अब गीत ग़ज़ल हो तो क्या ही

 गीत ग़ज़ल हो तो क्या ही


नौ बजने के पहले अब तो ढलने का लेती नहीं नाम
दिन की खूँटी पर टंकी हुई रहती है आकर यहाँ शाम
सुरमाई रंगत घोल पिए कुछ गर्म हवाओं के झोंके
है उजड़ गया पूरा लगता मीठी यादों का एक गाँव
सन्नाटे में तल्लीन हुए  पल पास रहे बाक़ी जो दो
अब गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो

सुबहां उठ कर अंगड़ाई ले पाँवो को देती है पसार
दोपहरी सो जाती आकर मेपल की छाया को बुहार
अलसाएपन का आलिंगन कर देता शिथिल अंग सारे
प्रहरों पर कड़ी धूप तप  कर देती है रंगत को। निखार
भावों के पाखी का प्रवास अब हुआ आज दक्षिण दिशि को
तो गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो

किरणों के कोड़े खा खा कर शब्दों के घोड़े हैं निढाल
तेरा करते थे राजहँस, सूखी हैं वे झीलें विशाल
पूरब से उठती झंझाएँ, पश्चिम में धू धू दावानल
कल भी बदलेगा नहीं, विदित है हमें आज जो हुआ हाल
किस किस पर दोष लगाएँ, जब हर इक जन ही अपराधी हो
फिर गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो

किसकी बंसी की धुन गूंजी

 

लती अलसाई संध्या में
नदिया के इस निर्जन तट पर
मेरी सुधियों के तार छेड़
किसकी बंसी की धुन गूंजी

यादों का रेतीला मरुथल
उड़ते हैं धूलों के ग़ुबार
इस ओर नहीं मुड़ती राहें
जिन पर पग रखते हैं कहार
पगचिह्न नहीं कोई दिखता
बनने से पहले मिट जाते 
बस मौन कराहा करती है
जलता तन मन लेकर बयार 

नयनों की बिखरी वीरानी
में किसके यह खाके उभरे
किसको मेरी अंग​ना​ई में 
चुपके से आने की सूझी 

ये मौन तपस्वी से तरुवर
एकाग्र लगा कर खड़े ध्यान
बादल विहीन विस्तृत फैला
बस शून्य ओढ़ कर के वितान
पाखी के पर का फड़फड स्वर
है दूर कही जाकर खोया
सन्नाटे की धड़कन सहमी
हलचल का कोई नहीं भान 

फिर भी आभासित होती है
परछाई कोई अ​न​बूझी
मेरी सुधियों के तार छेड़
किसकी बंसी की धुन गूंजी 

असमंजस में डूबा है मन 
हर ओर ताकते हैं नयना
संध्या को करते हुए विदा
आतीं है थकी थकी रैना
है छीर चाँदनी की गठरी
सपनों का कोश लुटा पूरा
बैठी पलकों की चौखट पर 
ढूँढे बस पल भर का चैना

घिर कर आती है अन अर्जित
तकिए के तले रखी पूँजी 
मेरी सुधियों के तार छेद
किसकी बंसी की धुन गूंजी 

उसका कोई नाम नहीं है

 

जीवन के अँधियारे पल में जिसने आशा किरण जगाई 
मेरी सुधियों के आँगन में उसका कोई नाम नहीं है 

पथ पर चलते हुए राह में कितनी बार ठोकरें खाई
और पकड़कर बाँहें मेरी। किसने कितनी बार सम्भाला
भटकी हुए पंथ को किसने कितनी सही दिशाएँ देकर
आँजे हुए सपन आँखों के जिसने है शिल्पित कर डाला

आज खोल कर इतिहासों के पन्ने देखे उलट पलट कर
कितनी धुंधली आकृतियाँ थी उनका कोई नाम नहीं है 

यह महसूस हुआ है कितनी बार पकड़ता कोई ऊँगली
चक्रव्यूह से बाहर आने की जो क्रिया बदा देता है
बिना पाल मस्तूल लहर पर हिचकोले खाती नौका को
पतवारें बन कर के सहसा तट तक लाकर खे देता है

चेतन के, अवचेतन के सारे अध्याय पढ़े रह रह कर
ख़ालीपन ही मिला  अंत में जिसका कोई नाम नहीं है

रह जाते असमर्थ समझने में जो भी जीवन का दर्शन
एक मुखौटा लगा, हमें बस वोही राह दिखाते आकर
जहां शून्य से घिरा शून्य है। और शेष भी सिर्फ़ शून्य है
वहाँ किस तरह उत्तर देना सम्भव गुत्थी को सुलझा कर 

अवचेतन के तहख़ाने हैं अंतरिक्ष जैसे विस्तारित
परे कल्पना के जो कल्पित, उसका कोई नाम नहीं है 

नीड़ अब छोड़ कर

 


थरथराने लगी  वर्तिका नींद से सुन के सरसर टपकती हुई ओस की
तट पे थपकी लगाने तरंगे लगी शांत सोई हुई नील इक झील की
मौन तोड़ा जो कल से था ओढ़ा हुआ दिन के ढलने पे इक बरगदी 
शाख़ ने
तय हुई दूरियाँ साँझ से भोर तक पंथ पर रात के हर बिछे मील की 

इक नया दिन उगा खिड़कियां खोल कर साथ लेकर नई एक सम्भावना 
राह देकर निमंत्रण बुलाने लगी चल पथिक पंथ में नीड़ अब छोड़ कर 

लपलपाती हुई लौ भड़क कर उठी चाय की साथ लेकर गरम प्यालियाँ
द्वार ने बांध कर कर दो तैयार सब. तेरे पाथेय की लो कई गठरियाँ
पगतली चूमने को हुई आतुरा पथ की सिकता लपेटे सुनहरी किरण
मोड़ नव मंज़िलों का प्रतीक्षित हुआ साथ ले शब्द नूतन, नई व्याकरण 

अँजुरी में भरे नीर संकल्प का, निश्चयों की सुदृढ़ता उठा हाथ में
चल निरंतर बिछी सामने राह पर, मोह ज़ंजीर की हर कड़ी तोड़ कर 

देख मीनार से उठ अज़ानें  चली, अपने स्वर से गगन को गुंजाना इन्हें
मंदिरों में सजी सरगामी राग में मंत्र ध्वनियों में आकर रुका है समय 
मोमबत्ती जलीं घंटियाँ बज उठी गिरजे ईसा की महिमा सुनाने लगे 
ग्रंथ साहब से उठ कर हुए पावनी शब्द आलोक मन में सजाने लगे 

देख रथ पर चढ़ा चल दिया है रवि, आज फिर अनवरत मार्ग पर जो चुना
चल दे तू भी उसी एक रफ़्तार से , आज आदित्य के संग में होड़ कर 

सामने तेरे फ़ेले  हों  वन कंटकी, या बरसती हुई फूल की पाँखरी
अपनी धुन में मगन  हो तो गतिशील बस  छेड़ता निज मधुर राग की बांसुरी 
केंद्र कर ध्यान बस लक्ष्य पर पार्थ सा. शेष सब कुछ रहे हो विलग दृष्टि से
तो असम्भव है कोई भी बाधा उगे , दूर तुझको करे प्राप्ति की वृष्टि से 

दिन ढले मंज़िलें आके चूमे कदम, निश्चय  मन में सुलगता रहे यह सदा
पल ये विश्रांति के हैं क्षणिक ही यहाँ, कल उगे दिन पे चलना इन्हें छोड़ कर 

राकेश खंडेलवाल 
जून २०२२ 















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