कोई धागा होगा

 मेरी संधियों के सभी होते तितर पन्नों को

जिल्द में बांधे हुए इक कोई धागा होगा
जिनको क्रमबद्ध लगाने के प्रयासों में लगा
जानता हूँ कि कई रात का जागा होगा 

पृष्ठ सुधियों के बिखरते ही हवाओं में रहे
कोई आता कहीं से कहीं को जाता था
एक भी दृश्य सजाऊँ मैं पलक पर अपनी
पूर्व इसके ही बरौनी से फिसल जाता था 
पतझरी शाख़ से झरते हुए पत्तों की तरह
कभी उड़ते तो कभी चढ़ते हवा के काँधे
कोई सोता था धरा को ही बना कर शैया
कोई आ साँझ की खिड़की पे अटक जाता था

इनको चुन चुन के उठा कर के सजाने के लिए
इतना धीरज भला किस द्वार से माँगा होगा 
मेरी सुधियों के बिखरते हुए पन्नों को रखे
बांध कर एक लड़ी में, कोई धागा होगा

एक उड़ता हुआ आया था पृष्ठ हाथों में
जब था बचपन गया यौवन से विदाई लेकर
रात को चाँदनी के उमड़े हुए सागर में
नाव सपनो की थिरकती थी हिलोरें लेकर
रंग जितने थे धनक के, वे दिशा से चल कर
आप ही आप हथेली में सिमट जाते थे
भोर से सजते थे पल दिन के हुए सोनहरे
पथ बुलाता था पास, साथ शकुन  शुभ लेकर 

लेके संदेश उगी भोर की अंगनाओं में
आके बैठा हुआ मुँडेर  कोई कागा होगा
मेरी सुधियों के तितर बिखरे हुए पन्नों को
जिल्द में बांध रखे इक कोई धागा होगा

एक पन्ने पे टंकेधुंधले से चेहरे कितने
जिनमें कुछ सूखे हुए फूलों की परछाईं मिली
गंध झरती हुई थी अब भी। उनके अक्सों से
जैसे पाटल कली की पहली पहली बार खुली 
कल्पना की संवरती हुई डोली में सपन
हीरकानियों से झिलमिलाते हुए उड़ते  थे 
मन की अंगनाइ में आकर के अजनताए कई
अपना विस्तार लिए अल्पनाओं में थी ढली 

इनको अनुक्रम में लगा सामने लाने के लिए
कितना खूँटी पे लगा कर इन्हें टांगा होगा
बिखरी सुधियों को  संजो कर के संवारा जिसने
जिल्द में बांध, मुझे ज्ञात, कोई धागा होगा 

मई २०२२ 










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