गीत ग़ज़ल हो तो क्या ही
नौ बजने के पहले अब तो ढलने का लेती नहीं नाम
दिन की खूँटी पर टंकी हुई रहती है आकर यहाँ शाम
सुरमाई रंगत घोल पिए कुछ गर्म हवाओं के झोंके
है उजड़ गया पूरा लगता मीठी यादों का एक गाँव
सन्नाटे में तल्लीन हुए पल पास रहे बाक़ी जो दो
अब गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो
सुबहां उठ कर अंगड़ाई ले पाँवो को देती है पसार
दोपहरी सो जाती आकर मेपल की छाया को बुहार
अलसाएपन का आलिंगन कर देता शिथिल अंग सारे
प्रहरों पर कड़ी धूप तप कर देती है रंगत को। निखार
भावों के पाखी का प्रवास अब हुआ आज दक्षिण दिशि को
तो गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो
किरणों के कोड़े खा खा कर शब्दों के घोड़े हैं निढाल
तेरा करते थे राजहँस, सूखी हैं वे झीलें विशाल
पूरब से उठती झंझाएँ, पश्चिम में धू धू दावानल
कल भी बदलेगा नहीं, विदित है हमें आज जो हुआ हाल
किस किस पर दोष लगाएँ, जब हर इक जन ही अपराधी हो
फिर गीत ग़ज़ल क्या कैसे हो