गाऊँ कैसा गीत

 

गाऊँ कैसा गीत अधर पर जो आकर सुर में ढल जाए 
शब्द शब्द छंदों की माला में आकर खुद ही जुड़ जाए 

भावों के अवगूँठन सारे
एक एक कर खुलते जाएँ 
खुली किताबों जैसे उनको
बिन कोशिश सब ही पढ़ पाएँ 
use 
अभिव्यक्ति के वातायन से पंख पसारें झट उड़ जाए
गाऊँ कैसा गीत तुम्हारे मन से जो जाकर जुड़ जाए 

अक्षर अक्षर शहद उँडेले
आतुर अधर रहे गाने को
सहज गंध सा बहे हवा में
शेष न कुछ हो समझाने को 

सरगम के सुर आतुर होकर स्वयं राग बोकर भर जाएँ
गाउन कैसे गीत, सभी जो मेरे संग मिल मिल कर गाएँ 

घिसे पिटे बिम्बो का जिसमें
कोई भी आभास नहीं हो
सब के ही मन को भा जाए
चाहे कुछ भी ख़ास नहीं हो 

दूर क्षितिज की सीमाओं के परे और विस्तृत हो जाएँ
गाऊँ कैसे गीत ? की जिनसे वाद्य स्वयं झंकृत हो जाएँ 

हाल क्या कहें अपना

दिन तो गुजरा पल छिन गिनते

संध्या बीत गई एकाकी 
नींद चुरा ले गया नयन से एक अधूरा सपना
हाल कहें क्या अपना 

रहे बजाते बैल फ़ोन की
वहात्सेप्प संदेशे
ब्रेकिंग न्यूज़ रिमाइंडर
प्रतिपल  सी एन एन ने भेजे 
किस कोने में कहाँ घटी है कोई नूतन घटना 

हाल यही है अपना 

कैलेंडर था भरा रहा 
मीटिंग की लिस्ट बना कर 
इक रिपोर्ट को भेजा हमने
बीस बार दुहरा कर 
रहा शेष प्रिंटर पर जाकर उसका फिर भी छपना

हाल क्या कहें अपना 

शनि कट जाता एक ज़ूम की
खिड़की में जा रहते
रवि की सुबह गोष्ठी
संध्या सम्मेलन में पढ़ते
ढूँढ रहे हैं कहाँ समय है? जिसे कह सकें अपना 

यही हाल है अपना 






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पूनम की चन्दन

 

आज चाँदनी  यह पूनम की
 चंदन के रंगों को लेकर
केसर घुले दूध सी निखरी
नभ के कजरारे पन्ने पर

स्वर्णिम उषा भरी लाज से
हाथ किए सरसों ने पीले
किरणों के रथ पर सवार हो
आते रतिपति यहाँ छबीले

अमराई में बौरे आइ
पिकी कूक कर गीत सुनाती
कोंपल लेती है अंगड़ाई
कली अधर खोले मुस्कती

दहक़ गए सारे पलाश वन
पीली पगड़ी धान पहनता
अलसाई सोती नादिया में
फिर से जाग उठी चंचलता

राग बसंती लगा गूंजने
चंगों पर पड़ती है थापें
चौपालें बतियायी फिर से
बम लहरी के सुर आलापें

ब्रज के रसिया लगी सुनाने
मस्त मगन हरियारी टोली
सूखी शाख़ों का संयोजन
चौरस्ते पर बनता होली

मौसम ने उतार कर फेंका
अपना ओढ़ा अलसायापन
लगा जगाने तड़के दिन को
अब पाखी का मधुमय गायन

१५  फ़रवरी २०२२

ऐसा अपना प्यार नहीं है

 



चाकलेट हो हीरक मणियाँ, पुष्प, मुझे स्वीकार नहीं है
एक दिवस में जो हो सीमित, ऐसा अपना प्यार नहीं है

शतरूपे ! है प्यार हमारा एक धरोहर संस्कृतियों की
जिसको शाश्वत  रूप दिया है कच ने और देवयानी ने
नल-दमयंती ने मिलकर के फिर आयाम दिए  हैं नूतन
जगन्नाथ के साथ लवँगी की गाथा रहती वाणी पे

शब्दों में रह जाए संकुचित जो, ऐसा विस्तार नहीं है 
वेलेंटाइन डे तक ही हो, ऐसा अपना प्यार नहीं है

कलासाधिके! जन्मांतर के सम्बंधों की रीत हमारी 
जहाँ प्रीत की बाँसुरिया पर खनके सदा रूप की पायल
देती जहाँ निमंत्रण खुद चौहान पुत्र को राजकुमारी
उसी रीतिमय मर्यादा के सम्बंधों के हम तुम क़ायल 

मन के अनुबंधों को वाणी में बंधना दरकार नहीं है
आई लव यू में सिमट सके जो, मीत हमारा प्यार नहीं है 

बप्पादित्य और सोलंकी से शिव और सती की गाथा 
सुनो  सुनयने! कहाँ रही है चाकलेट बक्से पर निर्भर
रति अनंग से शाची पुरंदर के सम्बंधों को शिलालेख जो
करती रही, आत्मिक अनुबंधों की वह डोरी है सतवर

प्रीत अलौकिक औ है लौकिक, शब्दों का व्यवहार नहीं है
एक दिवस में सीमित रह ले   ऐसा अपना प्यार नहीं है 

वेलेंटाइन दिवस २०२२ 









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निशा दिन सोचता हूँ

 

पोंछता हूँ धुंध में डूबा हुआ चश्मा निरंतर
और धुंधली हो गई रेखाओं में कुछ 
खोजता हूँ 

परिचयों के तार जिनसे थे बंधे, रेखाएँ खोयी
और वे भी, जो निरंतर राह में निर्देश देतू 
ज़िंदगी के इस सफर में क्या मिले किस मोड़ पर आ
ढूंढता हूँ वे लकीरें जो मुझे सन्देश देती 

इन उलझते जा रहे ज्योतिष गणित के आंकड़ों को 
मैं घटा कर भाग देता फिर गुणा  कर जोड़ता हूँ 

खोजता हूँ हैं कहाँ पर खो गए अदृश्य धागे 
जो दिलों को बाँध कर सम्बंध कुछ नूतन बनाएँ
और जो अवरोह को आरोह की सीढ़ी चढ़ाकर
बन सकें सरगम नई , नव राग में फिर झनझनाएँ 

क्षेत्रफल में जो हथेली के  सिमट कर बँध  गई है 
दायरे की बंदिशें उनको निशा दिन तोड़ता हूँ 

खोजता हूँ मैं समय के सिंधु तट की रेतियों पर 
चिह्न जो देकर दिशा ले जा सकेंगे मंज़िलों पे 
खुर्दबीनी हो नजर फिर ढूंढती है मौक्त मणियाँ 
पर लहर बस ला रखे है शंख सीपी साहिलों पे 

ध्येय जो पाथेय का था, नीड तक क्या साथ देगा 
मैं उहापोही कुहासों में घिरा यह सोचता हूँ 








नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...