आवंटित जीवन की पूँजी

 अपने विश्वासों को थोड़ा आज सत्य पर पटाखा, जाना

चमक धमक के पीछे केवल एक शून्य है केवल काला

महाम्रुत्युज्य मंत्र जाप तुम चाहे सप्त कोटि कर डालो
मर्यादा पुरुषोत्तम के मंदिर में घी के दीपक  बालों
योगेश्वर की जन्मभूमि को कितनी साहस कारो परकम्माचा
चार धाम की यात्रा करके चाहे जितना मन बहाल ले 

लेकिन विधना ने जितनी आवंटित की। जीवन की पूँजी 
चार धाम की यात्रा करके चाहे मन जितना बहाल लो 

जीतने दिवस बरस में, उतने व्रत और कथा सभी हैं सच्ची
सभी पूर्ण फल देने वाली पंडित की गारंटी पक्की
हम को है मालूम हक़ीक़त जन्नत जी ज्या है, पर फिर भी
दिल को बहलाने की ख़ातिर लगती हैं ये बातें अच्छी

इंसानों की क्या बिसात है, रहा देवताओं के कर में
बिना एक क्षण की वृद्धि के रीता रहा आस का प्याला 

होम हवन ग्रह शांति प्रार्थना, पूजा पाठ सभी बेमानी
जो नक्षत्र दूरियाँ जिनकी पड़े कल्पना के अनजानी
जिनसे इक प्रकाश कान आते आते शंख कोटि युग लगते 
उसके जीवन पर प्रभाव की बातों का क्या होगा मानी

जितना मन यथार्थ से हमने दूर रखा, उतने ही उलझे
सत्य सर्वदा सत्य रहा है, कोई नहीं झुठलाने वाला 

राकेश खंडेलवाल
सितंबर २०२३ 

ऋतु संधि

 अगस्त लढ़लताजुआमाँ महीना और सितंबरमौले धीमे बढ़ाते हुए लड़कों की अजात। सुबह १२-१६अंश सेल्सियस की हवा का गालों को हल्के से चूमना तो ऋतु संधि के इस अवसर पर कलम अपने आप मचलने

लगती है ——-// 

सम की कारावास से कितनी आज खिली यादों की कलियाँ
फिर अतीत के पृष्ठ खोल कर बैठ गया ये आवाजाही मन 

पिछवाड़े की बस्ती में खपरैलों पर गिरती बारिश की
बूँदों का होता तबले पर पड़ती थापों जैसा गुंजन
बरसात पर तनी टीन की चादर से बहती धारों का
छत पर गिरते। हुए बजाना पेंजनियाँ की मादक रुनझुन 

आसमान पर घिरती हुई घटाईं के श्यामल रंगों में
भीग हुए चिकुर से छिटका छिटका सा जैसे अल्हड़ापन

सावन के झूलों की पेंगों में लिपटी हुई उमंगें कितनी 
राखी के धागों में कितने रहे अनुस्यूत है संदेश 
बादल की खीरियों से छानती हुई इ किरणें सतर गोन वाली 
कितने हैं संदेश यक्ष ने मेघदूत के हाथो  भेजे 

नादिया की लहरों ने तट पर फिर आकार खेली अठखेली
रोम रोम को सिहरता है जलतरंग का मद्दम कंपन 

जलाते हुए दिवस के अधरों की तृष्णाएँ तृप्त हो चली
दोपहरी ने तह कर रख दी ओढ़ी गर्म की चादर 
हरियाली शीतल चूनर को ओढ़े सकल दिशायें पुलकित
लगे लौट कर नीड साँझ के , घूम थके दिन के यायावर

रजनी के तन पर चढ़ने लग गया नींद का अलसाया पन
लगी फैलने धीरे धीरे सिमटी हुई देह की सिकुड़नी 

देवलोक में अंगड़ाई ले लगे जागने सारे पूजित
कालिन्दी हो रही आतुरा बालकृष्णन के चरण चूमने
सजे अयोध्या के गलियारे दीप पुष्प की ले मालाएँ
लंका विजय प्राप्त कर आते रघु-सीता के साथ झूम लें

उल्लासों की गागर रह रह छलक रही है है ज़हर से ही
धारावाहिक व्यस्त होने लाह है लगे इंदूर की थिरकने 

राकेश खंडेलवाल
अगस्त २०२३ 

दीपक तामस से लैड रहा है


संस्कृति का अंकुरण तो जन्मभूमि ने किया था 

कर्मभूमि ने उन्हें देकर सहारा कुछ निखारा 
धुंध में खोये हुए अस्तित्व को पहचान देकर 
इक अनूठे शिल्प की अनमोल कृति देकर संवारा  


यह  पथिक विश्वास वह   लेकर चला  अपनी डगर पर
साथ में जिसको लिए दीपक तमस  से लड़ रहा है

