जो खुला आकाश

जो खुला आकाश स्वर में है तुम्हारे ओ बटोही
देखना उस पर घिरें ना आ कहासे संशयों के

उग रहे कितने प्रभंजन हर दिशा की वीथियों में
राजनीति. धर्म, भाषा, जाती की चादर लपेटे
चक्रवातों से, उमड़ कर चाहते अस्तित्व घेरें
हो रहे आतुर , बवंडर साथ में अपने लपेटे

आज के इस दौर में स्वाधीन स्वर सुनता न कोई
सोच यह, पड़ने न देना अक्स अपने निश्चयों पे

जो खुला आकाश स्वर में है, धारा पर गूंजता है
सरगामे बारादरी पर हो खड़ी पथ को निहारें
एक उठती गूंज अद्भुत खुल रहे स्वर में बटोही
साथ उसके भाव के पाखी उड़ें बन कर क़तारें

लालसाएँ व्यूह रच कर दे रही आवाज़ तुमको
भेदना तुम जाल उनके नयन लेकर संजयों के 

ज़िंदगी है हमसफ़र दरवेश बन कर ओ बटोही
राह में गतिमान रहना है नियति उसकी तुम्हारी 
दूर रह कर बन्धनो से तुम रहो स्वच्छंद  नभ में 
फिर समय की चॉसरों पर जीत हो हर पल तुम्हारी 

ये खुला स्वर जो खुले आकाश में गुंजित रहा है 
वह उभरता नित रहेगा, साज में से निर्भयो के 

राकेश खंडेलवाल 

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