एक झूठी ज़िंदगी के बोल

एक झूठी ज़िंदगी के बोल तिरते हैं हवा में
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राजनीतिक लाभ को अब दांव पर है जिंदागनी
और फिर फिर से यही दुहराई जाती है कहानी
एक ही किरदार प्यादों का लिखा है चौसरों पर
प्राण की आहुति चढ़ा रख लें सुरक्षित राजधानी

होड़ में डूबी हुई निष्ठाये रक्खी ताक पर अब
क्या पता किसको कसौटी सत्य की खोई कहाँ पर

कुर्सियों की चाह रखती आँख पर पट्टी चढ़ा कर
राजसिंहासन। चढ़े धृतराष्ट्र, हक़ अपना बता कर
राज्य की वल्गाएँ थामे, अनुभवी शातिर खिलाड़ी
शेष दरबारी मगन हैं बांसुरी अपनी बजा कर

और जन  गण   मन भटकता पर्वतों पर घाटियों में
ज़िंदगी के यक्ष प्रश्नो का मिले उत्तर जहां पर

जो चुने आशाओं ने, वे सब हुए अज्ञात वासी
दूर तक दिखती नहीं परछाईं भी कोई ज़रा भी
हाट में अब मोल साँसों का नहीं कौड़ी बराबर
भीर संध्या दोपहर  सब धुँध में लिपटी धुआँसी

एक झूठी ज़िंदगी का मोल क्या है, बोल क्या है
प्रश्न पर चर्चा सदी की, आज भी होती वहाँ पर

आज की आधी कथा सी



 घिर रहे आश्वासनों के मेघ अम्बर में निरंतर
कल सुबह आ जाएगी फलती हुई आशाएं लेकर
ये अँधेरे बस घड़ी भर के लिए मेहमान है अब
कल उगेगा दिन सुनहरी धुप के संग में चमक कर


दे नहीं पाती दिलासा बात अब कोई ज़रा भी
प्राण से अतृप्त मन पर छा रही है अब उदासी 


वायदों के सिंधु आकर रोज ही तट पर उमड़ते
और बहती जाह्नवी में हाथ भी कितने पखरते
रेत के पगचिह्न जैसी प्राप्ति की सीमाएं सारी
शंख के या सीपियों के शेष बस अवशेष मिलते


ज़िंदगी इस व्यूह में घिर हो गई रह कर धुँआ सी
एक कण मांगे सुधा जा हर कली है  आज प्यासी


घेरते अभिमन्युओं कोजयद्रथों के व्यूह निशिदिन 
पार्थसारथि हो भ्रमित खुद ढूंढता है राह के चिह्न 
हाथ हैं अक्षम उठा पाएं तनिक गांडीव अपना 
आर ढलता सूर्य मांगे प्रतिज्ञाओं से बंधा ऋण


आज का यह दौर लगता गल्प की फिर से कथा सी
बूँद की आशा लिए है अलकनंदा  आज प्यासी


पास आये हैं सुखद पल तो सदा यायावरों से 
पीर जन्मों से पसारे पाँव ना जाती घरों से 
जो किये बंदी बहारों की खिली हर मुस्कराहट 
मांगती अँगनाई पुष्पित छाँह, सन्मुख पतझरों से


किन्तु हर अनुनय विवशता से घिरी लौटी निराशी 

जेठ में सावन तलाशे, ज़िंदगी यह आज प्यासी 

नई भोर की अगवानी में

जीवन की उलझी राहों में

आज विदा देकर रजनी को
नई भोर की अगवानी में
पूरे अड़सठ दीप जलाए 

 

आज तिमिर के अवशेषों को
नदिया की धारा पर दौने में
रखकर के सहज बहाया 
और नया इक दीप जलाया 

 

नवल  आस की फसल उग सके
साँसों की सुरभित क्यारी में
धड़कन के कुछ बीज बो रहा 
और सपन अंकुरित हो रहा

 

तय हो चुकी राह की दुविधा
आगे बढ़ते हुए नकारी 
आगत के जलकलश सजा कर
छिड़के द्वारे पर  छलका कर 

 

विगत और आगत दवारे पर
दहलीज़ों के संधिपत्र पर
आज कर रहे हैं हस्ताक्षर 
राही चल, बस निस्पृह होकर 

 


जो बह न सके थे वे आंसू



आषाढ़ी मेघ घिरे आकर
बैसाख चढ़े अंगनाइ में
जो वह न सके थे वे आंसू
उमड़े सूखी अमराई में

आमों पर बौर, न दिखे पिकी
बस हवा चली मरुथल वाली
फुलवारी पर छाया पतझर
गुलमोहर की सूखी डाली

आँखों से दूर हुई निंदिया
सपने खो गए संशयों में
उत्तर सब उलझे हुए रहे
प्रश्नों के सिर्फ़ प्रत्ययों में

बुझती आसों में प्रश्न नहीं
बस सहमे सहमे उत्तर है
कुछ भय के अनचीन्हे साये
इन सबसे ज़्यादा बढ़ कर है

जो बहन सके थे वे आंसू
ढल रहे चित्र में यादों के
कुछ कर न पाने की कुंठा
हावी हो रही विषादों पे

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...