नाम वह एक नि:शेष हो रह गया,

भोर की गुनगुनी धूप ने लिख दिया ओस की बूँद पर स्वर्ण से नाम जो
चेतना को विमोहित किये है रहा रात के और दिन के हर इक याम वो
धड़कनों से जुड़ा, सांस में मिल बहा, राग में रागिनी में बजा है वही
नाम वह एक नि:शेष हो रह गया, और भूला ह्रदय शेष हर नाम को
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ज्ञान की पुस्तकें धर्म के ग्रंथ सब बात हमको यही बस बताते रहे
प्राप्त उनको अभीप्शित हुआ है सदा दीप जो साधना का जलाते रहे
आपका पायें सामीप्य, यह ध्येय है, इसलिये अनुसरण कर कलासाधिके
आपके नाम को मंत्र करते हुए भोर से सांझ तक गुनगुनाते रहे

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जब भी परछाईयाँ आईने में बनीं, आपका चित्र बन झिलमिलाती रहीं
होंठ पर आ थिरकने लगीं सिहरनें, पंखड़ी की तरह थरथराने लगीं
आपकी गंध लेकर हवा जो चली, द्वार मेरे खड़ी गुनगुइनाती रही
पल सभी आपके थे, रहे आपके, धूप आँगन में आई बताती रही

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भोर में नींद के साथ टूटे सपन, रात को फिर से रंगीन हो न सके
पल प्रतीक्षा के सारे रहे मोड़ पर, इसलिये राह को भूल खो न सके
धूप की ठोकरों से गिरे दीप की बाँ को थामने को शिखा न बढ़ी
आपसे दूर हम एक पल क्या हुए फिर निकट आपके और आ न सके

मन पागल कुछ आज न बोले

मन मेरा कुछ आज न बोले

आशाओं के गुलदस्ते में सपनो की सतरंगी कलियां
अभिलाषा से सुरभित होती हैं अलसाई देहरी गलियाँ
वॄन्दावन से उमड़ी धुन के साथ ताल मिलती धड़कन की
बाहों में अँगड़ाई लेती सी महकें हैं चन्दन तन की
नूपुर की आवाज़ सरसती रह रह कानों में रस घोले

मन प्रमुदित कुछ आज न बोले

पलकों की कोरों पर आकर संवर रहे नैना कजरारे
पाटल पर बन चित्र खिल रहे, रसमय अधर रंगे रतनारे
करती है आरक्त कपोलों को गुलाब सा, लज्जा आकर
और छेड़ता एक पपीहा पीहू पीहू की धुन गाकर
चित्र एक ही स्वप्न जाग में नयनों के आगे आ डोले

मन पागल कुछ आज न बोले

उंगली छुड़ा कल्पना उड़ती फिर अतीत के गलियारों में
फिर आकंठ डूबती सुधियां प्रथम वाक्य की रसधारों में
पहली दॄष्टि-साधना का वह एक निमिष हीरे सा दमके
स्मॄतियों के विस्तारित नभ में ,बन सूरज पल पल चमके
नये नये आयामों की मंजूषा को अनुभूति खोले

मन हो मगन न कुछ भी बोले

कोई गीत नहीं बन पाया

फूल पिरोते रहे भाव के धागे लेकर रोजाना हम
लेकिन पांखुर पांखुर बिखरीं कोई गीत नहीं बन पाया

अक्षर अक्षर संयोजित कर
शब्द बनाया पंक्ति न बनी
रही भावना-अभिव्यक्ति में
निमिष निमिष पर यहाँ बस ठनी
छंदों की नगरी वाले पथ
छूट गये थे मानचित्र से
और दिशाओं के निर्देशक
ठाने बैठे रहे दुश्मनी

अधरों पर प्रतिबन्ध लगाते रहे नियम सामाजिकता के
जो थी मन में बात, शब्द वह नहीं होंठ पर लेकर आया

जागी हुई कामनाओं के
चित्र नयन में आ बन जाते
और आँख में पलते सपने
आकर सिन्दूरी कर जाते
लेकिन कटु यथार्थ की आंधी
देती जब सुधियों पर दस्तक
महज ताश के पतों जैसे
पलक झपकते ही ढह जाते


सोच रहे थे ढूँढ़ें किस्मत को हम दीप जलाकर पथ में
लेकिन किस्मत, सजा थाल मेम दीप एक भी जल न पाया

अभिलाषा ! सरगम हर दिन को
बैठी रहे बाँह में लेकर
और यामिनी रहे सुहागन
पहने निशिगंधों के जेवर
आशा के अंकुर दुलरावें,
आ आ करके नित्य बहारें
घटा घिरे जब भी आँगन में
बदली रही हमेशा तेवर

जो अपने अनुकूल अर्थ दे, ऐसा शब्दकोश चाहा था
लेकिन जब भी खोला उसको, हर प्रतिकूल अर्थ ही पाया

