नयी सुबह के लिए

नयी सुबह के लिए निरंतर अकुलाती है निशिभर पलकें 
नयी सुबह के लिए किन्तु है संभव ना परिवर्तन कोई 

पीढ़ी दर पीढ़ी आशा के अंकुर बोये हैं क्यारी में 
नयी सुबह जब आएगी तो धूप अधिक चमकीली होगी 
तरल उष्णता की पुरबाई भर लेगी निज आलिंगन में
और पौंछ  देगी वह मोती  जिनसे आँखें गीली होंगी 

लेकिन प्राची ने जब जब भी खोला अपना द्वार हुलस कर 
आई भोर लड़खड़ाती सी,  हो न बरसों से ज्यों सोई  

कल के दिन जैसे ही लिख कर लाई इबारत। सुबह आज की 
कल आई  थी परसों वाला बिम्ब लिए,  तारीख़ बदल कर 
मौसम बदले, ऋतुए बदली , रहा सुबह का यही रवैया 
वासी थकन रही थी ओढ़े बस आ जाती थी मुँह धो कर 

बरसों से आश्वासन की परछाइयों की उंगली थामे 
रही हृदय की सभी  उमंगें  झूठे दिवास्वप्न में खोई 

नए वर्ष में नई सुबह के लिए  हाथ में लिए कटोरा 
अभिलाषाएँ मन्नत माँगा करीं देव के द्वारा जाकर 
बरसों से ख़ाली झोली को देख रहे मन को समझाती
पूर्व जन्म का संचय कुछ भी शेष न था , जो मिलता आकर 

नई सुबह के लिए  प्रतीक्षित कितने युग इतिहास बन गए 
हुई नहीं पर कभी अंकुरित, कितनी बार अपेक्षा बोई 

 

बस मधुघट रीते

दो अक्षर भी उतर न सँवरे कागज़ पर आकर
हाथों में लेखनी उठाये कितने दिन बीते

डांवाडोल  ह्रदय चुन पाया नहीं एक पगडंडी
जिन पर ले जाये वो अपने उद्गारों की डोली
चौरस्ते की भूलभुलैया में उलझे सारे पथ
अम्बर पर घिर रही घटा ने कोई न खिड़की खोली

शुभ शकुनों के लिये प्रतीक्षित नजरें ढूँढें पनघट
ढुलक रहे हैं पर हर पथ पर बस मधुघट रीते

हर अनुभूति  शब्द को छूने से पहले बिखरी
मन के राजघाट पर छाई गहरी खामोशी
अमराई से उठी न मन को छूने वाली कूकें
पुरबाई बैठी दम साधेजैसे हो दोषी

असमंजन में धनंजयी मन हो उत्सुक ताके
लेकिन श्याम अधर से झर कर बही नहीं गीते

सद्यस्नाता पल से टपकी बरखा की बून्दें
अलकों की अलगनियों पर आकर न ठहर पाई
सिमटी रही आवरण की सीमाओं के अंदर
छिटकी नहीं चन्द्रमा से मुट्ठी भर जुन्हाई

भेज न पाया सिन्धु भाव काआंजुरि भर स्याही
तृषित रह गई कलम आज फ़िरउगी प्यास पीते

जो ला​ई थी हवा उड़ाकर

आज वीथियों में गुलशन की चहलकदमियां करते करते 
मिला एक कागज़ का टुकड़ा जो ला​ई थी हवा उड़ाकर 

मैंने झुक कर उसे उठाया और ध्यान से उसको देखा 
अंकित थे कुछ धब्बे जैसे तितर बितर उसकी सीमा में 
मुझे लगा है शब्द अनलिखे फिसल गए हैं किसी कलम से 
काफी देर रहा मैं खोकर उनकी बिखराई  गरिमा में 

लगा मुझे है कविता वो इक जो कवि के अधरों पर उभरी 
लेकिन पूरी होते होते, हवा उड़ा ला​ई  अकुलाकर 

दूजे पल पर लगा पाँखुरी हैं वे कुछ कलियों की झरकर 
क्यारी में गिर पडी उठा कर जिन्हें पृष्ठ ने रखा सहेजा 
उनमें बसे  हुए कुछ सपने जो अंगड़ाई ले न सके हैं 
यौवन की, नयनों ने जिनके लिए निमंत्रण निशि में भेजा 

ये भी संभव वे हों बातें जो सहसा अधरों पर आई 
लेकिन रही अप्रकाशित हो, वाणी मौन हुई सकुचाकर 

समा गई थी एक बिंदु में जाने कितनी सम्भवताएं 
और खोलती थी पल पल पर पार क्षितिज के वातायन को 
कभी प्रेरणा बने सामने कभी  तिलिस्मी भेद बन गए 
वे सब धब्बे थे पुकारते अभिव्यक्ति के अभिवादन को 

इस गुलशन की सुरभि अनूठी , बस इसको अनुभूत करू  मै 
और छोड़ दूँ मैं विवेचना, रखा स्वयं को बस समझाकार. 
 

तो गीत ग़ज़ल कुछ सज जाए

कुछ उथल पुथल  में घिरा हुआ दिन तो हो जाता है तमाम
धीरे धीरे चलकर आती पतझड़ की बूढ़ी थकी शाम
सोचे है झोंका कोई हवा का आ अँगना बुहार  जाए 
तो  गीत ग़ज़ल कुछ सज जाए

रजनी के बिस्तर पर बिछती संध्या की धुली हुई चादर
पर निशा बदलती रहती है करवट पर करवट अकुलाकर
ताका करती हैं प्राची को कब उषा  उभर कर मुस्कानें।
फिर गीत ग़ज़ल कुछ सज जाए

आती है उषा ढके हुए मुख अपना गरम  रजाई  में
लिपटी रहाती है देर तलक इक सूरमाइ जुन्हाई  में
अक्सर सूरज के घोड़ों के उठने में क़दम लड़खड़ाए

क्या  गीत ग़ज़ल फिर  हो पाए

परिचय की परिधि में सिमटे कुछ मूसीकार सुखनवर भी
पर सबके अधरों पर छाई  इन दिनों  ढेर सी  ख़ामोशी
है इंतज़ार ये सन्नाटा, कल परसों शायद छँट जाए
फिर गीत ग़ज़ल कुछ हो जाए

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...