गीत कलश
काव्य का व्याकरण मैने जाना नहीं छंद आकर स्वयं ही संवरते गये
कनक तुली सी चंदन काया
यायावर वनपकी मन का
मन का आवारा वन पाखी
ताका करता हर एक दिशा
फिर पंख फड़फड़ा रह जाता
तय की है उसने पगडंडी
चढ़ बही हवा के छोरों पर
उन तथाकथित गंतव्यों की
लौटा है साथ लिए झोली
अपने कोशों को लूटा, गाँव
पूँजी अपने मंतव्यों की
हर एक दिशा में यही हाल
पूरब पश्चिम, उत्तर दक्षिण
कुछ समझ नहीं उसको आता
उगते देखे चौराहों पर
मौसम ने बदली जब करवट
भ्रामक फूलों की नई फसल
केवल बदली हैं शाखायें
अंकुर वे ही प्रस्फुटित हुए
जो टहनी से कल गए फिसल
बरसों से घिसा पिटा ये ही
इतिहास अर्थ अपना खोकर
फिर फिर अपने को दुहराता
आती है उजड़ी गलियों में
पथ भूल वहीं, गुजरी थी कल
जिस द्वारे से उठ कर डोली
धुल चुके रंग, है स्याह वसन
चलते राजस गलियारों में
लेकर फिर से सूरत भोली
अमृत का देकर नाम आज
यह खोटा सिक्का वही पुनः
लाकर के भूनवाया जाता
तेरा चंदन बदन यह
तेरा चंदन बदन यह
आलसी अंगड़ाइयों के
फ़लसफ़े फिर से सुनाता है तेरा चंदन बदन यह
भोर से संध्या तलक के उपवनों में
खिलखिलातीं झूमती हैं
तितलियाँ जिस गंध के अविरल प्रवाहित निर्झरों का
पान करती
और कलियों के अविकसित पाटलों को
खोल देते हैं मधुप जो
कुछ रसीले चुम्बनों की छपी में लिपटे हुए प्रेमिल स्वरों को
चूम कर के
एक वह अनुभूति फिर से
कर रहा जीवंत आकर
आ मेरे भजपाश में तेरा सलोना सा बदन यह
सावनी नभ में उमड़ती
बदलियों में टैंक रही गोटा किनारि जो रूपहली दमकती है
जल तरंगें छेड़ती सी
आ शिरा में शिंजिनी बन
और कुछ मल्हार के स्वर
जो उमड़ने लग पड़ें सारणियों के तार को छूकर निरंतर
थाप देते चंग पर झूमे
उमंगित रागिनी बन
इक पपीहे की मधुर आवाज़ लेकर
टेरा है दूर से ही
बूँद की चूनर लपेटे भीगता तेरा बदन यह
सुरमई। नभ की चदरिया
को बिछाकर, चाँदनी की झिलमिलाती साड़ियाँ तन पर लपेटे
थिरकते पग नृत्य करने
पेंजनी झंकार करके
तारकों के मध्य में
अंगड़ाइयाँ लेती हुई इक मनचली नीहारिका के ज्वार को भर
कर सहज भुजपाश अपने
तनिक पल को सिहर के
व्योम की।मंदाकिनी के तीर का कम्पन संजोए
बिजलियों की तड़पनों सा
एक झंझा की तरह उमड़ा तेरा चंदन बदन यह
इंद्रधनुष के रंगों वाला
बहती हुई हवा की लहरों पर जो उड़ा पतंगों जैसा
एक तेरा है नाम सुनायने, इंद्रधनुष के रंगों वाला
नीले अम्बर में तिरते है धवल बादलों के जो टुकड़े
उन पर रश्मि धूप की टाँके सोनहली गोटे की झालर
इठलातीं है कई तरंगें उन्हें छेड़ कर के हौले से
झंकृत होती हैं तब वे सब नाम तुम्हारा ले अकुलाकर
उनमे से कोई बादल का टुकड़ा बिछुड़ अधर पर आया
सिहरन में अनुभूत हुआ तब, नाम प्रिये मधुपरकों वाला
जागी हुई भोर ने अपना बिम्ब निहारा जब नदिया में
छिड़ी हवा से तब लहरों ने जल तरंग की धुनें बजाई
झुकी तटी की दूब चूमने, होता आलोड़न सरग़म का
और पड़ी तब दूर कहीं से बंसी की आवाज़ सुनाई
अंगड़ाई लेकर गंधों ने लिखा कली के मृदु पाटल पर
कलासाधिके ! नाम रहा वो तेरा सहस अनंगों वाल
घोली स्याही घिरी घटा ने शाखाओं को कलम बना कर
पत्र पत्र पर लिखा एक हो नाम उभर कर आगे आया
गिरती हुई बूँद ने बोकर झंकारों को राग संवारे
मौसम ने छेड़ी शहनाई सारंगी ने स्वर दे गाया
दिशा दिशा के वातायन से द्वार खोल कर बिखरा प्रति पल
रहा नाम वो बस शतरूपे उद्गम नई उमंगों वाला
बस अपना अपना दुखड़ा ही
ऋग्वेद के मंत्रों सरीखी ज़िंदगी
ज़िंदगी तो है जटिल ऋग्वेद के मंत्रों सरीखीअर्थ समझें इसलिए अनुवाद ढूँढे जा रहे हम
भोर उगती है किरण की गुत्थियों को साथ लेकर
