जरा झलक मिल जाये

जरा झलक मिल जाये कमल वासिनी की
यही आस ले पूजा की उपवास किये
अभिलाषा के बीज बोये नित सपनो में
और जलाकर दीवाली के रखे दिए 

सुबह आस की भर कर रखी प्यालियां ले
ज्योतिषियों के सम्मुख रखा हथेली को
हाथों की रेखा का मेल नक्षत्रों से
वह करवा दे तो फिर सुख की रैली हो 
दादी नानी से सुन रखा बचपन  में
घूरे के भी दिन फिर जाते बरसों में
तो संभावित। है अपना भी भाग्य खुले
आज नही तो कल या शायद परसों में  

एक सवा मुद्रा का भोग लगाया नित
सवा मनी फल का मन मे आभास लिए
बीज बोये अभिलाषा के नग्नाई में
और दीवाली जैसे दीपित किये दिये

 देते रहे दिलासा मन ही मन खुद को
सदा विगत के कर्मो का फल मिलता है
परे नील नभ के दूजे इक  अम्बर से
इस जीवन को कोई नियंत्रित करता है 
उसे रिझाने को रोजाना मंदिर जा 
सुबह शाम जा आरतियों को गाते   हैं 
एवज़ में पा जाएंगे हम झलक ज़रा  
छोटी सी बस इक यह आस लगाते हैं 

माला के मनकों पर गिन गिन  कर हमने 
पूरे आठ और सौ मंत्रोच्चार किये 
ज़रा खनक मिल जाए स्वर्ण कंगनों की 
सांझ सवेरे सपनों का विस्तार किये 


जर्जर हुई मान्यता अंधी श्रद्धाएं
गई पिलाई हमें घुटी में बचपन की
कर्महीन होकर भी इन राहों पर चल
मिल जाया करती चौथाई छप्पन की
रहे बांधते दरगाहों पर बरगद पर
 रंगबिरंगे धागे हम मन्नत वाले
और चढ़ाते रहे नीर शिव मंदिर में
बहैं गगन से देव कृपा के परनाले

आधी उमर गंवा कर आंख खुली अपनी
हम मरीचिकाओं में कितने वर्ष जिये
जरा झलक मिल जाती हमें सत्यता की
संभव था बेकार न इतने बरस किये 

गीत की गरिमा भुला दूँ

बह रहे हैं शब्द आवारा निरंकुश काव्य जग में
यह नहीं स्वीकार मुझको गीत की गरिमा भुला दूँ

उड़ रही हैं पंख के बिन अर्धकचरी कल्पनाये
पद्य का ओढ़े मुखौटा ,कुछ हृदय  की भावनाएं
संतुलित तो भाव हो ना पाए, बस दे नाम कविता
भीख मांगी जा रही मिल जाए थोड़ी वाहवाहैं 

जो उड़ेले जा रहे तरतीब के बिन शब्द सन्मुख
है नहीं स्वीकार मुझको, मैं उन्हें कविता बता दूँ 

दूर कितनी चल सके हैं शब्द अनुशासन नकारे
बह सकेगी देर कितनी तोड़ कर नदिया किनारे
लय गति और ताल से हो विमुख कविताये विरूपित
कोशिशें कर ले भले कितनी छलावों के सहारे

बुलबुलो में जो बने वे चित्र टंकते भीत पर क्या
मानते हो तुम तो आओ आज में भ्रम को मिटा दूं

छिन्नमस्ता मूर्तियां कब मंदिरों में सज सकी है
छंदमुक्ता पद्य कृति कब याद की सीढी चढ़ी है
जो सहज सम्प्रेष्य होता, शब्द वह लय में बंधा है
साक्ष्य में यह बात गीता और मानस ने कही है

तर्क है यदि कुछ तुम्हारा,म तो बहो कुछ देर ले में 
सत्य खुद तुमसे कहेगा आओ मैं दर्पण  दिखा दूँ 

दीप हूँ जलता रहूँगा

मैं अक्षय विश्वास का ले स्नेह संचय में असीमित 
इस घने घिरते तिमिर से अहर्निश लड़ता रहूँगा 
दीप  हूँ जलता रहूँगा 

बह रहीं मेरी शिराओं में अगिन प्रज्ज्वल शिखाएं 
साथ देती है निरंतर नृत्य करती वर्तिकाएं 
मैं अतल ब्रह्माण्ड के शत  कोटि नभ का सूर्यावंशी 
जाग्रत मुझ से हुई हैं चाँद में भी ज्योत्स्नायें 

