अब असह बन गया यह जीवन
बिन साथ तुम्हारे जीवन धन
सुधि ढूँढ रही है छाँह वही
कुंतल मेघों की घिरी सघन
वे अधर थरथराते थे जो
कुछ कहते कहते ठिठक ठिठक
वह गिरती, उठती फिर गिरती
शर्माती नज़रें झिझक। झिझक
अब बिना तुम्हारे मौन हुई
पनघट पर पायल की झन झन
आरति के दीप न जलते हैं
घंटी की खोई झंकारें
बस पता पूछती जगी भोर
में, पाखी कंठों की चहकारें
पग की थिरकन की राह तके
बाँसुरिया लेकर वृंदावन
अटकी है दृष्टि पंथ पर के
बस उसी मोड़ पर ही जाकर
जाते जाते देखा तुमने
पीछे मुड़ पल भर अकुलाकर
तब से ही पसरा पलकों पर
अब विदा नहीं लेता सावन
१४ अगस्त २०२१
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