आज सांझ फिर आ लहराए सुधि के आँगन में वे पल जब
नदी किनारे घूमे थे हम इक दूजे का हाथ थाम कर
आज यहां इस नदिया के तट बिखरे हैं कुछ अनचाहे पल
जो निष्कासित हुए ज़िंदगी के रोजाना के गतिक्रम से
एक बार उपयोग किए जाने के बाद फेंक दी जाती
वही वस्तुएँ घोल रही थी विष तट पर आबे-जमजम के
दूभर हुआ पाँव भी रखना अब
नदिया के तीर एक भी
सुबह दुपहरी का सूनापन, अब है छाने लगा शाम पर
नदिया का तट जिस पर कल तक थी
कदम्ब की शीतल छाया
जिसके साये म मुरली की धुन पर
पग की थिरकी पायल
जहां गगन से झरी ओस में डूबी
हुई चाँदनी किरणे
मन को कर ज़ाया करती थी बींध
पुष्प के शर से घायल
आज वहाँ पर उगे हुये हैं कीकर
औ बबूल के झुरमुट
नष्ट हुई नैसर्गिक सुषमा, नयी सभ्यता के मुकाम पर
जितना दोषी मैं हूँ उतने तुम
भी तो हो प्रियवर मेरे
हमने खुद ही तो बोयी है नागफनी
आँगन में लाकर
पीपल, नीम, बरगंदी छाया को हमने तलाक़ देकर के
कृत्रिम फूल सजाये घर में
तुलसी के विरवे उखाड़ कर
साँसें बंद सिलिंडर में है, पानी भरा रखा बोतल में
बंद हुए जीते कमरों में, खुली हवाओं को तमाम कर