आपके ही नाम की

दिन उगा या दोपहर थी
याकि बीती शाम थी
साँस ने माला जपी बस 
आपके ही नाम की

आस्था का दीप रक्खा
प्राण में अपने जला कर
सरगमों के तार छेड़े
आपको ही गुनगुनाकर
आपको आराध्य माने
भक्ति में डूबे रहे हम
मान कर विपदा पड़ी तो
आप ले जाएँ बचा कर

आज जब झंझा घिरी तो
आप ही हैं लुप्त जग से
दूर तक दिखती नहीं
परछाई तक भी छांव की

वे कथाएँ जन्म से, पीकर  
घुटी हम आए पलते
आप हैं सच्चे पिता
हर एक संकट आप हरते 
किन्तु ये भ्रम ढह रहा है  
रेत  के प्रासाद जैसा 
जो सहस्त्रों आर्त्तनादों से 
तनिक भी ना पिघलते 

हैं दुखी मथुरा अयोध्या 
कल तलक थीं गर्विता जो 
वक्ष पर अपने संभाले 
रज  पुनीता  पाँव की 

मुट्ठियों से आज फिसली 
बालुओं सी आस्थाएं 
काम कितना आ सकीं हैं 
प्रार्थनाएं वन्दनाएं 
मन्त्र ध्वनियाँ हैं तिरोहित 
क्रन्दनों के शोर में अब 
आपकी यज्ञाग्नियों में 
ज़िंदगी कितनीं जलाएं 

प्राण दाता जिस जगह
करता उपेक्षा प्राण की ही
ये नई लगता प्रथा है
आपके ही गाँव की 

कोई संकेत देता रहा

 कौन संकेत देता रहा साँझ से

आँजने के लिए
चंद  मधुरिम सपन 

ज्यों ही अंतिम चरण
आ गया मंच पर 
दिन के अभिनीत
होते हुए दृश्य का
और तैयार होती 
हुई साँझ ने 
फिर से दुहराई 
अपनी चुनी भूमिका

एक तीली उठी आँख
मलते हुए
जागने लग पड़ी
वर्तिका में अग़न

कौन संकेत देता रहा 

झाड़ियों में घिरे 
झूटपटे में कहीं 
बूँद बन गिर रही
यों लगा चंद्रिका 
स्वर उमड़ते हुए
बादलों से घिरे
देते आभास 
गूंजित हुए गीत का 

मोड़ से देखते 
मुस्कुराते हुए
सुरमई रात के 
काजरी  दो नयन 

कौन संकेत देता रहा 

सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते
रुकी रात जब
छत के विस्तार को
नापने के लिए
कुछ सितारे रहे
इक प्रतीक्षा लिए
चूनरी का सिरा 
थामने के लिए 

पाँव लेकिन थमे 
उठ न पाए तनिक 
उनको जकड़े रही
एक वासी थकन 

कोई संकेत देता रहा 



फिर आइन चैतिया हवाएँ

 

पूनम की चंदियाई साड़ी धुली ओस के झांझर पहने
स्वर्णकलश से धूप उँडेले आती हैं चैतिया हवायें

मिला भोर का स्पर्श गुनगुना
हुई बालियों में कुछ सिहरन
होने लगी फरफ़ूरी न में
पात पात ने छेड़ीं सरगम 
ट्यूब वेल की ताल ताल पर
थिरक रहां है खलिहानों पथ
पगडंडी पर लगी क़तारें
मंडी तक मनता है उत्सव 

होली मना, विदाई लेकर लौट चुका है शिशिर गाँव से 
तालाबों  के तट पर आकर जल तरंग पायल खनकाएँ 

होड़ पतंगो से करती सी
उड़े गगन तक धानी चूनर 
चौपालों से मुँडेरों तक
लगे झनकने पग के नूपुर
पड़ी ढोलकी पर थापे तो
मुखरित हुई कंठ की सरगम
और गूंज लौटी है वापिस
दिशा दिशा से होती पंचम 

फिर अधरों के मधुर स्पर्श ने फूंके प्राण मौन बांसुर में
कई अनूठी सी स्वर लहरी लगा गगन से उतरी आएँ 

घर आँगन खिड़की चौबारा
लगे अल्पना नई सजाने
सरसा पिंजरे में हीरामन 
रामधुनी फिर लगा सुनाने
प्रकट कृपाला के छंदों की
आवाजें घर बाहर उभरी
छत पर पापड़ बड़ी सुखाने
को तत्पर हो गई दपहरी

बतियाने लग गई मुँडेरें इक दूजे से धीरे धीरे 
नव सम्वत् की शुभ्र ऋचाएँ अगरु धूम्र में लिपटी आएँ 





नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...