ज़िंदगी के इस सफ़र में मंज़िलें निश्चित  नहीं थी 
एक था संकल्प पथ में हर निमिष गतिमान रहना
जाल तो अवरोध फैलाये हुए हर मोड़ पर थे 
संयमित रहते हुए बस लक्ष्य को था  केंद्र रखना

कर्म का प्रतिफल मिला इस भूमि पर हर इक दिशा से 
सूर्य का पथ पालता कर्तव्य अपना बढ़ रहा है

चिह्न जितने सफलता के  देखते अपने सफ़र में
छोड कर वे हैं गए निर्माण जो yकरते दिशा का
चीर पर्वत घाटियों को, लांघ कर नदिया, वनों को
रास्ता करते गए  आसान पथ की यात्रा का

सामने देखो क्षितिज के पार भी बिखरे गगन पर
धनक उनके चित्र में ही रंग अद्भुत भर रहा है 

अनुसरण करना किसी की पग तली की  छाप का या
आप अपने पाँव के  ही चिह्न सिकता पर बनाना
पृष्ठ खोले ज़िंदगी में नित किसी अन्वेषणा के 
या घटे इतिहास की गाथाओं को ही दोहराना 

आज चुनना है विकल्पों में इसी बस एक को ही
सामने फ़ैला हुआ यह पथ, प्रतीक्षा कर रहा है धुंध में खोये हुए अस्तित्व को पहचान देकर 
इक अनूठे शिल्प की अनमोल कृति देकर संवारा  


यह  पथिक विश्वास वह   लेकर चला  अपनी डगर पर
साथ में जिसको लिए दीपक तमस  से लड़ रहा है

ज़िंदगी के इस सफ़र में मंज़िलें निश्चित  नहीं थी 
एक था संकल्प पथ में हर निमिष गतिमान रहना
जाल तो अवरोध फैलाये हुए हर मोड़ पर थे 
संयमित रहते हुए बस लक्ष्य को था  केंद्र रखना

कर्म का प्रतिफल मिला इस भूमि पर हर इक दिशा से 
सूर्य का पथ  पालता  कर्तव्य  अपना   बढ़ रहा है

चिह्न जितने सफलता के  देखते अपने सफ़र में
छोड कर वे हैं गए निर्माण जो yकरते दिशा का
चीर पर्वत घाटियों को, लांघ कर नदिया, वनों को
रास्ता करते गए  आसान पथ की यात्रा का

सामने देखो क्षितिज के पार भी बिखरे गगन पर
धनक उनके चित्र में ही रंग अद्भुत भर रहा है 

अनुसरण करना किसी की पग तली की  छाप का या
आप अपने पाँव के  ही चिह्न सिकता पर बनाना
पृष्ठ खोले ज़िंदगी में नित किसी अन्वेषणा के 
या घटे इतिहास की गाथाओं को ही दोहराना 

आज चुनना है विकल्पों में इसी बस एक को ही
सामने फ़ैला हुआ यह पथ, प्रतीक्षा कर रहा है

मन की कस्तूरिया

 मन की कस्तूरियाँ गंध को घोलती

झालती में हवा को उड़ाने लगी
कोई संदेश ऋतु का मिला तो नहीं
वाटिका में कली मुस्कुराने लगी 

आतुरा हो गईं पुष्प की पाटालें 
देव के पाँव जाकर तनिक चूम लें 
आस की कोंपलें प्रस्फुटित हो रही
हार बन ईश के वक्ष पर झूम लें
साथ रोली ओ’ अक्षत के पूजा करें
धूप दीपक की ज्योति जगाते हर
अपने जीवन समर्पित करें मूर्ति को
आस्था में निपट आत्ममुग्धा  हुए 

तनमें संचार करती धुनें, बांसुरी
रोम में, पोर में झनझनाने लगीं

कंठ से गूंजती आरती के सबद
घंटियों के स्वरों से जुड़े ताल में
नृत्य करती हुई वर्तिकाएँ रही
इक सजे वंदना के लिए थाल में 
धूम्र बन कर उड़ी हैं अगरबत्तियाँ 
व्योम में  बादलों से लगा होड़  सी
तेज होतीं हुई यज्ञ कुंडेल लपट 
लेते अंगड़ाई जैसे सहज हो गई 

आहुति आँजती मंत्रके बोल आ
कर सजे थरथराते हुए 

 चल पड़ी होके बसंतीया इक घाटा
नृत्य करती हुई व्योम के गाँव से 
पट्टियों की गली से गुजर आ गयी 
करती विश्राम कुछ पीपली छाँह में
झील में अपने प्रात बिंब को देखकर
रूप पर अपने ख़ुद ही लजाते हुए
छेड़ती जलतर्गों की कोमल धुनें
खोल अपने आधार कंपकंपाती हुए


