स्वावगाविक था चुप रह जाना

 स्वाभाविक था चुप रह जाना 





स्वर मी सरगम का स्वाभाविकता ही था
चुप हो कर रह जाना 
मन में उठे भाव से जब शब्दों ने नाता 
तोड़ लिया है

अनुभूति की अंगड़ाई ने
किया नहीं कोई समझौता
रचना की व्याकरण रही हो
कितने पथ में जाल बिछाए
छंदों के उन्मुक्त गगन में 
उड़ते अभिव्यक्ति के पाखी
हो निर्बाध उड़ाने भरते 
रहे पंख आपने  फैलाए

लेकिन परवाज़ों का रुकनाभी
स्वाभाविकता ही तो था जब 
पुरवाई के नूपुर ने झंकृत ही 
होना छोड़दिया हो 

चेतनता का गाती से नाता
जुड़ा सृष्टि की संरचना से 
अंतरिक्ष का गहन शून्य हो
या हों चाँद सूरज तारे 
जड़ में भी गाती . गाती भी गतिमाय
कुछ भी तो स्थिर नहीं रहा है
पथ में बढ़ते हुए कदम हों
या फिर खुले नीड़ के दवारे

लेकिन गाती का भी विलयन तो 
स्वाभाविककि हो जाना ही था
जब धड़कन की तालों ने
साँसों से मुख ही मोड़ लिया हो 

दिवस खींचता नित्य क्षितिज पर
रंग अरूणिमी नीले पीले
और व्योम के बादल करता
भूरे काले और मटमैले
जवाकुसुम, कचनारों चमेली
बेला चम्पा और केतकी
फिर गुलाब गेंदा कनेर के
रंग धनक की प्रत्यंचा पर
नाचा करते हुय रसीले

लेकिन रंगो का घुल जाना
स्वाभाविकता था श्याम विवर में
जब पूनम की रातों ने भी
राम का आँचल ओढ़ लिया है 

राकेश खंडेलवाल
नवम्बर २०२२








२१ नवम्बर ​

 21ST  NOVEMBER 2022


इकतालीस वर्ष की सहचर 

जो है मेरे जीवन प​--​थ की
उसके हाथों में वल्गाएँ
हैं मेरी साँसों के रथ की

प्रथम दिवस से उसने आकर
नित्य जगाई नई प्रेरणा
सहज किया है दूर अंधेरा 
ज्योति पुंज की क​री ​ अर्चना
नभ के जो निस्सीम शून्य में
देती दिशा बनी ध्रुव तारा
धड़कन की तालों ने प्रतिपाल
केवल उसका नाम उचारा 

​​ ​उंगली ​थाम दिशा निर्देशित 
करती रही भाग्य के ख़त की 
उसके हाथों में वल्गाएँ
गईं मेरी साँसों के रथ की 

मेरे जप तप और साधना 
की उसने ही ​करी ​ पूर्णता
आराधन में. शुचि पूजन में
साथ रही हर बार वन्दिता 
उसके कौशल के स्पर्शों से
घर को मिली एक परिभाषा
वो सावन की घटा बनी है
तृषित ​हृदय ​जब होता प्यासा 

उसने ही तो लिखी भूमिका
विगत भुला, मेरे आगत की 
सौंपी उसको ही वल्गाएँ
अपनी साँसों के इस रथ की 

उषा की अंगड़ाई के सैंग
अधरों पर जो स्मित आ खेले
उसको छू कर वीथि वाटिका
में लगते गंधों के मेले
उसके पदचापों की धुन सुन
कलियों का शृंगार निखरता
उसका आँचल जब भी लहरा
तब बहार को मिली सफलता 

मिली तपस्याओं के वर में
वह उपलब्धि मेरी चाहत की
पार्थसारथी बन कर थामे
वल्गाएँ साँसों के रथ की 

​राकेश खहंडेलवाल 
२१ नवम्बर ​

कासा ख़ाली रह जाएगा

 कब सोचा था कलम शब्द अब लिखने से इंक़ार करेगी

गीतों के गलियारों में भी कासा ख़ाली रह जाएगा

किसका रहा नियंत्रण कब क्या सोचे हुए नियति हैं अपनी 
अपनी इच्छाओं का कोई मोल नहीं है उसके आगे
हम निर्जीव काठ के पुतले चलते हैं उसके इंगित पर
एक उसी के हाथ नियंत्रित करते हैं हर गाती के धागे

जो हैं शहसवार नायक इस वर्तमान के रंगमंच पर
पर्दा गिरते ही वह भी बस इक कोने में रह जाएगा 

जीवन की हर नई भोर लाती है नाज़ी चुनौती हर दिन 
जिसकी प्रत्याशाओं का कोई अनुमान नहीं हो पाता 
दिन ने अपने पूरे पथ पर जिस सरग़म पर साज संवारे 
किरणों के संगीत बिखरते से कुछ मेल नहीं बन पाता 

बांध लिए थे पूरबाइ ने घुँघरू तो अपने पाँवों मे
लेकिन उसको पता कहाँ था कोई बोल नहीं पाएगा 

दिवस निशा की चहार पर जो रखती गोटी काली गोरी 
कभी हिलाई करती ऊँगली, कभी चुरा लेती काजल को
उसकी अपनी मर्ज़ी   किस रस्ते पर ले कर चले जाह्नवी
और कौन सा घाट तरसता रहे बूँद भर गंगाजल को 

खड़े बीच में धाराओं के, तृष्णा लिए हुए डगरों पर
किसे पता था मरुथालियाँ ये मन फिर प्यासा रह जाएगा 

राकेश खंडेलवाल
१४ नवम्बर २०२२ 


नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...