चलने का निश्चय



न तो था पाथेय साथ में
न ही कहीं नीड़ भी था तय
एक पंथ. इक मन यायावर
और एक चलने का निश्चय 

कितनी बार उगे सम्बन्धों के बबूल इस चुनी राह में 
कितनी बार भरे सौगंधों के कीकर आ खुली बाँह में
कितनी बार जेठिया मरुथल की झंझा ने आकर घेरा
कितनी बार सूर्य उगने से पहले ही ढल गया सवेरा 

फिर भी पग-गति की धाराएँ
बहती थी निर्बंध निरंतर
और समय की समिधा पाकर
अनुशठान चलता हो निर्भय 

पथ पर आ घिरते सावन में भीग गई रंगीन हथेली 
उगती दूरी अंतरंग थी, बिरहा की हमराह सहेली
पतझड़ छाए बहारें आयी पर राहों  का रंग न बदला
विदा मिलन की बेलनों में साथ चला बस आंसू उजला

मोड़ों ने नित कपड़े बदले
किंतु आचरण रहा एक ही
बदला नहीं अंश भर भी वह
जो था संस्कृतियों का संचय 

पग पग मिली हताशाओं ने आहुतियाँ दी गति के तप में 
थकन साँझ की बनी ऊर्जा प्रेरित किए हर घड़ी पथ में 
नयनों ने पड़ाव का सपना एक बार भी नहीं सजाया
अनदेखी मंज़िल के आमंत्रण ने ही फिर फिर दुलराया 

मंज़िल रही सामने आकर
पथ की सहचर सिकताओं में 
हर पदचिह्न एक मंज़िल है
इसमें शेष न कोई संशय 








कल जहां से लौट आए

 


कल जहाँ से लौट कर हम आ गए सब कुछ भुला कर
आज फिर से याद की वे पुस्तकें खुलने लगी हैं 

फिर लगी है तैरने इस साँझ में धुन बाँसुरी की 
भग्न मंदिर में जला कर रख गया है दीप कोई 
पनघटों की राह पर झंकारती है पैंजनी फिर 
पीपलों की छाँह में फिर जागती चौपाल सोई

कल जहाँ से लौट कर हम आ गए, सूनी कुटी वह
गूँजते शहनाई स्वर के साथ फिर सजने लगी है 

तीर पर सरिताओ के होने लगा फिर सूर्य वंदन 
भोर में फिर गीत गूँजे है प्रभाती के स्वरों में
गुरुकुलों में शंख गूँजे है पुनः संदीपनो के 
आरती होने लागी है सांझ की फिर मंदिरों में  

कल जहाँ से लौट आईं आहुति की मंत्र ध्वनियाँ 
आज फिर से उस जगह पर  आस्था जगने लगी  है 

कल जहां से लौट आये  गीत-कविता ले निराशा 
देख मंचों पर विदूषक, हाथ में कासा संभाले 
आज फिर से हो रही जीवंत भाषा की धरोहर 
काव्य में होने लगे, साकेत-दिनकर के हवाले

कल जहां थे हाशियों पर शब्द शिल्पी मौन साधे
आज फिर से लेखनी नूतन सृजन करने लगी है 









फिर भी तो भीख किनारों की

 


किश्ती हो चाहे काग़ज़ की  झंझाओं के फ़न फैले हों 
फिर भी तो भीख किनारों की करता  निश्चय स्वीकार नहीं 

अपनी क्षमता पर पूर्ण रूप
विश्वास हमें अपना दृढ़ है 
जो भी संकल्प लिया हमने 
वह अडिग, अटल औ अक्षय है 

पावस मावस की रातें हों, तम का विस्तार बढ़े पल पल 
फिर भी तो भीख उजालों की , यह मन करता स्वीकार नहीं 

टूटा हो सुधियों का दर्पण
किरचों किरचो में खंड खंड 
आगत परप्रश्न चिह्न  बैठे
हो बुझा बुझा सा मार्तंड 

एकांत विजन से टकरा कर हों रही लौटती प्रतिध्वनियाँ 
फिर भी तो भीख मिली सरगम, भर्ती मन में झंकार नहीं 

चंदन के दीप जलें पूजा
के पहले ही बुझ जाते हों
आराति के पहले सभी मंत्र
होंठो में चुप हो जाते हों

आहुति देने के पहले ही यज्ञाग्नि शांत हो बुझ जाए
अपना है स्वाभिमान करता भीखें वर की स्वीकार नहीं 

