विमुख सभी सम्बन्ध हो गये

एक द्वार था केवल जिससे अटकी हुई अपेक्षायें थीं
जीवन के उलझे गतिक्रम ने उसके भी पट बन्द हो गये
 
कथा एक ही दुहराई है हर इक दिन ने उगते उगते
आक्षेपों के हर इक शर का लक्ष्य हमीं को गया बनाया
जितने भी अनकिये कार्य थे वे भी लिखे नाम पर अपने
बीजगणित का सूत्र अबूझा रहा,तनिक भी समझ न आया
 
कभी किसी से स्पष्टिकरण की चर्चायें जैसे ही छेड़ीं
अनायास ही अधर हमारे पर अनगिन प्रतिबंध हो गये
 
नयनों के दर्पण तो दिखलाते ही रहे बिम्ब जो सच थे
पता नहीं कैसे भ्रम ने आ उन पर भी अधिकार कर लिया
शेष नहीं था मार्ग इसलिये नीलकंठ के अनुगामी हो
जो कुछ मिला भाग में अपने, हमने अंगीकार कर लिया
 
किन्तु न जाने छिन्दर्न्वेषी समयचक्र की क्या इच्छा थी
निर्णय सभी हवा के पत्रों पर अंकित अनुबन्ध हो गये
 
बन कर छत्र निगलता आया दिनकर परछाईं भी अपनी
लहरें रहीं बहाती पग के नीचे से सिकता को पल पल
दिशा बोध के चिह्न उड़ाकर सँग ले गईं दिशायें खुद ही
लगा रूठने निमिष निमिष पर धड़कन से सांसों का संबल
 
तुलसी पत्रों गंगाजल की रही तोड़ती दम अभिलाषा
विमुख स्वयं ही से अब जितने अपने थे सम्बन्ध हो गये

अब चुप होकर मैं

थमे हवा के झोंके छत के कमरे में बैठे
लहरें छुपीं रहीं जाकर पर्वत के कोटर में
तारों पर झंकार नींद से होड़ लगा सोई
सोच रहा हूँ बैठूं थोड़ा अब चुप होकर मैं


पीपल बरगद चन्दन पानी
लहराते निर्झर
यज्ञभूमि वेदी आहुतियाँ
संकल्पों के स्वर
निष्ठा और आस्था संस्कृतियों
की गाथाएँ
मन्त्रों मेम गुन्थित जीवन की
सब परिभाषाएं
 
 
लिखते लिखते बिखर गई है चादर पर स्याही
जिसे उठा कर सोच रहा हूँ,रख दूं धोकर मैं
 
सपनों के अनुबन्ध और
सौगन्धें अयनों की
रतनारे,कजरारे,मदमय
गाथा नयनों की
गठबन्धन,सिन्दूर,मुद्रिका
पैंजनिया कंगन
चौथ,पंचमी,पूनम,ग्यारस
अविरल आयोजन
 
दोहराते बीते जीवन की निधि का रीतापन
सोच रहा हूँ चलूँ और अब कितना ढोकर मैं
खुले अधर के मध्य रह गईं
बिना कहे बातें
मौसम साथ न जिनको लाया
वे सन सौगातें
क्यारी,फूल,पत्तियाँ,काँटे
भंवरों का गुंजन
अलगोजे की तान-अधूरी
पायल की रुनझन
 
सब सहेज लेता अनचाहे यायावरी समय
सोच रहा क्या पाऊंगा,फ़िर से यह बोकर मैं

जो छिपे हैं हुये नाम के नाम में

रूढ़ियों से बँधी सोच को दे रहा
सोच के कुछ नये आज आयाम मैं
चेतना में नये बोध के बीज ले
बो रहा हूँ नई भोर में शाम में
 
जो डगर ने सजा चिह्न पथ में रखे
मैने उनका किया है नहीं अनुसरण
मैने खोजीं सदा ही दिशायें नई
मंज़िलों के पथों की नई व्याकरण
बादलों की बना तूलिका खींचता
चित्र मैं कैनवस इस गगन को बना
लीक को छोड़कर साथ मेरे चले
मैं हवा को सिखाता नया आचरण
 
नाम विश्लेष कर ढूँढ़ता अर्थ वे
जो छिपे हैं हुये नाम के नाम में
 
मैने कागज़ उठा ताक पर रख दिये
गीत लिखता हूँ मैं काल के भाल पर
सांस की सरगमें नृत्य करती सदा
मेरी धड़कन की छेड़ी हुई ताल पर
रात मसि बन रही लेखनी पर मेरी
रंह भरता दिवाकर मेरे शब्द में
छन्द शिल्पित करे अन्तरों को मेरे
चित्र खींचे अनागत स्वयं अक्ष में
 