गूढ़ प्रश्नों को थमा कर हाथ में, ढलते अंधेरे
प्रश्न पत्रों में लिखे उस प्रश्न को जानें ज़रा तो
यों अटक असमंजस्यों में बीत जाते हैं सवेरे
बीतते है दिन ग़ज़ल बन बिनरदीफो क़ाफ़िये के
और बस तरतीब को उस्ताद ढूँढे जा रहे हम
दोपहर कीकर वनों में देखती वट वृक्ष छाया
माँगती पद चिह्न मरुथल में बगूडों की उठन से
आगमन को साँझ के, उत्सुक निगाहों की बिछा कर
पास के पल खर्च कर देती बिना कोई जतन के
साँझ आती मौन व्रत को ओढ़ कर रक्खे बरस से
और करने के लिए संवाद ढूँढे जा रहे हम
रात की मुँडेर पर आती नहीं है चाँदनी भी
तारको को खूँटियों से खींच कर अपना दुशाला
नींद रह जाती उलझ कर बिस्तरों की सलवटों में
पृष्ठ खोले दूसरे दिन का उतर आता उजाला
हाथ की धूमिल लकीरों में लिखी है जी इबारत
बस उसी का कर सकें प्रतिवाद ढूँढे जा रहे हम
वर्तमान की दीवारों पर
वर्तमान की दीवारों पर
टाँक रहे हो तुम अतीत को
जिस पर लिखी इबारत पूरी
मिटा चुकी है रबर आज की
राजपथों के मोटे अजगर
लील चुके है
चौपालें पनघट पगडंडी
खलिहानों में तोड़ रही दम
उत्सव वाली
रेशम चूनरिया की झंडी
लौटा कर ले जाते अपने
शब्द उसी उजड़ी वीथी में
जिसे खंडहर बना चुकी है
करवट इस बदले समाज की
पीढ़ी है अनभिज्ञ आजकल
क्या होती हैं
दादी नानी कहें कहानी
वेद पुराण उपनिषद गाथा
उनके अपने
माँ पापा से भी अनजानी
मोड़ चुकी मुख नई सभ्यता
अंधनुकरन कर रहे अपने
तौर तरीक़े, पश्चिम वाले
हर अंधे बहरे रिवाज की
सिमट गए सब रिश्ते नाते
Iइक आयत में
जो आ थमा हाथ सब ही के
ख़ुशी और त्योहार
हो रहे अब
अग्रेषित हो हो कर फीके
है पूरा विस्तार विश्व का
रुका उँगलियों के कोरों पर
लेकिन फिर भी रही अपरिचित
सुधियाँ, अपने एक आज की
अब गीत ग़ज़ल हो तो क्या ही
गीत ग़ज़ल हो तो क्या ही
नौ बजने के पहले अब तो ढलने का लेती नहीं नाम
दिन की खूँटी पर टंकी हुई रहती है आकर यहाँ शाम
सुरमाई रंगत घोल पिए कुछ गर्म हवाओं के झोंके
है उजड़ गया पूरा लगता मीठी यादों का एक गाँव
सन्नाटे में तल्लीन हुए पल पास रहे बाक़ी जो दो
अब गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो
सुबहां उठ कर अंगड़ाई ले पाँवो को देती है पसार
दोपहरी सो जाती आकर मेपल की छाया को बुहार
अलसाएपन का आलिंगन कर देता शिथिल अंग सारे
प्रहरों पर कड़ी धूप तप कर देती है रंगत को। निखार
भावों के पाखी का प्रवास अब हुआ आज दक्षिण दिशि को
तो गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो
किरणों के कोड़े खा खा कर शब्दों के घोड़े हैं निढाल
तेरा करते थे राजहँस, सूखी हैं वे झीलें विशाल
पूरब से उठती झंझाएँ, पश्चिम में धू धू दावानल
कल भी बदलेगा नहीं, विदित है हमें आज जो हुआ हाल
किस किस पर दोष लगाएँ, जब हर इक जन ही अपराधी हो
फिर गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो
किसकी बंसी की धुन गूंजी
उसका कोई नाम नहीं है
कनक तुली सी चंदन काया
कनक तुली से चन्दन काया पर कुंतल के मेघ घनेरे चन्दन वन की राहों में ज्यों ताक लगाए खड़े सपेरे नील झील की लहरों से जब डुबकी लेकर निकली ...
-
एक झंकार उठ बीन के तार से स्वर्ण नूपुर की ख़नकों से मिल कर गले चाँदनी की किरण से फिसलते हुए आज आइ उतर कर मेरी गोद में एक नन्ही कली की मृ...
-
भोजपत्र पर लिखी कथाए भावुक मन का मृदु संवेदन दिनकर का उर्वश -पुरू के रूप प्रेम में डूबा लेखन काव्य “ उर्मिला ” मुझे गुप्त की पीड़ा का नि...
-
आज चाँदनी यह पूनम की चंदन के रंगों को लेकर केसर घुले दूध सी निखरी नभ के कजरारे पन्ने पर स्वर्णिम उषा भरी लाज से हाथ किए सरसों ने पीले ...