मैं विरासत में लिए हूँ ज्योति का विस्तार अपरिम 
जो  ,मिले दायित्व हैं  निर्वाह वह  करता रहूँगा 
दीप  हूँ जलता रहूँगा 

हैं मुझी से जागती श्रद्धाविनित  आराधनाएं 
और मंदिर में सफल होती रही अभ्यर्थनाएँ 
मैं बनारस में सुबह का मुस्करा  आव्हान करता
सांझ मेरे साथ सजती है अवध की वीथिकाएँ

मैं  रहा आराध्य इक भोले शलभ की अर्चना का
प्रीतिमय बलिदान को उसके अमर करता रहूंगा 
दीप हूँ  जलता रहूंगा 

साक्ष्य में मेरे बँधे   रंगीन धागे मन्नतों के
सामने मर्रे जुड़े संबंध शत जन्मान्तरों के
में घिरे नैराश्य में हूँ संचरित आशाएं बनकर
में रहा हूँ आदि से, हर पृष्ठ पर मन्वंतरों के

मैं रहा स्थिर, और मैं ही अनवरत गतिमान प्रतिपल 
काल की सीमाओं के भी पार मैं चलता रहूँगा 
दीप  हूँ, जलता रहूँगा 

सुधियों के मेरे आंगन में

किसने अलगोजा बजा दिया, मेरी सांसों के तार छेड़
ये कौन सुरभियां बिखराता, सुधियों के मेरे आंगन में

उषा की पहली जगी किरन की ताजा ताजा छुअन लिये
पांखुर से फ़िसले तुहिन कणों की गतियों से चलता चलता 
झीलों की लहरों के कंपन जैसे चूनर को लहराता
ये कौन उमंगों में आकर नूतन उल्लास रहा भरता

निस्तब्ध शांत संध्याओं का  छाया सन्नाटा तोड़ तोड़
किसने इकतारा बजा दिया मेरे जीवन के आंगन में

वातायन में आकर किसने रंग डाले इन्द्रधनुष इतने
पाटल पर उभरी हैं फ़िर से कुछ प्रेम कथा इतिहासों की
जुड़ गये अचानक नये पृष्ठ इक संवरे हुये कथानक में
राँगोली रँगी कल्पना ने , भूले बिसरे मधुमासों की

किसके आने की है आहट जो टेर बनी बांसुरिया की
किसने पैझनियाँ थिरकाईं, मन के मेरे वृन्दावन में

किसकी पगतालियाँ की छापें रँग रही अल्पनाये अदभुत 
सपनो की दहलीजों से ले सूने मन की चौपालों तक
है किसका यह आभास मधुर लहराता हुआ हवाओं में
ये कौन मनोरम   प्रश्न बना दे रहा हृदय पर आ दस्तक

कस्तूरी मृग सा भटकाता है कौन मुझे यूं निशि वासर 
 किसके पग के नूपुर खनके, मन के इस नंदन कानन में 

जहां अनुराग पलता हो

 चलें  बावले मन अब किसी अनजान बस्ती में
जहां अनुराग पलता होसमन्वय से गले मिलकर

 प्रतीक्षित दग्ध होकर तू  रहेगा और अबकितना ​
अकल्पित द्धेष के झोंके निरंतर आये झुलसाते
​उगी है राजपथ पर नित नई इर्ष्याओं की बेलें
जिधर भी देखता है तू  घने कोहरे नजर आते

​चलें चल छोड़ दें ये घरबनें फिर आज यायावर 
बनाएं कुछ नए रिश्ते किसी आलाव पर रुककर ​

बिखर कर रह गई साधें जिन्हें बरसों संवारा था
रहे वसुधा कुटुंबम के न अब अवशेष भी बाकी
नसंध्या सुरमई होतीन आती भोर अरुणाती
निरंतर पीर की मदिरा उंडेले जा रही साकी

चलें चल मन अरण्यों के उसी  बस एक प्रांगण में
जहाँ संवरी थी संस्कृतियांश्रुती में होंठ पर चढ़ कर 

बनाये चल नई  बस्ती जहां अनुराग पलता  हो
क्लीसोंमस्जिदोंमंदिरमुहल्ले में औ गलियों में
जहां पर बदलियां घिर कर सुधामय प्रेम बरसाती
जहां  सद्भाव की गंधेविकसती आप कलियों में 

चलें चल आज दें दस्तक सुनहरे द्वार पर कल के 
जहां अनुराग छाये हर दिशा में गंध सा उड़कर 

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...