कोई भी गंध नहीं उमड़ी

 कोई भी गंध नहीं उमड़ी 


साँसों की डोरमें हमने, नित गूँथे गजरे बेलकर
लेकिन रजनी की बाहों में कोई भी गंध नहीं साँवरी

नयनों में आंज गई सपने
जितने, संध्या ढलते ढलते
उषा के पाथ पर बिखर गए 
घुटनों पर ही। जलते चलते
पलकों की कोरों का सूनापन
कोई संतोष न पाया
फिसले असहाय तलहटी में
हर बार संभल, उठते गिरते

बादल ने छान चाँदनी से, हर घड़ी सुधा घट बरसाये 
लेकिन प्राणों की तृष्णा पर, बन कर मकरंद नहीं बिखरी

जार रोज़ क़तारों में बोई
तुलसी की हमने मंजरियाँ
आशा थी खील कर आएँगी
कुछ मनुहारों की पंखरियाँ 
वासंतिक ऋतु ने पर भेजे
पतझड़ के ही किंतु झकोरे
रही देखती सूनी नज़रें 
बिखरे हुए आस के डोरे 

क्यारी ने गिरते पत्रों को अंक लगा, चूमा, दुलराया
किंतु बहारों के चुम्बन बिन, कोई भी रसगंध न निखरी 

विश्वास हमारा चला गया
बस अपने ही भोलेपन से
बदला प्रतिबिम्ब  हमारा ही
पाया जो अपने दर्पण से 
सुधियों के गलियारों में
कोई आवाज़ नहीं गूंजे
सुनसान अंधेरी राहों में
हाथों को हाथ नहीं सूझे

रहीं लक्षणा आर व्यंजना,ऊँगली थाम रखे शब्दों की
किंतु अधर की सरगम छूकर, बन गीतों के छंदन बिखरी 

राकेश खंडेलवाल
जानकारी २०२३ 



अर्ध निशा में

 

अर्ध निशा में 
पूनम का चाँद अचरज में डूबा डूबा पूछ रहा है
किसने  आकर अर्ध निशा में इंद्रधनुष के रंग बिखेरे

किसके अधरों की रंगत आ प्राची के आँगन रचती है 
सिंदूरी कपोल ने किसे खींची रचती परिपूर्ण अल्पना 
कौन नयन की सुरमई से करता है आकाश बेमानी
स्याम हरित किसकी परछाई उड़ा रही है नई कल्पना 

किसकी छवि आ घोल रही है धवल चाँदनी में ला केसर 
गंधों के बादल किसको छू दिशा दिशा में आकर उमड़े

किसकी त्रीबली की  हिलोर से  नभ गंगा में उठटी लगाईं
पारिजात के फूल हज़ारों आज खिले नभ की गलियों में
कौन सप्त ऋषीयों के ताप को खंडित करता बिन प्रयास के 
किसकी साँसें नव यौवन संचार कर रही हैं कलियों मे

किसकी करें प्रतीक्षा  वातायन में आ उर्वशी मेनका 
किसके स्वप्न  चित्रलेखा की रंभा की आँखों में साँवरे 

राकेश खंडेलवाल
जनवरी २०२३ 

जहाँ महकती रजनीगंधा

जहाँ महकती रजनीगंधा 

 रजनीगंधा जहां महकती, दूर हुई है वे 

यादों के विषधड़ आ आ करते हैं दंशों से घायल 


नागफनी के पौधे उग कर घ्रेर रहे हैं मन की सीमा
विषमय एकाकीपन करता है धड़कन की गाती को भी धीमा
सन्नाटे में साँझ सकारे और अलसती दोपहरी में
सीख चुका है जीवन अब यह सुधा मान कर आंसू पीना

सुधियों की  पुस्तक के पन्ने आज हुए हैं सारे धूमिल
सिर्फ़ एक आभास सरीखा लहराता रेशम का आँचल

है अजीब ये सारी दुनिया, देख किसी की पीड़ा हंसती
भूली टूटे आइने से भी रूपसीं की छवि  दमकती 
मेघों के आडम्बर करते पूरे नभ को भी आवछादित
चीर कुहासों के घेरे को चंद्र किरण की विभा चमकती

दुनिया भर के चाहतों पर बिंब खींचे हैं छलनाओं के
अधरों पर वेदना मौन है, नयनों में में पीड़ा काजल 

अस्थिर है ईमान, बिक रही चौराहों पर नैतिकताएँ 
प्रतिबंधों से घिरी हुई है सत्य प्रेम की सब सीमाएँ 
नजरों के तीरों से बींध कर, मौन रही पाँवों की पायल
रिसती हुई पीर के पल ही द्वारा को आकर खड़काएँ 