हर दिशा में बजी बीन आ नारदी
देव कन्याएँ आ गीत गाने लगीं 

राकेश खंडेलवाल
अगस्त 2023 




गीत बन मेरे अधर पर

 गीत बन मेरे अधर पर 



शब्द जो ख़ुद ही सँवरते गीत बेन मेरे अधर पर

हो गये मुझसे अपरिचित आज क्यों? कोई बताये 

व्याकरण की  वीथियों में ले प्रतीक्षा साथ अपने
कुछ कहारी  अक्षरों के रह गए  मज़बूत कंधे 
बैठ ना पाई मगर उपमाओं से शृंगारि करके
शब्द की दुल्हन, रहे सारे अलंकण भी अधूरे 

अल्पना दहलीज़ की पर, पार कर पाया अलकटक
खींच लेता कौन वापिस कोई तो मुझको बताये 

 थी तनी कदली तानो पर व्यंजना की एक चादर
लक्षण ने थे रचे बूटे हथेली में हिना के 
गूंजती शहनाई ने छेडी  विदाई की धुनें पर
पाँव बांधे ही रहे सब दायरे वर्जना 

साध की कलियाँ झाड़ो हैं नींद खुलने से प्रथम जीm
कर रही है उम्र क्यों षड्यंत्र, कोई यह बताये 

छंद दोहे सोरठे  के नेत्र उत्सुकता भरे थे
अंतरों की देह पर इक चाँद का मुखड़ा सही आ
तार सप्तक के सभी स्वर, साथ आतुरा ही रह गए थे 
स्पर्श पा कर उँगलियप्न का राग ख़ुद ही बज उठेगा

पर निराशा की  घनी झंझाएँ कैसे उठ गई हैं
इन बहारों की ऋतु में, कोई यह मुझको बताये 


चेतना जी कन्दराओं में



चेतना की गहन कन्दरा में छिपी
मेरी अनुभूतियाँ छटपटाती रहीं
और अभिव्यक्तियाँ बंध गईं बांध में
तोड़ कर बह सकें, कसमसाती रही

शब्द जो भी उठा ले के अँगड़ाइयाँ 
व्याकरण की गली में भटक खो गया 
होंठ पर चढ़ न पाया सुरों में सजा
अश्रुओं में ढला, मौन ही तो गया 
कौन सारे गँवा एक रेखा बना
जो धराशायी होकर गिरी सामने
भावना कक्ष में बंद बैठी रही
आई बाहर नहीं, शब्द को थामने 

सरगमों की डगर निर्जनी ही रही
बीन तारीं को बस  फुसफुसाते रही 

छंद की हर लड़ी अब बिखर रह गई
बोल कर सजने में है कहाँ फ़ायदा
कोई पढ़ता समझता नहीं आज कल
क्या नियम हैं,कहाँ रह गया क़ायदा 
मात्राओं की गणना अधूरी रही
कोई। भी संतुलन पूर्ण हो न सका
गिट के नाम पर जो परोसा गया
काव्य के आकलन पर अधूरा रहा

लिखनी हाथ थोड़ी पे अपने रखे
पृष्ठ को देख कर बुदबुदाती रही 

अंतरे  सर्प की लुंडली से हुए
लोई भी तो सिरा न मिला टेक से 
क्रम तो टूटा शुरुआत से पूर्व ही 
शेष हो रएच गये गया वे ही अतिरेक थे 
मृत्तिका थी, कुशल शिल्प था पास में
चाक पर किंतु दीपक बना ही नहीं 
कातते पूनियाँ थक रटीं उँगलियाँ
बस्तियाँ एक भी तो संवारती नहीं

स्नेह में डूब कर रोशनी कर सके 
वर्तिका स्वप्न ले तिलमिलाती रही 

राकेश खंडेलवाल 
जुलाई २०२३ 



जुलाई २०२३ 



भोर का हटाने लगा है आवरण

 भोर का आवरण 




छँट गया तम मवासी अब व्योम से 
भोर का हटने लगा है आवरण 

गूंजती है  मंदिरों में आरती
साथ में ले बज रही कुछ घंटियाँ
रश्मियों का कर रहे स्वागत पुनः 
कर्ष के द्वारा, खुली है खिड़कियाँ 

भर रहा उल्लास से फिर आज मन
इक नए संकल्प का ले आचमन 

धार नादिया की टाटी पर छेड़ती
जलतरंगों की मदिर मोहक धुनें
झाड़ियाँ लहरा रही है तीर पर
राग सरगम के नये से जब सुनें

मुस्कराने लग गया वातावरण
मौसमों ने आज बदला आचरण 

 हैंड ख़ुद ही अब संवारने लग गये
अंतरे भी आप बनाने लग गये
शब्द अपने आप माला में जिंथे
और मुखड़े  आ निखारने लग गये 