जिसकी रही प्रतीक्षा, केवल आई नहीं वही

सोम गया, मंगल बुध बीते और रहा गुरु भी एकाकी
शुक्र शनि रवि, एक निमिष भी सुधियों वाली हवा न आई

उड़े कुन्तलों के सायों से नजर बचा कर गईं घटायें
फुलवारी की परछाईं से कन्नी काट, बहारें गुजरीं
सुर की गलियों को सरगम ने गर्दन जरा घुमा न देखा
बिछी रही पतझर के आंगन वाली धूल, धूप में उजरी

झंझाऒं का रोष बिखरता रहा रोज द्वारे चौबारे
जिसकी रही प्रतीक्षा, केवल आई नहीं वही पुरबाई

सावन की शाखों पर बादल आकर नहीं हिंडोले झूले
अमराई, आषाढ़ी स्पर्शों की अभिलाषा लेकर तरसी
कोयलिया के कंठ निबोली, रही घोलती अपने रस को
शहतूती माधुर्यों वाली कोई बदली इधर न बरसी

जाने क्या हो गया, निशा की काली कमली की कजराहट
किरण किरन कर निगल गई है, प्राची की चूनर अरुणाइ

झीलों की लहरों पर आकर तैरे नहीं हंस यादों के
नदिया के तट के पेड़ों पर बातें कोई करे न पाखी
नजरें द्वार खटखटाती हैं देखे और अदेखे सब ही
लेकिन कोई खिड़की तक भी पल्ले खोल नहीं है झांकी

अभिलाषा यों तो उड़ान ले, गई गगन से टकराने को
पंख धूप में झुलस गये तो मुँह की खाये वापस आई

कुछ----- गीतों से परे

अर्थ सावन के उमड़ते बादलों का तो न जाना
न हुआ सन्देश जो था छुप गया, पहचान पाना
किन्तु दीपक प्रीत के विश्वास का तब जल उठा है
जब तुम्हारे होंठ पर गूँजा, लिखा मेरा तराना
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मैं तुम्हारे नयन के हर चित्र को पहचानता हूँ
और अधरों पर टिका स्वीकार है मैं मानता हूँ
आतुरा तुम हो मेरे भुजपाश में आओ, सिमट लो
किन्तु है संकोच थामे पांव को, मैं जानता हूँ

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क्योंकि करने के लिये है अब न कोई प्रश्न बाकी
इसलिये आकांक्षायें उत्तरों की भी नहीं है
एक पत्थर से भला मैं किसलिये वरदान मांगू
ज़िन्दगी में पत्थरों की जब कमी बिल्कुल नहीं है

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पत्थरों को रंग देकर शीश पर हमने सजाया
फूल, अक्षत रोलियों से नित्य पूजा, जल चढ़ाया
सांस के मंत्रों पिरोई धड़कनों की आहुति दी
और ये सोचा नहीं है आज तक, क्या हाथ आया

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नीर की बून्द को तूलिका में पिरो

नीर की बूंद को तूलिका में पिरो
रात में रंग भरती रही चाँदनी

एक इस बून्द को ये विदित कब हुआ
गेह से साथ कितने निमिष का रहे
छोड़ दहलीज को जब चले तो भला
कौन सी धार के साथ मिल कर बहे
जाये मंदिर, रहे आचमन के लिये
एक खारे समन्दर में जा लीन हो
छलछलाये सुलगती हुई पीर में
या कि उमड़े सपन जब भी रंगीन हो

चूड़ियों के सिरे पर टिकी रो पड़े
या कि मुस्काये सिन्दूर संग मानिनी

ओस बन कर गिरे फूल के पात पर
बन के सिहरन कली के बदन में जगे
सीपियों में सजे मोतियों सी संवर
ज्योति बन कर किसी साधना को रँगे
बन हलाहल भरे कंठ में नीलिमा
तॄप्त कर दे कोई प्यास जलती हुई
प्राण संचार दे इक बियावान में
आस बन कर घटा में उमड़ती हुई

वह उमड़ती कभी तोड़ गिरिबन्ध को
तो कभी छेड़ती रागमय रागिनी

चित्रकारी करे, कैनवस कर धरा
रख नियंत्रण चले वक्त की चाल पर
सॄष्टि का पूर्ण आधार बन कर रहे
लिख कहानी अमिट काल के भाल पर
मिल मलय में चढ़े शीश पर ईश के
और प्रक्षाल दे पाहुने पांव को
पनघटॊं की खनकती बने पैंजनी
उग रही भोर में, ढल रही शाम को

सूक्ष्म से एक विस्तार पा कर चले
ज़िन्दगी की बनी ये हुई स्वामिनी

धड़कनें आज विद्रोह करने लगीं

कर रही थी तकाजा निरन्तर कलम
लिख रखूँ मैं नियम चन्द व्यवहार के

धड़कनें आज विद्रोह करने लगीं
तय किया ताल के साथ अब तक सफ़र
सांस की सहचरी बन चली हैं सदा
कोई अपनी नहीं थी बनी रहगुजर
आज नेतॄत्व की कामनायें लिये
पंथ अपना स्वयं ही बनाने लगीं
सांस आवाज़ देती हुई रह गई,
मुड़ के देखा, अंगूठा दिखाने लगीं