मन है खुला अवंतिका के  आगे जैसा,   वैसा पीछे भी
अधरों पर जलती है तृष्णा जलती है और हाथ में रीती छागल

राकेश खंडेलवाल 
८ कँवरियों २०२३ 










​नए वर्ष की सम्भवतायें ​

 ​नए वर्ष की सम्भवतायें ​


एक बरस के अंतिम पन्ने पर
लिख कर ‘इति’ नए वर्ष ने
नए क्षितिज पर अंकित कर दी
फिर कुछ नूतन संभवतताएँ

घिसी पिटी प्राचीन कामना
कोई फिर से न दोहराये
अर्थहीन है यह भी कहना
नया वर्ष नव ख़ुशियाँ लाये
बस इतनी ही करें अपेक्षा
कर्मों का फल पूर्ण मिल  सके
जो भी आप दिशायें चुन लें
खड़ी नहीं उनमें बाधा को

हो कटिबद्ध प्रयासोन से ही
पूरी सजती अभिलाषये
फलीभूत तब ही तो होंगी
नयी नयी कुछ संभवताएँ

एक अंक ही केवल बदला
वो ही दिवस. वही सन्ध्याएँ
वो ही एक आस्था श्रद्धा
वो ही पूजन, व्रत गाथाएँ
छोड़ा सब कुछ भाग्य भरोसे
बदले नहीं रेख हाथो की
बिन प्रयास पल्लवित न होती
कलियाँ पतझड़िया शाख़ों की

ढर्रा बदले नए वर्ष में
हैं मेरी इतनी आशाएँ
शिल्पियों तब ही सकती हैं
नए पृष्ठ पर संभावनायें

बीता है जो बरस, संभाव्त:
आने वाला वैसा ही हो
है कर्मंयवाधिकारस्ते
फल संभावित हो या न हो
समिधाएँ लेकर साँसों की
करें होम इस नये वर्ष में
बाधाएँ बदलेंगी सारी
कर्मक्षेत्र से प्राप्त हर्ष में 

दहलीज़ों के पार खिंची है
स्वस्ति चिह्न से अनुकम्पाएँ 
प्राप्ति चूँ ले कदम तुम्हारे
निश्चित कर लो संभवतायें 

राकेश खंडेलवाल 
​१ जनवरी २०२३ ​



बरखा की बूँदें सावन में

बरखा की बूँदें सावन में


ज्यों हाथों में खिंची लकीरें,मीत से तुम मेरे मन में
अंतरिक्ष में बसे सितारे बरखा की बूँदें सावन में

अधरों का हर शब्द तुम्हारे चित्रों से होता उत्प्रेरित
नयनों का हर द्रश्य तुम्हारे प्रतिबिम्बों  से होता सज्जित
हर अनुभूति  निमिष  पर केवल  रहा नियंत्रण प्रिये  तुम्हारा
पांच इन्द्रियों का सब गतिक्रम एक तुम्हीं से है निर्धारित

सांसों की हर इक लहरी पर एक तुम्हारी ही है छाया
मीत  तुम्हारी ही स्वर लहरी जुडी हुई मेरी धड़कन में

प्राची  उठाती  अँगड़ाई  ले,​ ​या   थक  बैठी  हुई   प्रतीची
उगी प्यास हो आषाढ़ों की  या तृष्णा मेघों की सींची
जुड़ा हुआ तुम ही से सब कुछ जो गति​मान ​शिराओं मे है
अनुभूति की दस्तक हो या सुधी ने कोई आकृति खींची

शतारूपे!  मेरा मन दर्पण  मुझको बिम्ब दिखात।वे ही
जिसकी आभा बिखर रही है रंगों के सुरभित्त ​ कानन ​में

नयनों की सीपी में तुम ही बसी हुई हो बन कर मोतो
साँसों के गलियारों में तुम आकर चंदन गंध समोती
दिन की दहलीज़ों पर रचती साँझ सकारे नई अल्पना
और हृदय के  हर कोने को अनुरागी से रही भिगोती

कलसाधिके ! रोम रोम में थिरकने एक थरथराती है
जिसे सदा छेड़ा करती है मीत तुम्हारे पग की पायल

राकेश खंडेलवाल
दिसम्बर २०२२

नहीं रहा उठ पाना सम्भव

 

शतारूप! जो कलम हाथ में मेरे दी थी इक दिन तुमने
आज उँगलियाँ अक्षम मेरी, नहीं रहा उठ पाना सम्भव

वही डगर है जिस पर पीछे मुड कर चलना रहा माना है
वही सुलगती प्यास एक दिन जो बोई बरसे सावन  ने
वही तुष्टि के मेघ रहे जो दूर सदा मन के मरुथल से
वही कसक है साँझ सकारे जो धड़का करती धड़कन में 

