नीड़ अब छोड़ कर

 


थरथराने लगी  वर्तिका नींद से सुन के सरसर टपकती हुई ओस की
तट पे थपकी लगाने तरंगे लगी शांत सोई हुई नील इक झील की
मौन तोड़ा जो कल से था ओढ़ा हुआ दिन के ढलने पे इक बरगदी 
शाख़ ने
तय हुई दूरियाँ साँझ से भोर तक पंथ पर रात के हर बिछे मील की 

इक नया दिन उगा खिड़कियां खोल कर साथ लेकर नई एक सम्भावना 
राह देकर निमंत्रण बुलाने लगी चल पथिक पंथ में नीड़ अब छोड़ कर 

लपलपाती हुई लौ भड़क कर उठी चाय की साथ लेकर गरम प्यालियाँ
द्वार ने बांध कर कर दो तैयार सब. तेरे पाथेय की लो कई गठरियाँ
पगतली चूमने को हुई आतुरा पथ की सिकता लपेटे सुनहरी किरण
मोड़ नव मंज़िलों का प्रतीक्षित हुआ साथ ले शब्द नूतन, नई व्याकरण 

अँजुरी में भरे नीर संकल्प का, निश्चयों की सुदृढ़ता उठा हाथ में
चल निरंतर बिछी सामने राह पर, मोह ज़ंजीर की हर कड़ी तोड़ कर 

देख मीनार से उठ अज़ानें  चली, अपने स्वर से गगन को गुंजाना इन्हें
मंदिरों में सजी सरगामी राग में मंत्र ध्वनियों में आकर रुका है समय 
मोमबत्ती जलीं घंटियाँ बज उठी गिरजे ईसा की महिमा सुनाने लगे 
ग्रंथ साहब से उठ कर हुए पावनी शब्द आलोक मन में सजाने लगे 

देख रथ पर चढ़ा चल दिया है रवि, आज फिर अनवरत मार्ग पर जो चुना
चल दे तू भी उसी एक रफ़्तार से , आज आदित्य के संग में होड़ कर 

सामने तेरे फ़ेले  हों  वन कंटकी, या बरसती हुई फूल की पाँखरी
अपनी धुन में मगन  हो तो गतिशील बस  छेड़ता निज मधुर राग की बांसुरी 
केंद्र कर ध्यान बस लक्ष्य पर पार्थ सा. शेष सब कुछ रहे हो विलग दृष्टि से
तो असम्भव है कोई भी बाधा उगे , दूर तुझको करे प्राप्ति की वृष्टि से 

दिन ढले मंज़िलें आके चूमे कदम, निश्चय  मन में सुलगता रहे यह सदा
पल ये विश्रांति के हैं क्षणिक ही यहाँ, कल उगे दिन पे चलना इन्हें छोड़ कर 

राकेश खंडेलवाल 
जून २०२२ 















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