न जाने कैसी मनस्थिति है

जो गीत में आ ढले स्वयं ही वे भाव आते नहीं उमड़ कर
न जाने कैसी मनस्थिति है नहीं समझ में तनिक आ रहा

हजार किस्से अभाव के हैं हजार आंखें हैं डबडबाई
है पीर लिपटी हुई गज़ल में सुबकती मिलती है हर रुबाई
वही कहानी शताब्दी की, वही फ़साना गई सदी का
है एक वो ही पिटी कहानी हजार पन्नों में न समाई

है ज्ञात इतना तनिक भी चेतन नहीं शिखाओं को मिल सकेगा
न जाने फिर भी सितार लेकर है राग दीपक का मन गा रहा

है बूढ़े दिन की जो बेबसी वह खलिश जगाये ह्रदय में गहरी
लगा स्वयं ही सवाल करने सवाल अपनी ही अस्मिता पर
है क्या अमर, क्या अमिट यहां पर, कहां है ये जो यहां कहा है
औ’ क्या निरन्तर चला है गति में, हुआ है क्या जड़ बना यहां पर

मैं मंच पर हूँ या हूँ सभा में, पता नहीं ये चले तनिक भी
वो कौन गाता है रागिनी को, है कौन जो यह सुने जा रहा

रहे हो सीमित विवश पलों में समय के जितने रहे थे मानक
बदलते सन्दर्भों की पॄष्ठभूमि, नये ही रिश्ते बना रही है
सुबह से जुड़ती हुई दिशायें, लगी हैं अपनी बदलने सूरत
औ सांझ अपने समीकरण से लगे दुपहरी घटा रही है

लहरती चादर के रंग काले हुए हैं सातों ही रंग पीकर
न जाने भ्रम क्यों नजर का इनको सफ़ेद रह रह कहे जा रहा

मन ये मेरा कहे शुक्रिया शुक्रिया

चाह थी पांव का एक बिछुआ बनूँ
हार तूने बना वक्ष पर रख लिया
तेरे अपनत्व के ऐसे उत्कर्ष को
मन ये मेरा कहे शुक्रिया शुक्रिया

मैं था कंकर बना पगतली में चुभा
तूने कंगन बना हाथ में धर लिया
मैं हलाहल गरल था समय सिन्धु का
तूने शिव की तरह कंठ में भर लिया
लौह के खंड को तेरा पारस परस
स्वर्ण के पात्र में ढालता जा रहा
एक भटके हुए शब्द को बांध कर
स्वर तेरा ये मधुर गीत कर गा रहा

रेत के एक अणु से रहा सूक्ष्म जो
तूने विस्तार देकर सितारा किया
होंठ असमर्थ हैं बोल कुछ भी सकें
और मन ये कहे शुक्रिया शुक्रिया

पांव भटके हुए, पा दिशायें सकें
ये अकेले सफ़र में है संभव नही
एक निर्देश जो पंथ का मिल सके
तब ही संकल्प में भर सके ताजगी
तूने निष्ठाओं को और आयाम दे
चेतना को नई रोशनी सौंप  दी
डगमगाते हुए निश्चयों में नई
तूने विश्वास की कोंपलें रोप दीं

राह की हर विषमता विलय हो गई
थी कड़ी धूप, तूने घटा कर दिया
तेरे अनुराग की इस मधुर छांह को
मन ये मेरा कहे शुक्रिया शुक्रिया

चांदी के वर्कों सी, आशा

सपनों का विस्तार कल्पना से भी जन आगे हो जाता
बिन बोले ही मनभावन सुर में मन का वनपाखी गाता
अनायास ही खिंच जाती हैं अधरों पर स्मित की रेखायें
अपने दर्पण में अपना ही रूप सिमटने में न आता
विदा हुए जाते बचपन की ओर नहीं उठतीं हैं नजरें
अश्वारूढ़ कुंवर के पथ में ही वे बिछ कर रह जाती है

सुनो सुनयने उम्र-सन्धि के उस पड़ाव की सीमारेखा
पर अक्सर टूटा करती है चांदी के वर्कों सी, आशा


हर इक गाथा परी कहानी होकर हो जाती है विस्तॄत
किन्तु अपेक्षित को पा लेना जीवन में कब है अनुबन्धित
हर इक बोया बीज अंकुरित हो ही, होता कब है संभव
करवट लेता हुआ समय हर बात किया करता परिवर्तित
इसीलिये जो एक स्वप्न तुम निज नयनों में आँज रही ह
संभव है हो एक न रत्ती, तुम समझी हो बा्रह माशा


रंग पास हैं पास कूचियां, और कल्पनामय वितान है
चित्र वही लेकिन खिंच पाते हैं मन में, जिनका विधान ह
किन्तुय गर्व को विश्वासों का कभी आवरण मत पहनाना
पंख जले सम्पाती के ही, ऐसा विधि का प्रावधान है
पग में लगी एक ठोकर से अक्सर ही बदला करती है
पत्थर की लकीर सी पथ की, जो है प्रतिपादित परिभाषा