और गाता रहा एक भिक्षुक ह्रदय
गीत, कर जोड़ कर उनकी मनुहार के

सांस ने तो किया है समर्पण मगर
अपनी ज़िद पे अड़ी, कुछ भी मानी नहीं
हो विलग कोई अस्तित्व उनका नहीं
सत्य थी बात पर उनने जानी नहीं
कब हुई देह परछाईयों से अलग
कब विलग हो रहा फूल, रसगंध से
सब ही सम्झा थके, मानती ही नहीं
डोर ये है बँधी एक अनुबन्ध से

उँगलियाँ आज अपनी छुड़ा कर चलीं
चेतना के झनकते हुए तार से

आज जन्मांतरों की शपथ भूलकर
चाहती हैं लिखें इक कहानी नई
दूर कितनी चली धार लेकिन, अहो
तोड़ कर बन्धनों को उफ़नती हुई
अग्नि, ईधन बिना शेष कब रह सकी
सीप मोती अकेले कहां बुन सके
चाह है ज़िद को छोड़ें जरा एक पल
और सच्चाई को गौर से सुन सके

एक ज़िद ही निमिष में मिटा डालती
साये फ़ैले घने एक विस्तार के

चान्दनी सरगमों में पिघल कर घुली

एक ॠतुराज के पुष्प शर से झरी, पांखुरी देह धर सामने आ गई
चान्दनी सरगमों में पिघल कर घुली राग में शब्द को ढाल कर गा गई
जो कला मूर्त्तियों में ढली थी खड़ी, आज परदा स्वयं पर गिराने लगी
आपकी एक छवि कल्पना से निकल, दॄष्टि के पाटलों पे जो लहरा गई

चित्र जितने अजन्ता की दीवार पर थे टँगे देखते देखते रह गये
भ्रम जो सौन्दर्य के थे विमोहित किये,एक के बाद इक इक सभी ढह गये
तूलिका लाज के रंग में डूब कर फिर सिमटने लगी आप ही आप में
आप के चित्र को देखने नभ झुका आप सा है न दूजा सभी कह गये

शिल्प में घुल गई आज कोणार्क के, गंध वॄन्दावनों की उमड़ती हुई
प्यास को मिल गई स्वाति की बूँद ज्यों आज बैसाख के नभ से झरती हुई
पारिजाती सुमन से बने हार को, हाथ में ले शची आ खड़ी राह में
मौसमों के लिये रँग सब साथ में, आपके चित्र में रंग भरती हुई

होठों पे उगती रही प्यास भी

खुश्कियाँ मरूथलों की जमीं होंठ पर शुष्क होठों पे उगती रही प्यास भी
आपके होंठ के स्पर्श की बदलियां पर उमड़ के नहीं आ सकीं आज भी

नैन पगडंडियों पर बिछे रह गये मानचित्रों में उल्लेख जिनका न था
इसलियी आने वाला इधर की डगर राह भटका हुआ एक तिनका न था
चूमने पग कहारों के, मखमल बनी धूल, नित धूप में नहा संवरती रही
गंध बन पुष्पकी बाँह थामे हवा कुछ झकोरों में रह रह उमड़ती रही

सरगमें रागिनी की कलाई पकड़ गुनगुनाने को आतुर अटकती रहीं
उंगलियों की प्रतीक्षा मे रोता हुआ मौन होकर गया बैठ अब साज भी

रोलियां, दीप, चन्दन,अगरबत्तियाँ ले सजा थाल आव्हान करते रहे
आपके नाम को मंत्र हम मान कर भोर से सांझ उच्चार करते रहे
दिन उगा एक ही रूप की धूप से कुन्तलों से सरक आई रजनी उतर
केन्द्र मेरी मगर साधना के बने एक पल के लिये भी न आये इधर

घिर रही धुंध में ढूँढ़ती ज्योत्सना एक सिमटे हुए नभ में बीनाईयां
स्वप्न कोटर में दुबके हुए रह गये ले न पाये कहीं एक परवाज़ भी

हाथ में शेष, जल भी न संकल्प का धार नदिया की पीछे कहीं रूक गई
तट पे आकर खड़ी जो प्रतीक्षा हुई जो हुआ, होना था मान कर थक गई,
जो भी है सामने वह प्लावित हुआ बात ये और है धार इक न बही
जानते हैं अधूरी रहेगी सदा साध, जिसको उगाते रहे रोज ही

खो चुका है स्वयं अपने विश्वास को, थाम विश्वास उस को, खड़े हैं हुए
ठोकरें खाके संभले नहीं हैं कभी हम छलावों में उलझे हुए आज भी

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...