लेकिन सम्भव नहीं

बात तुम्हारी आज मानकर लिख तो दूँ मैं एक कहानी
लेकिन सम्भव नहीं अधूरे पल सब, इसमें समा सकेंगे

जीवन के इस रंगमंच पर आधी प्रस्तुत हुई कहानी
रही पटकथा और कथानक और सभी संवाद अधूरे
वक्त मदारी बना खड़ा था मुख्य पात्र बन रंगमंच का
और रहे हम सदा पार्श्व में हाँ हाँ करते हुये जम्हूरे

बात तुम्हारी आज मान कर कर तो दूँ मैं पूर्ण पटकथा
लेकिन सम्भव नहीं पार्श्व के पात्र कथानक निभा सकेंगे

इस जीवन की ब्रह्लवेल का पाँव जला मंत्रित दीपों से
दोपहरी फैलाया करती अंगनाइ में लाकर मरुथल
असमंजस में रही डूबती उतराती संध्या सुरमाई
और अधखुली आँखो से थी निशा बहाती रहती काजल

बात तुम्हारी आज मान कर तो दूँ श्रन्गार सभी का
लेकिन सम्भव नहीं हाथ की रेखा ये सब मिटा सकेंगे

वही पिघल कर वे रातें जो स्वाद उजाले का देती थीं
दुर्गम राहे सोख चुकी हैं तरल स्वप्न सब अंजलियों के
टुकड़े टुकड़े गिरी चाँदनी से गीला करते अधरो को
ठोकर खाते हुए मुसाफ़िर हम है पथरीली गलियों के

बात तुम्हारी आज मान कर अपनी डगर बदल तो लूँ मैं
लेकिन सम्भव नहीं फूल फिर चिह्न मील के उगा सकेंगे

देती भू पर मोती बिखेर

वह पुण्य शुभम स्वर्णिम काया
दे ओस कणों से, कदम बढ़ा
उगते शत पुष्प पंथ पर, वह
भू पर देती मोटी बिखेर

जब उगी भोर के विहग  वृंद
नभ पर अपने पर फैलाते
तब खोल क्षितिज के वातायन
गंधर्व नए सुर में गाते
सलिला की चपल लहरियों पर
बिखरें सोने के आभूषण
सहसा ही सरस सरस जाता
मन की वादी में वृंदावन

पारे की गतियाँ तरल लिए
बिखरी पर्वत पर, घाटी में
जिस ओर मुड़ी चलते चलते
देती रांगोली नव उकेर

भंगिमा नयन की जिधर मुड़े
लेती बहार आ अंगड़ाई
छेड़ा करता है पतझर भी
बस इक इंगित पर शहनाई
पूर्व,  पछुआ दक्किन, उत्तर
नाचे पैजानियाँ झंक़ा कर
जब करती एक इशारा वो
अपने कंगन को खनका कर

लहरातो धानी चूनर की
तूलिका उठाए हाथों में
वो खुले गगन के कैनवास पर
देती इंद्रधनुष चितेर्र

विधना के कर का प्रथम शिल्प
कल्पना भाव का वह संयोग
सम्पूर्ण अनंताकाशों पर
उसके जैसा न कहीं योग
वह रूप बदलती है पल पल
परिधान ओढ़ कर नए नए
वह प्रकृति एक है सुंदरतम
भारती सात्विकता हिए हिये

अंतरप्राणों की खोल दृष्टि
आयाम बिछाकर अंतहीन
वह शून्य तिमिर की वादी में
देती शत शत सूरज उजेर







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