पर ये नहीं हाथ जल जायें इस डर से आहुतियाँ न दो
आशंका लेकर टूटेंगे, सपनों को अनुमतियाँ  न दो
जल जायेंगे यही सोचकर फूंक लगाते रहो छाछ में
ठुकराईं जायेंगी सोचो और तनिक सम्मतियाँ न दो
और सुनो वे ही पतंग जो कटती रहीं काटती भी हैं
जिनके मन में रही प्रज्ज्वलित ऊँचा उड़ने की अभिलाषा

ऐसा एक नहीं है बाकी

रीत गये हैं शब्द कोश के सारे शब्द आज लगता है
करे रूप से न्याय तुम्हारे, ऐसा एक नहीं है बाकी


फूल, पांखुरी,भंवरे तितली, रंग लुटाती केसर क्यारी
चम्पा, जूही, रजनीगंधा, गंधों में डूबी फुलवारी
नदिया लहरें तट का गुंजन और तरंगित झरता झरना
निंदिया रातें सपने  बोता सा कलियों का एक बिछौना


इंगित तो कुछ कर देते हैं, विवरण देने में पर अक्षम
तुमसे नजरें मिली जरा सा तो सबने ही बगलें झांकी

चन्दन धूप अगरबत्ती से हुए सुवासित पवन झकोरे
खस गुलाब फूले बेला संग भरे केवड़े रखे सकोरे
कदली खंभे चूनर की छत रखे हुए कलशों की गूँजें
मंत्रों की ध्वनि अर्थ प्राप्त करने को फिर शब्दों को ढूँढें

महानदों के जल से पूरित अभिषेकों के मुदित हुए घट
फ़लीभूत हो गये भाग्य जो संभव हुआ अर्चना आ की

कुंकुम बिंदिया, मेंहदी महावर लेप वेणियाँ महका गजरा
आकाशी नयनों के क्षितिजों पर बन घटा सँवरता कजरा
पायल बिछुआ तगड़ी कंगन, झूमर नथनी बाली लटकन
हथफूलों से जुड़ी मुद्रिका,टीके से लड़ियों का संगम

अर्थहीन हो रह जाते हैं हुए नहीं संयुक्त अगर जो
पाते रहे अर्थ तुमसे ही चूम तुम्हारी छवि इक बाँकी

गहन व्यथाओं का गंगाजल

थके दिवस की नजरें आ जब खड़कातीं सुधियों की साँकल
आंजुरि में तब भर जाता है गहन व्यथाओं का गंगाजल


रह रह दंश लगाया करतीं
नागफ़नी उग उग कर मन में
नयनसुधा बस साथ निभाया
करती है एकान्त विजन में


सम्बन्धों में बसी निकटता के बिम्बों की बढ़ती दूरी
में उलझा आभास और तो कुछ भी नहीं किसी का आँचल

प्रतिपल, अर्जित विश्वासों के
साथ आस्था डिगने लगती
थकी अपरिचित एक प्रतीक्षा
बैसाखी पर टिकने लगती


प्रतिबन्धों के भय से उपजी हुई रेख से आशंकित हो
एक बार फिर से रह जाती थिरके बिन पांवों की पायल


बीते कल के मधु स्वप्नों की
आ दर्पण में विभा दमकती
रजनी की झुकती परछाईं
उस पल बहुत ठठा कर हँसती


लगता है वह आईना बस छलना है झूठे बिम्बों का
और वेदना आँजा करती नयनों में सुधियों का काजल


लगता जा अटकी करील पर
साधों की चूनरिया धानी
छनी हुई शीशे से किरणें
करती हैं अपनी मनमानी


वातायन की पारदर्शित्ता भी कुछ नहीं दिखा पाती है
शून्य क्षितिज से टकरा लौटा करती हैं नजरें हो घायल

बिछे हुए हैं चौंसठ खाने

होठों पर आने से पहले शब्द हुआ करते संपादित
अब उन पर प्रतिबन्ध नये कुछ बंधी अपेक्षा लगी लगाने

चुन रख लिए उम्र की बगिया में से एक एक कर कर कर
अनुभव के सांचों में ढल कर जितने फूल मिले क्यारी में
गुच्छे बना शब्द में ढाले और उन्हें सरगम में बांधा
किन्तु रहे वे मौन न जाने क्यों अपनी ही दुश्वारी में

शाखाओं के साथ साथ जब पत्ती प्रश्न उठाने लगती
तब दुविधा है कहाँ कहाँ पर किसे किसे जाएँ समझाने

अर्थ अनर्थों में न जाने कैसे परिवर्तित हो जाते
जो अभिप्राय नहीं होता है, वही उभर कर सम्मुख आता
रही बुलाती जिसे मुंडेरी छत की आवाजें दे देक
वह संदेसे वाला कागा कर अनसुनी नहीं ही आता

जिन बिम्बों की परछाईं से जोड़ रखा था अपना परिचय
अकस्मात् वे मुख को अपने फेर हो गए हैं अनजाने

तुहिन कणों में भीगी पांखुर तन जाती है शूलों जैसी
जब दोपहरी के सूरज का रथ पश्चिम को बढ़ने लगता
जब बहार के झोंके मुड़ने लगते हैं आ मोड़ गली के
तब मरीचिकाओं का साया अंगनाई में भरने लगता

सहमी सुधियों के यायावर असमंजस में खड़े हुए हैं
दिशा चुनें कैसे हर पग पर बिछे हुए हैं चौंसठ खाने

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...