भोर का आवरण
गीत कलश
काव्य का व्याकरण मैने जाना नहीं छंद आकर स्वयं ही संवरते गये
भोर का हटाने लगा है आवरण
काल की हाट में
काल की हाट में
धागा जो था तकलियों पर कता
ढल रही साँझ इस ज़िंदगी की यहाँ
जाकर किससे करें शिकायत
कौन है आवाज़ देता
कौन है आवाज़ देता द्वार खोले
शून्य में डूबा वर्तमान
आज वापिस लौट आया
क्या पता किस जन्म का था पुण्य कोई भी बकाया
अंत के द्वारे गया पर खटखटा कर लौट आया
है विदित इतना न रह पाया कोई न रह सकेगा
नयन आगत के सपन हर रोज़ लेकिन आँजता है
जानता हर क्षण निरंतर घट रहा है संचयों से
साँस के घट को सहज ही रोज़ रह रह माँजता है
क्या पता दिन आख़िरी हो कौन सा जो नित उगाया
आज वापिस खटखटा कर द्वार को मैं लौट आया
ज़िंदगानी की डगर पर कब उठे अवरोध कोई
कौन कंकड़ शैल बन कर पंथ को किस और मोडे
रिस रहे घट से सभी कुछ खर्च होता जा रहा है
है असंभव कोई इसमें आज लाये और जोड़े
आज तो मोहलत जरा सी देर की मैं माँग लाया
खटखटा कर आख़िरी द्वारा अभी मैं लौट आया
आज जो है वह कभी कल भी रहेगा कौन बोले
पृष्ठ तो इतिहास के हैं अब खुले बाँहें पसारे
जान न पाये किसंध्या आख़िरी कब आ ढालेगी
और कल न पालक खोले भोर जब आकर पुकारे
आज लिख लूँ शब्द जिनको मैं अभी तक लिख न पाता
द्वार अंतिम खटाकर्टा कर आज तो हूँ लौर आया
कोई भी गंध नहीं उमड़ी
कोई भी गंध नहीं उमड़ी
साँसों की डोरमें हमने, नित गूँथे गजरे बेलकर
लेकिन रजनी की बाहों में कोई भी गंध नहीं साँवरी
नयनों में आंज गई सपने
जितने, संध्या ढलते ढलते
उषा के पाथ पर बिखर गए
घुटनों पर ही। जलते चलते
पलकों की कोरों का सूनापन
कोई संतोष न पाया
फिसले असहाय तलहटी में
हर बार संभल, उठते गिरते
बादल ने छान चाँदनी से, हर घड़ी सुधा घट बरसाये
लेकिन प्राणों की तृष्णा पर, बन कर मकरंद नहीं बिखरी
जार रोज़ क़तारों में बोई
तुलसी की हमने मंजरियाँ
आशा थी खील कर आएँगी
कुछ मनुहारों की पंखरियाँ
वासंतिक ऋतु ने पर भेजे
पतझड़ के ही किंतु झकोरे
रही देखती सूनी नज़रें
बिखरे हुए आस के डोरे
क्यारी ने गिरते पत्रों को अंक लगा, चूमा, दुलराया
किंतु बहारों के चुम्बन बिन, कोई भी रसगंध न निखरी
विश्वास हमारा चला गया
बस अपने ही भोलेपन से
बदला प्रतिबिम्ब हमारा ही
पाया जो अपने दर्पण से
सुधियों के गलियारों में
कोई आवाज़ नहीं गूंजे
सुनसान अंधेरी राहों में
हाथों को हाथ नहीं सूझे
रहीं लक्षणा आर व्यंजना,ऊँगली थाम रखे शब्दों की
किंतु अधर की सरगम छूकर, बन गीतों के छंदन बिखरी
राकेश खंडेलवाल
जानकारी २०२३
अर्ध निशा में
अर्ध निशा मेंपूनम का चाँद अचरज में डूबा डूबा पूछ रहा है
किसने आकर अर्ध निशा में इंद्रधनुष के रंग बिखेरे
किसके अधरों की रंगत आ प्राची के आँगन रचती है
सिंदूरी कपोल ने किसे खींची रचती परिपूर्ण अल्पना
कौन नयन की सुरमई से करता है आकाश बेमानी
स्याम हरित किसकी परछाई उड़ा रही है नई कल्पना
किसकी छवि आ घोल रही है धवल चाँदनी में ला केसर
गंधों के बादल किसको छू दिशा दिशा में आकर उमड़े
किसकी त्रीबली की हिलोर से नभ गंगा में उठटी लगाईं
पारिजात के फूल हज़ारों आज खिले नभ की गलियों में
कौन सप्त ऋषीयों के ताप को खंडित करता बिन प्रयास के
किसकी साँसें नव यौवन संचार कर रही हैं कलियों मे
किसकी करें प्रतीक्षा वातायन में आ उर्वशी मेनका
किसके स्वप्न चित्रलेखा की रंभा की आँखों में साँवरे
राकेश खंडेलवाल
जनवरी २०२३
जहाँ महकती रजनीगंधा
जहाँ महकती रजनीगंधा
रजनीगंधा जहां महकती, दूर हुई है वे
यादों के विषधड़ आ आ करते हैं दंशों से घायल
नागफनी के पौधे उग कर घ्रेर रहे हैं मन की सीमा
विषमय एकाकीपन करता है धड़कन की गाती को भी धीमा
सन्नाटे में साँझ सकारे और अलसती दोपहरी में
सीख चुका है जीवन अब यह सुधा मान कर आंसू पीना
सुधियों की पुस्तक के पन्ने आज हुए हैं सारे धूमिल
सिर्फ़ एक आभास सरीखा लहराता रेशम का आँचल
है अजीब ये सारी दुनिया, देख किसी की पीड़ा हंसती
भूली टूटे आइने से भी रूपसीं की छवि दमकती
मेघों के आडम्बर करते पूरे नभ को भी आवछादित
चीर कुहासों के घेरे को चंद्र किरण की विभा चमकती
दुनिया भर के चाहतों पर बिंब खींचे हैं छलनाओं के
अधरों पर वेदना मौन है, नयनों में में पीड़ा काजल
अस्थिर है ईमान, बिक रही चौराहों पर नैतिकताएँ
प्रतिबंधों से घिरी हुई है सत्य प्रेम की सब सीमाएँ
नजरों के तीरों से बींध कर, मौन रही पाँवों की पायल
रिसती हुई पीर के पल ही द्वारा को आकर खड़काएँ
मन है खुला अवंतिका के आगे जैसा, वैसा पीछे भी
अधरों पर जलती है तृष्णा जलती है और हाथ में रीती छागल
राकेश खंडेलवाल
८ कँवरियों २०२३
भोर का हटाने लगा है आवरण
भोर का आवरण छँट गया तम मवासी अब व्योम से भोर का हटने लगा है आवरण गूंजती है मंदिरों में आरती साथ में ले बज रही कुछ घंटियाँ रश्मियों का क...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
भोजपत्र पर लिखी कथाए भावुक मन का मृदु संवेदन दिनकर का उर्वश -पुरू के रूप प्रेम में डूबा लेखन काव्य “ उर्मिला ” मुझे गुप्त की पीड़ा का नि...
-
शब्द कबूतर के पंखों पर बैठ गगन में उड़ते फिरते सम्भव नहीं कलम पर आकर उनका गीतों में ढल जाना उड़े हृदय के तलघर से जब भाव बदलियोंकी स...