राकेश खंडेलवाल

आपकीटिप्पणी

ju सुनो. अँधेरे का अपराधी केवल नहीं तिमिर ही होता वह दीपक की लौ भी तम को जो प्रकाश में बदल न पाए बिना बात की गई प्रशंसा , है गतिरोध सफल लेखन का जो सिरजन की प्रगति पंथ में रोड़ा बन कर इ अटकाए चंद निरर्थक टिप्पणियों से बेहतर है चुप ही रह जाना जो न करो स्वीकार इसे तो क्या है तर्क उसे बतलाना है शत सहस स्वीकृतियों से अधिक एक वह पंक्ति बताए कहाँ दोष है और कहाँ पर भाव न हो पाए सम्प्रेषित वह ही प्रश्नचिह्न रचना पर, बना प्रेरणा कलाकार को नई दिशा का पंथ ढूँढते को करता वह ही उत्प्रेरित फ़ेसबुकी शिष्टाचारों का है अनुसरण व्यर्थ यह मानो शब्द। भाव जब समझ न आएँ तो बेहतर है चुप ही रह जाना राकेश खंडेलवाल अप्रेल २०२२ Sent from my iPad

जलेबी नाम है इसका

 

जलेबी नाम है इसका 
नए सम्वत् की अगवानी में मधुरता घोल लेने को
चुना रसपूर्ण यह व्यंजन, जलेबी। नाम है इसका 

किताब- अल- ताबिकी भी नहीं बतला सकी गाथा
जलाबिया यह जुलूबिया यह ,यह मैदा की ये मावे की
ये तुर्की है या अरबी है या है यह फ़ारसी छोड़ो
मुग़लिया सल्तनत लाई, नहीं यह बात दावे की

कभी चौकोर होती है कभी आयत  कभी गोला
सभी आकार इसके हैं जलेबी नाम हाँ इसका 

गई लंका तो ये पानी वलालू नाम रख लाई 
गई नेपाल तो यह फिर सुखद जेरी मिठाई थी 
गई इंदौर तो इसने नया इक रूप था पाया
किलो में तीन, हलवाई ने भट्टी पर बनाई थी 

उड़द की दाल की भी है, है खोया की,पनीरी भी 
बना लो जिस तरह चाहो, जलेबी नाम है इसका

इमारती की है दादी ये, है बालूशाही की नानी 
कभी  बढ़ते वजन लेकर कही जाती जलेबा भी 
कचौड़ी और आलू को लिए जब मेज़ पर आइ
तभी सम्पूर्ण हो पाया सुबह वाला कलेवा। भी

कभी है साथ पोहे का कहीं है दूध रबड़ी का
चनारज़ुल्पी कहो चाहे, जलेबी नाम है इसका



जलेबी- अनुभूति के जलेबी विशेषांक men

मंडवे तल की गाँठ रसभरीहोती. हमको गया बतायाकितना होता बिन अनुभव केकोई उसे समझ ना पाया आज खुला रस ग्रंथ सामनेतब यह भेद खुला है पूराअवगुंठित कैसे होता रसइसे जलेबी ने समझायागरमागरम निकल कर आइडुबकी लगा चाशनी में जबहोठों पर पहला चुम्बन वहरसना ने अनुभूत किया तबकितने प्रश्न उठ गए सम्मुखकैसे काया एक छरहरी अंग अंग में में रस के झरनेछलकाती यह देह सुनहरी इस गुत्थी में उलझ गया मन समाधान पर मिल ना पायामैदा पानी दही और इकनीबू का रस, स्वाद विहीनाजल में घुली हुई शक्कर नेथोड़ा सा मीठापन दीना लेकिन सम्मिश्रण इन सबकाकलाकार की कोन तूलिकासे बिखरा इक गरम तई परनए रसों की लिखी भूमिकाअन्य सभी मिष्ठान उपेक्षित हुए,जलेबी ने ललचाया हुई सुबह जब बिरज धाम में हलवाई भट्टी सुलगाएसबसे पहले चढ़ा कढ़ाईसिर्फ़ जलेबी गरम बनाएकुल्हड़ भरे दूध के संग मेंएक पाव भर लिए जलेबीखाकर करते शुरू दिवस कोबनिया, धुनिया और पांडे जी। रस से शुरू अंत रस ही परयही जलेबी की है माया 

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...