फिर आइन चैतिया हवाएँ

 

पूनम की चंदियाई साड़ी धुली ओस के झांझर पहने
स्वर्णकलश से धूप उँडेले आती हैं चैतिया हवायें

मिला भोर का स्पर्श गुनगुना
हुई बालियों में कुछ सिहरन
होने लगी फरफ़ूरी न में
पात पात ने छेड़ीं सरगम 
ट्यूब वेल की ताल ताल पर
थिरक रहां है खलिहानों पथ
पगडंडी पर लगी क़तारें
मंडी तक मनता है उत्सव 

होली मना, विदाई लेकर लौट चुका है शिशिर गाँव से 
तालाबों  के तट पर आकर जल तरंग पायल खनकाएँ 

होड़ पतंगो से करती सी
उड़े गगन तक धानी चूनर 
चौपालों से मुँडेरों तक
लगे झनकने पग के नूपुर
पड़ी ढोलकी पर थापे तो
मुखरित हुई कंठ की सरगम
और गूंज लौटी है वापिस
दिशा दिशा से होती पंचम 

फिर अधरों के मधुर स्पर्श ने फूंके प्राण मौन बांसुर में
कई अनूठी सी स्वर लहरी लगा गगन से उतरी आएँ 

घर आँगन खिड़की चौबारा
लगे अल्पना नई सजाने
सरसा पिंजरे में हीरामन 
रामधुनी फिर लगा सुनाने
प्रकट कृपाला के छंदों की
आवाजें घर बाहर उभरी
छत पर पापड़ बड़ी सुखाने
को तत्पर हो गई दपहरी

बतियाने लग गई मुँडेरें इक दूजे से धीरे धीरे 
नव सम्वत् की शुभ्र ऋचाएँ अगरु धूम्र में लिपटी आएँ 





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