आपके ही नाम की

दिन उगा या दोपहर थी
याकि बीती शाम थी
साँस ने माला जपी बस 
आपके ही नाम की

आस्था का दीप रक्खा
प्राण में अपने जला कर
सरगमों के तार छेड़े
आपको ही गुनगुनाकर
आपको आराध्य माने
भक्ति में डूबे रहे हम
मान कर विपदा पड़ी तो
आप ले जाएँ बचा कर

आज जब झंझा घिरी तो
आप ही हैं लुप्त जग से
दूर तक दिखती नहीं
परछाई तक भी छांव की

वे कथाएँ जन्म से, पीकर  
घुटी हम आए पलते
आप हैं सच्चे पिता
हर एक संकट आप हरते 
किन्तु ये भ्रम ढह रहा है  
रेत  के प्रासाद जैसा 
जो सहस्त्रों आर्त्तनादों से 
तनिक भी ना पिघलते 

हैं दुखी मथुरा अयोध्या 
कल तलक थीं गर्विता जो 
वक्ष पर अपने संभाले 
रज  पुनीता  पाँव की 

मुट्ठियों से आज फिसली 
बालुओं सी आस्थाएं 
काम कितना आ सकीं हैं 
प्रार्थनाएं वन्दनाएं 
मन्त्र ध्वनियाँ हैं तिरोहित 
क्रन्दनों के शोर में अब 
आपकी यज्ञाग्नियों में 
ज़िंदगी कितनीं जलाएं 

प्राण दाता जिस जगह
करता उपेक्षा प्राण की ही
ये नई लगता प्रथा है
आपके ही गाँव की 

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