सपनों का विस्तार कल्पना से भी जन आगे हो जाता
बिन बोले ही मनभावन सुर में मन का वनपाखी गाता
अनायास ही खिंच जाती हैं अधरों पर स्मित की रेखायें
अपने दर्पण में अपना ही रूप सिमटने में न आता
विदा हुए जाते बचपन की ओर नहीं उठतीं हैं नजरें
अश्वारूढ़ कुंवर के पथ में ही वे बिछ कर रह जाती है
सुनो सुनयने उम्र-सन्धि के उस पड़ाव की सीमारेखा
पर अक्सर टूटा करती है चांदी के वर्कों सी, आशा
हर इक गाथा परी कहानी होकर हो जाती है विस्तॄत
किन्तु अपेक्षित को पा लेना जीवन में कब है अनुबन्धित
हर इक बोया बीज अंकुरित हो ही, होता कब है संभव
करवट लेता हुआ समय हर बात किया करता परिवर्तित
इसीलिये जो एक स्वप्न तुम निज नयनों में आँज रही ह
संभव है हो एक न रत्ती, तुम समझी हो बा्रह माशा
रंग पास हैं पास कूचियां, और कल्पनामय वितान है
चित्र वही लेकिन खिंच पाते हैं मन में, जिनका विधान ह
किन्तुय गर्व को विश्वासों का कभी आवरण मत पहनाना
पंख जले सम्पाती के ही, ऐसा विधि का प्रावधान है
पग में लगी एक ठोकर से अक्सर ही बदला करती है
पत्थर की लकीर सी पथ की, जो है प्रतिपादित परिभाषा
पर ये नहीं हाथ जल जायें इस डर से आहुतियाँ न दो
आशंका लेकर टूटेंगे, सपनों को अनुमतियाँ न दो
जल जायेंगे यही सोचकर फूंक लगाते रहो छाछ में
ठुकराईं जायेंगी सोचो और तनिक सम्मतियाँ न दो
और सुनो वे ही पतंग जो कटती रहीं काटती भी हैं
जिनके मन में रही प्रज्ज्वलित ऊँचा उड़ने की अभिलाषा
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5 comments:
waah bahut sundar geet
राकेश जी ..यह भी बेहतरीन..इस सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई
पर अक्सर टूटा करती है चांदी के वर्कों सी, आशा
वाह...अद्भुत...आपको पढना एक ऐसा अनुभव है जिसे बार बार दोहराने को दिल करता है...आपकी लेखनी को नमन...
नीअज
प्रेरणादायक मुग्धकारी अप्रतिम रचना...
Beautiful poetry!
Am reminded of "Poorv chalne ke batohi" by Bachchan Ji...
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