मैं सजाने लगूँ जब भी पाथेय तब
आके गंतव्य बिछता रहा पांव में
 
दीप बन कर लड़ा मैं तिमिर से स्वयं
चाँदनी के भरोसे रहा हूँ नहीं
तीर होते विलय धार में जा जहाँ
मैं उम्नड़ कर बहा हूँ सदा ही वहीं
जो सितारे गगन से फ़िसल गिर पड़े
टाँकता हूँ क्षितिज के नये पृष्ठ पर
नैन की पार सीमाओं के जो रहा
मैं उसे खींच ला रख रहा दृष्टि पर
 
छाप अपनी सदा मैं रहा छोड़ता
पल,निमिष ,क्षण, घड़ी और हर याम में

महकाता मन का वृन्न्दावन

धड़कन धड़कन सां सांस सब मेरी तुमसे जुड़ी हुई हैं
दिवस निशा के हर इक पल पर सिर्फ़ तुम्हारा ही है शासन
काजल की कजराई में जब डूबे कलम कल्पनावाली
हस्ताक्षर उस घड़ी उर्वशी के घुल जाते मुस्कानों में
अलकों में आ गुँथ जाते हैं मेघदूत वाले सन्देशे
वाणी की सरगम बनती है वंसी से उठती तानों में
गंगा यमुना कावेरी की लहरों में तुम लो अँगड़ाई
कलासाधिके तुम करती हो चित्रित मेरे मन का आंगन
युग के महाकाव्य अनगिनती अंकित आकाशी अक्षों में
दृष्टि किरण से अनुबन्धित हो सृष्टि प्रलय पलकों में बन्दी
चितवन में अंकित सम्मोहन के सब मंत्र मेनका वाले
सांसों के इक सुरभि परस से मलयवनों को मिले सुगन्धी
शतरूपे तुम परे सदा ही भाषाओं की सीमाओं से
एक निमिष ही ध्यान तुम्हारा महकाता मन का वृन्दावन
शिल्पकार की छैनी हो या कलाकार की कूची कोई
उनका वेग नियंत्रित करता है बस एक तुम्हारा इंगित
ताजमहल की मीनारें हों या कि अजन्ता की दीवारें
सब के सब होते आये हैं एक तुम्ही को सदा समर्पित
तुम फागुन की मस्त उमंगों में लहराती चूनरिया हो
और तुम्ही तो हो मल्हारें जिनको नित गाता है सावन

कोई वह गीत गाये तो

सुरभि की इक नई दुल्हन चली जब वाटिकाओं से
तुम्हारा नाम लेने लग गये पुरबाई के झोंके
महकती क्यारियों की देहरी पर हो खड़ी कलियाँ
निहारी उंगलियों को दांत में रख कर,चकित होके
 
 
उठे नव प्रश्न शाखों के कोई परिचय बताये तो
लिखा जो गीत स्वागत के लिये, आकर सुनाये तो
 
 
खिलीं सतरंगिया आभायें पंखुर से गले मिलकर
गमकने लग गई दिन में अचानक रात की रानी
कभी आधी निशा में जो सुनाता था रहा बेला
लचकती दूब ने आतुर सुनाने की वही ठानी
 
 
खड़कते पात पीपल के हुये तैयार तब तनकर
बजेंगे थाप तबले की बने, कोई बजाये तो
 
 
लगीं उच्छल तरंगें देव सरिता की डगर धोने
जलद की पालकी भेजी दिशाओं ने पुलक भर कर
सँवर कर स्वस्ति चिह्नों ने सजाये द्वार के तोरण
लगीं शहनाईयां भी छेड़ने शहनाईयों के स्वर
 
 
मलय के वृक्ष ने भेजे सजा कर लेप थाली में
सुहागा स्वर्ण में मिल ले, जरा उसको लगाये तो
 
 
बिखेरे आप ही लाकर, नये, दहलीज ने अक्षत
सजाईं खूब वन्दनवार लाकर के अशोकों ने
प्रतीक्षा में हुई उजली गली की धूप मैली सी
सजाये नैन कौतूहल भरे लेकर झरोखों ने
 
 
मचलती बिजलियों की ले थिरक फिर रश्मियाँ बोलीं
हजारों चाँद चमकेंगें, जरा घूँघट हटाये तो..

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...