विदा २०२३ एक कहानी को दुहराते
ओ विरह की ठुमरी गाते
सुधि के धुंधले पृष्ठ और आ
एक पुस्तक में जुड़ते जाते
मुट्ठी से रिस रहे सामय ने मन को प्रतिपाल यहाँ छला है
कोर भी संदेश न आया
द्वार लूजर ने न खड़काया
और डाकिया के कदमों को
घर का पाथ भी चूम न पाया
ये सब अपना ही बोया है ढली उम्र में आम ढाला है
मेरा अब भी मित्र एम कोई
मन में बाक़ी चित्र न कोई
संध्या करे महकमा दे आकर
शेष कोई भी इत्र नहीं कोई
बरस गुजराती डरते डरते, मेरा मोम में हाथ कला है
राकेश खंडेलवाल
दिसंबर २०२३
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