आँजने भाषा लगी है व्याकरण
भोर का हटाने लगा हैनेड लगा है आवारा  

राकेश खंडेलवाल
२६ अप्रैल २०२३ 










काल की हाट में

 काल की हाट में 


काल की हाट में मिल  किसी बिना
साँस दो कौड़ियों में ही बिकती रही 

नभ में चंदा उगाते उमर ढल गई
दीप में राग गाते जवानी गली
एक पथे को बुहारा,  भुजाएँ थकी
साथ मन रही आस इक अधखिलीढ
साँझ। के गाहफबका रास्ता 
रोज़ जी   ज़िंदगी जू दुपहरिया केटी
करते तुड़ोआई साँसों के धसागे चुके
किंतु प्राणों की चादर रही  रही है गति

बस इसी एक ऊहापोह में में उलझ
प्राण की ज्योति दिन रात जलती रही

जब भी देखा है दर्पण, रहा मौन वह
प्रश्न पर प्रश्न पूछे गया बिंब भी
अजनबी अपना प्रतिबिंब लगता रहा
यों ही ढलती रही आँजनी धूप भी
ढूँढ बरसा कड़ी व्योम से हर घड़ी
हाथ को हाथ भी न सुझाई दिया
आँख को उँगलियाँ तो मसलती रही
दृश्य कोई न लेकिन दिखाई दिया

बस यही हाल कल भी रहेगा यहाँ
ये ही कह कर घड़ी एक चलती रही

क्या लिखा है हथेली की रेखाओं में
ज्योतिषी कोई ये बूझ पाया नहीं
इस भुलाइया से निकले कोई किस तरह
साँस खर्ची मगर सूझ पाया नहीं
मंदिरों की ही दीवानियों में सिमट
घंटियाँ थी बजी मौन होने लगी
खो गई रात में चाँद की रोशनी
ज्योति तारों की भी गौण गो री रह गई

मुट्ठियाँ यों खुली, धड़कनों डोरियाँ
उँगलियों से निरंतर कर फिसलती रही

राकेश खंडेलवाल
१६ अप्रैल २०२३ 
 


धागा जो था तकलियों पर कता

 ढल रही साँझ इस ज़िंदगी की यहाँ

डूब जाएगा कब सूर्य क्या है पता

कोष साँसों का होता रहा रात दिन
खर्च, बाक़ी है जो उँगलियों पर गिनी
धड़कनें शेष दिल की जो बाक़ी रही
क्या विदित है समय ने वो कितनी चुनी
बिंब बन कर रहे आज चलचित्र से
काल के क्षण जिनको जिया हम किए
याद फिर आ रहे सारे अनुबंध वे
राह चलते हुए हमने किए 

टूट कर गाँठ बन कर के जुड़ता रहा
एक धागा जो था तकलियों पर कता

इक लहर नभ की मंदाकिनी से उठी
पास अपने हमें अब बुलाने लगी
पालकी हर घड़ी दूर होकर खड़ी
देख कर हमें खिलखिलाने लगी
जन्मपत्री के भटके ग्रहों की दिशा
पंथ में ठोकरें खाती चलती रही
जोड़ बाक़ी गुणा भाग के ही गणित
में, बची साँस जाकर उलझने लगी 

रिक्त हो जाएँगीं पूनियाँ पास की
भोर उग कर जागेगी जो कल आ यहाँ 

जाकर किससे करें शिकायत

 

धूप चमकती है पूरे दिन
टँका समय अलगनियों पर
किससे जाकर करें शिकायत
मौसम की रंगरेलियों पर 

गर्म हवा के झोंके ख़सर
सुख रहे पत्ते सारे
पूरी बगिया पर छाते हैं 
बस पतझड़ के अंधियारे 

एक शुषाक्तता घिरती है
खिलने से पहले कलियों पर
किससे जाकर करें शिकायत
मौसम की रंगरेलियों पर

निर्जल हुई भाव की नदिया
शब्द नहीं अब ढल पाते
स्वर घुट कर रह गये कंठ में
गीत भला कैसे गाते 

बस अवसाद गिरा है आकर
मन की गितांजलियों पर
सुन पाएगा कौन शिकायत
मौसम की रंगरालों पर 

दिन के उगते उगत छाते
अस्ताचल के अंधियारे
घने तिमिर में लिपटे रहते
घर आँगन और चौबारे 

एक कटोरा भरी अमावस
बरसी आकर गलियों पर
सुन पाया है कौन शिकायत
मौसम की रंगरेलियों पर 

राकेश खंडेलवाल 
अप्रैल #२०२३


आवंटित जीवन की पूँजी

  अपने विश्वासों को थोड़ा आज सत्य पर पटाखा, जाना चमक धमक के पीछे केवल एक शून्य है केवल काला महाम्रुत्युज्य मंत्र जाप तुम चाहे सप्त कोटि कर ड...