों के राजमहल के लम्बे सूने गलियारों में
समय तूलिका ने जितने भी चित्रित किये शब्द के खाके
सुधियों के पन्नों पर अंकित हुए, प्रीत के ग्रन्थ बन गए

झुकी द्रष्टि पर बनी आवरण पलकों कजी कोरों पर ठहरे
मन की गहराई से निकले डूब प्रीत में भाव सुनहरे
लिखते हुए चिबुक पर उंगली के नख से नूतन गाथाएं
सिरहाना बन गई हथेली की रेखाओं में आ उतारे
अनचीन्ही इक अनुभूति के समीकरण वे उलझे उलझे
एक निमिष में अनायास ही जन्मों के अनुबंध हो गए

जहां मोड़ पर ठिठक गए थे पाँव कहारों के ले डोली
जिन दहलीजों पर अंकित थी, शुभ शुभ श्गागुन लिए रंगोली
पायल के गीतों से सज्जित रहती थी इक वह अंगनाई
जहाँ नीम की शाखाओं पर सुबह साँझ चिड़ियाएँ बोलीं
उस विराम के अपने खाने बने हुए स्मृति मंजूषा में
आज अचनाक निकल कोष से वे सरे स्वच्छंद हो गए

संप्रेषणों में शब्द की सीमा

कभी अनुभूति के संप्रेषणों में शब्द की सीमा
अजाने ही अचाहा भाव का कुछ अर्थ कर देती
बदलती सोच की परछाईं में उलझी हुई सुधियां
अपेक्षित जो नहीं होता वही ला गंध भर देती


हुये जब दायरे सीमित हमारी चेतनाओं के
न कहना जान पाते हम न सुनना जान पाते है


उमड़ते अश्रुओं के भाव जब जब शब्द में ढलते
तो शब्दों को भी निश्चित ही हुई अनुभूत पीड़ायें
मगर हर शब्द का धीरज, सहन की शक्तिइ अद्भुत है
किया बिलकुन न उन सब ने व्यथा अपनी जता जायें


दिये भाषाओं ने जो ज्ञान के मुट्ठी भरे मोती
वे बिंधते तो हैं, माला में नहीं सम्मान पाते हैं


निरन्तर जो बहे झरने द्रवित हो शैल से मन के
उन्हीं में खो गये हैं धार के खनके हुये नूपुर
तटी की दूब ने सारंगियाँ बन तान जो छेड़ीं
रहा अवरोह में उनके भटकता कंठ का हर सुर


गयी सौंपी करों में ला हमारे एक जो वीणा
नहीं संगीत रचते ,तार केवल झनझनाते हैं

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...