एक कहानी पीर भारी जो रही अधूरी लिखते लिखने
आज पुनः रह गई अधूरी, नहीं पूर्ण कर पाना सम्भव 

वातायन से दूर क्षितिज तक रोष बिखरता है पतझड़ का
रही वारिकाएँ बंजर हो, शब्दों के अंकुर न फूटे
अमर लगाएँ परिवर्तित हो विश बेलों में बदल चुकी है
नयनों की कोरों दे भी तो सपाटों के भी सताने रूठे

दस्तक देते छिली हथेली की धूमिल सारी रखाएँ
रेख भाग्य की भग्न हुई है, नहीं पुनः जुड़ पाना सम्भव 

अंतरिक्ष के सन्नाटे ही बरस रहे हैं श्याम व्योम से
घिरे शून्य में कोई गुंजन मिलता नहीं कंठ के स्वर का
शनै शनै अस्तित्व घुल रहा काल विवर के आकर्षण में 
दिशाहीन विस्तृत। सागर कोई  ज़ोर कहीं न दिखता

सिमट चुकी सारी सीमाये  आदि नाद के पूर्ण बिंदु में
बिना। समय के उद्भव के अब, स्वर का भी उठ पान सम्भव

राकेश खंडेलवाल
११ दिसम्बर २०२# 





कसक पीर की

 कसक पीर की 

कसक पीर की ढल ही जाती शब्दों में तो साँझ सकारे
लेकिन वाणी रुद्ध कंठ में, मुखरित उन्हें नहीं कर पाती 

सूनी नजर ताकती नभ को पंख फड़फड़ रह जाती है
परवाज़ें भरने में अक्षम, पाखी शब्दों के बेचारे
हर दिशि में हैं पाँव पसारे, बदली घोर निराशा वाली
मरी हुई आशा किस किस को कहो मदद के लिए पुकारे 

पुरवा की लहरों पर भेजे कितने मेघदूत संदेशे
लेकिन लौटी बिना पते के जितनी बार लिखी है पाती 

काग़ज़ कलम सामने रक्खे, इजिल पर है टंका कैनवस
रंग पट्टिका सोच रही है कब उँगलियाँ तूलिका पकड़े
कलम छुए हाथो की थिरकने, आवारा फिरते अक्षर को
कैसे अपने स्वर की सरगम के पिंजरे में लाकर जकड़े

लेकिन वीणा की खूँटी से फिसले हुए तार हैं सब ही 
कोशिश करते थकी तान, पर झंकृत नहीं तनिक हो पाती 

कहने को इतिहास वृहद् है सुधि के संदूकों में बंदी
लगे हुए स्वर की सरगम पर अनजाने तिलिस्म के घेरे
कुंजी आगत के पृष्ठों के किस पन्ने पर छुपी हुई है
इस रहस्य पर पर्दा डाले लगे हुए हैं  तम  के डेरे 

लेकिन मन की अनुभूति तो  छ्लका करती निशा भोर में
शब्दों में ही वर्णित होती, वाणी  व्यक्त नहीं कर पाती

राकेश खंडेलवाल
दिसंबर २०२२ 


फिर रही आज सूनी गली ये मेरी

 


फिर रही आज सूनी गली ये मेरी


फिर रही आज सूनी गली ये मेरी
कोई पदचाप उभरी नहीं साँझ में
पाखियों ने पलायन यहाँ से किए
शेष कुछ भी नहीं रह गया गाँव में

जितने पगचिह्न छूटे यहाँ राह में
आंधियाँ साथ अपने उड़ा ले गई
कोई लौटा नहीं, जो इधर से गया
जाते जाते ठिठक कर हवा कह गई
आज को कल में ढलना सुनिश्चहित रहा
क्रम ये रुक जाए सम्भव तनिक भी नहीं
ये समय की नदी, कल्प कितने हुए
अनवरत है चली, आज फिर बह गई 

ज़िंदगी एक गति का ही विस्तार है
कोई ठहराव बंधता नहीं पाँव में

तान छेड़े यहाँ पर कोई बांसुरी
राग उभरे किसी साज के तार से
तूलिका रँग रही हो अजंता कहीं
छैनियाँ शिल्प गढ़ती हों कोणार्क के
प्रेम की इक कथा ताजमहली बने 
प्रीत जमना का तट कर दे वृंदावनी 
सब विगत हो गए, आज कल जब बना
याद करते हैं बस पृष्ठ इतिहास के 

