लगी गूंजने यहाँ वहाँ अब चैती की शहनाई
चीर कुहासा आज धूप की दुल्हन चल कर आई
देने लगीं नदी की लहरें तट पर Iआ कर दस्तक
कलियों ने जल के दर्पण में आँखीं मलते झांका
चंचल एक हवा के झोंका ने चुपके से आकर
जगती हुई कोपलों के मुख पर इक चुम्बन टांका
किया शिशिर को विदा , फागुनी डोली में बिठलाकर
नए एक सम्वत ने द्वारे की सांकल खड़काई
पोटोमक के तट, चेरी के तीन सहस पेड़ों पर
श्वेत गुलाबी फूलों ने अपनी पलकों को खोला
रखी उठाकर धवल चादरें, मौसम ने सब अपनी
पीली पीली धूप बिछाकर बाहर रखा खटोला
बासंती पाहन के कदमों की आहट को सुनकर
हरी दूब के कालीनों की बूटी अब मुस्काई
जैकेट काट और दस्ताने, मफ़लर लिए साथ में
वार्डरोब के ऊपर के खाने में जाकर सिमटे
खुले खिड़कियों के दरवाज़े, पुरवा के स्वागत में
नए उमंगों के गुलदस्ते आ बाहों में लिपटे
ऋतुओं की संधि पर सम्वतसर ने कर हस्ताक्षर
नयी भोर के लिए बिखेरी है नूतन अरूणा