महकाता मन का वृन्न्दावन

धड़कन धड़कन सां सांस सब मेरी तुमसे जुड़ी हुई हैं
दिवस निशा के हर इक पल पर सिर्फ़ तुम्हारा ही है शासन
काजल की कजराई में जब डूबे कलम कल्पनावाली
हस्ताक्षर उस घड़ी उर्वशी के घुल जाते मुस्कानों में
अलकों में आ गुँथ जाते हैं मेघदूत वाले सन्देशे
वाणी की सरगम बनती है वंसी से उठती तानों में
गंगा यमुना कावेरी की लहरों में तुम लो अँगड़ाई
कलासाधिके तुम करती हो चित्रित मेरे मन का आंगन
युग के महाकाव्य अनगिनती अंकित आकाशी अक्षों में
दृष्टि किरण से अनुबन्धित हो सृष्टि प्रलय पलकों में बन्दी
चितवन में अंकित सम्मोहन के सब मंत्र मेनका वाले
सांसों के इक सुरभि परस से मलयवनों को मिले सुगन्धी
शतरूपे तुम परे सदा ही भाषाओं की सीमाओं से
एक निमिष ही ध्यान तुम्हारा महकाता मन का वृन्दावन
शिल्पकार की छैनी हो या कलाकार की कूची कोई
उनका वेग नियंत्रित करता है बस एक तुम्हारा इंगित
ताजमहल की मीनारें हों या कि अजन्ता की दीवारें
सब के सब होते आये हैं एक तुम्ही को सदा समर्पित
तुम फागुन की मस्त उमंगों में लहराती चूनरिया हो
और तुम्ही तो हो मल्हारें जिनको नित गाता है सावन

4 comments:

Shardula said...

ये दो पंक्तियाँ बहुत ही सुन्दर लगीं :
युग के महाकाव्य अनगिनती अंकित आकाशी अक्षों में
दृष्टि किरण से अनुबन्धित हो सृष्टि प्रलय पलकों में बन्दी
सादर शार्दुला

प्रवीण पाण्डेय said...

सावन में उठती शब्दों की फुहार, मन सिंचित करती हुयी।

Udan Tashtari said...

अहा!! लगा कि जैसे बस गा उठे....बहुत सुन्दर!!!

रंजना said...

वाह...वाह...वाह....

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