इस कथा को सुनाते हैं रामायणी
और वाचक सदा पीपली छाँव में 

दृष्टि का पूर्ण विस्तार है मरुथली
चित्र दिखते हैं जो, वे भी आभास हैं
दूरियाँ मध्य की नित्य बढ़ती अधिक
जो लगा था हमारे बहुत पास है
धूप की तीव्रता जब बढ़ी कुछ अधिक
अपनी परछाई भी लुप्त होती रही
बन अगरबत्तियों का धुआँ , उड़ गया
जिसको सामुझे थे दृढ़ एक विश्वास है 

उम्र की एक चौसर बिछी खेल को
हार निश्चित रही हर लगे दांव में 

​राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२२ ​

स्वावगाविक था चुप रह जाना

 स्वाभाविक था चुप रह जाना 





स्वर मी सरगम का स्वाभाविकता ही था
चुप हो कर रह जाना 
मन में उठे भाव से जब शब्दों ने नाता 
तोड़ लिया है

अनुभूति की अंगड़ाई ने
किया नहीं कोई समझौता
रचना की व्याकरण रही हो
कितने पथ में जाल बिछाए
छंदों के उन्मुक्त गगन में 
उड़ते अभिव्यक्ति के पाखी
हो निर्बाध उड़ाने भरते 
रहे पंख आपने  फैलाए

लेकिन परवाज़ों का रुकनाभी
स्वाभाविकता ही तो था जब 
पुरवाई के नूपुर ने झंकृत ही 
होना छोड़दिया हो 

चेतनता का गाती से नाता
जुड़ा सृष्टि की संरचना से 
अंतरिक्ष का गहन शून्य हो
या हों चाँद सूरज तारे 
जड़ में भी गाती . गाती भी गतिमाय
कुछ भी तो स्थिर नहीं रहा है
पथ में बढ़ते हुए कदम हों
या फिर खुले नीड़ के दवारे

लेकिन गाती का भी विलयन तो 
स्वाभाविककि हो जाना ही था
जब धड़कन की तालों ने
साँसों से मुख ही मोड़ लिया हो 

दिवस खींचता नित्य क्षितिज पर
रंग अरूणिमी नीले पीले
और व्योम के बादल करता
भूरे काले और मटमैले
जवाकुसुम, कचनारों चमेली
बेला चम्पा और केतकी
फिर गुलाब गेंदा कनेर के
रंग धनक की प्रत्यंचा पर
नाचा करते हुय रसीले

लेकिन रंगो का घुल जाना
स्वाभाविकता था श्याम विवर में
जब पूनम की रातों ने भी
राम का आँचल ओढ़ लिया है 

राकेश खंडेलवाल
नवम्बर २०२२








२१ नवम्बर ​

 21ST  NOVEMBER 2022


इकतालीस वर्ष की सहचर 

जो है मेरे जीवन प​--​थ की
उसके हाथों में वल्गाएँ
हैं मेरी साँसों के रथ की

प्रथम दिवस से उसने आकर
नित्य जगाई नई प्रेरणा
सहज किया है दूर अंधेरा 
ज्योति पुंज की क​री ​ अर्चना
नभ के जो निस्सीम शून्य में
देती दिशा बनी ध्रुव तारा
धड़कन की तालों ने प्रतिपाल
केवल उसका नाम उचारा 

​​ ​उंगली ​थाम दिशा निर्देशित 
करती रही भाग्य के ख़त की 
उसके हाथों में वल्गाएँ
गईं मेरी साँसों के रथ की 

मेरे जप तप और साधना 
की उसने ही ​करी ​ पूर्णता
आराधन में. शुचि पूजन में
साथ रही हर बार वन्दिता 
उसके कौशल के स्पर्शों से
घर को मिली एक परिभाषा
वो सावन की घटा बनी है
तृषित ​हृदय ​जब होता प्यासा 

उसने ही तो लिखी भूमिका
विगत भुला, मेरे आगत की 
सौंपी उसको ही वल्गाएँ
अपनी साँसों के इस रथ की 

उषा की अंगड़ाई के सैंग
अधरों पर जो स्मित आ खेले
उसको छू कर वीथि वाटिका
में लगते गंधों के मेले
उसके पदचापों की धुन सुन
कलियों का शृंगार निखरता
उसका आँचल जब भी लहरा
तब बहार को मिली सफलता 

मिली तपस्याओं के वर में
वह उपलब्धि मेरी चाहत की
पार्थसारथी बन कर थामे
वल्गाएँ साँसों के रथ की 

​राकेश खहंडेलवाल 
२१ नवम्बर ​

कोई भी गंध नहीं उमड़ी

  कोई भी गंध नहीं उमड़ी  साँसों की डोरमें हमने, नित गूँथे गजरे बेलकर लेकिन रजनी की बाहों में कोई भी गंध नहीं साँवरी नयनों में आंज गई सपने ज...