आदमी हम नही, झुनझुने हो गये
जिस तरह चाहे वैसे बजा लें हमें
हम हैं कठपुतलियां, जो बंधी डोर से
कर रहा है नियंत्रित कोई और है
नाचते हम उसी के इशारों तले
हम पे अपना नही सूत भर जोर है
मौलवी पादरी मंदिरों के गुरु
और पंडे हमारे हैं सर्वोपरी
दिन दुपहरी घिरे रात या सांझ हो
बस उन्ही की किये जा रहे चाकरी
वो जो चाहें रखें कर खड़ा धूप में
चाह हो, कुर्सियों पर बिठा लें हमे
सोच अपनी हमारी नही है तनिक
अपना मस्तिष्क तो शून्य से है भरा
जंतरों मन्तरों गंडे ताबीज से
है हुआ ये चमन ज़िन्दगी का हरा
सारे नक्षत्र गुरुओं की अंटी में है
जिन चुड़ैलों को बस में किये मौलवी
चुटकियों में अघोरी की नक्शे छुपे
भेंट बलिदान से मिल सकेंगे अभी
हम करेंगे हकीकत समझ अनुसरण
स्वप्न कैसा भी कोई दिखा दे हमें
राजनीतिक गडरिये हमें हांकते
हम चले जा रहे झुंड में भेड़ से
सब्ज चश्मे चढ़ाये हुये आंख पर
हम खडे रह गये है बंधे पेड़ से
दिन बदलते रहे रात ढलती रही
हम जहां से चले हैं अभी तक वहीं
जानते है कि बदलाव सम्भव नही
बस दिवास्वप्न की चूसते रसभरी
शीश नत कर खड़े हम समर्पित हुए
आप भी चाहें, उल्लू बना दें हमें