बस मधुघट रीते

दो अक्षर भी उतर न सँवरे कागज़ पर आकर
हाथों में लेखनी उठाये कितने दिन बीते

डांवाडोल  ह्रदय चुन पाया नहीं एक पगडंडी
जिन पर ले जाये वो अपने उद्गारों की डोली
चौरस्ते की भूलभुलैया में उलझे सारे पथ
अम्बर पर घिर रही घटा ने कोई न खिड़की खोली

शुभ शकुनों के लिये प्रतीक्षित नजरें ढूँढें पनघट
ढुलक रहे हैं पर हर पथ पर बस मधुघट रीते

हर अनुभूति  शब्द को छूने से पहले बिखरी
मन के राजघाट पर छाई गहरी खामोशी
अमराई से उठी न मन को छूने वाली कूकें
पुरबाई बैठी दम साधेजैसे हो दोषी

असमंजन में धनंजयी मन हो उत्सुक ताके
लेकिन श्याम अधर से झर कर बही नहीं गीते

सद्यस्नाता पल से टपकी बरखा की बून्दें
अलकों की अलगनियों पर आकर न ठहर पाई
सिमटी रही आवरण की सीमाओं के अंदर
छिटकी नहीं चन्द्रमा से मुट्ठी भर जुन्हाई

भेज न पाया सिन्धु भाव काआंजुरि भर स्याही
तृषित रह गई कलम आज फ़िरउगी प्यास पीते

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