देती भू पर मोती बिखेर

वह पुण्य शुभम स्वर्णिम काया
दे ओस कणों से, कदम बढ़ा
उगते शत पुष्प पंथ पर, वह
भू पर देती मोटी बिखेर

जब उगी भोर के विहग  वृंद
नभ पर अपने पर फैलाते
तब खोल क्षितिज के वातायन
गंधर्व नए सुर में गाते
सलिला की चपल लहरियों पर
बिखरें सोने के आभूषण
सहसा ही सरस सरस जाता
मन की वादी में वृंदावन

पारे की गतियाँ तरल लिए
बिखरी पर्वत पर, घाटी में
जिस ओर मुड़ी चलते चलते
देती रांगोली नव उकेर

भंगिमा नयन की जिधर मुड़े
लेती बहार आ अंगड़ाई
छेड़ा करता है पतझर भी
बस इक इंगित पर शहनाई
पूर्व,  पछुआ दक्किन, उत्तर
नाचे पैजानियाँ झंक़ा कर
जब करती एक इशारा वो
अपने कंगन को खनका कर

लहरातो धानी चूनर की
तूलिका उठाए हाथों में
वो खुले गगन के कैनवास पर
देती इंद्रधनुष चितेर्र

विधना के कर का प्रथम शिल्प
कल्पना भाव का वह संयोग
सम्पूर्ण अनंताकाशों पर
उसके जैसा न कहीं योग
वह रूप बदलती है पल पल
परिधान ओढ़ कर नए नए
वह प्रकृति एक है सुंदरतम
भारती सात्विकता हिए हिये

अंतरप्राणों की खोल दृष्टि
आयाम बिछाकर अंतहीन
वह शून्य तिमिर की वादी में
देती शत शत सूरज उजेर







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