उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

कभी संध्या में जलते हैं किसी की याद के दीपक
कभी  विरहा में जलते हैं किसी के नाम के दीपक
कभी राहों के खंडहर में कभी इक भग्न मंदिर में
कोई आकर जला जाता किशन के राम के दीपक 
मगर जो राज राहों पर घिरे बादल अँधेरे के 
कोई भी  रख नहीं पाता उजाले को कोई दीपक 
चलो निश्चित करें हम आज, गहरा तम मिटा देंगे 
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे 

जले हैं कुमकमे अनगिन कहीं  बुर्जों  मूँडेरो पर
उधारी रोशनी लेकर, जली जो कर्ज ले ले कर  
कहीं से बल्ब आए हैं कहीं से ऊर्जा आई 
चुकाई क़ीमतें जितनी बहुत ज्यादा  हैं दुखदाई 
किसे मालूम लड़ पाएँ ये कितनी देर तक तम से
टिके बैसाखियों पर बोझ ये कितना उठा लेंगे
चलें लौटें जड़ों की ओर, हमें विश्वास है जिन पर
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे

बहत्तर वर्ष बीते हैं मनाते यूं ही दीवाली 
न खीलें हैं बताशे हैं रही फिर जेब भी खाली 
कहानी फिर सूनी वो ही, कि कल आ जाएगी लक्ष्मी 
बसन्ती दूज फिर होगी सुनहरे रंग की नवमी  
सजेगा रूप चौदस को, त्रयोदश लाए आभूषण 
खनकते पायलों - कंगन के सपने कितने पालेंगे 
चलें बस लौट घर अपने, वहीँ बीतेंगे अपने दिन 
उजाले के लिए मिट्टी के फिर दीपक जला लेंगे 

राकेश खंडेलवाल 



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