राख के षड्यंत्र से रह कर अछूता
जल रहाँ है
मैं वही हूँ जो छुपाए क्रांतियाँ अनगिन स्वयं के वक्ष में ही
और बनती हूँ धधकती ज्वाल होती जब समय की माँग मुझ से
मैं सुलगती हूँ अगरबत्ती बनी नित शांति के पूजा गृहों में
रुष्ट होने पर उमड़ते सैंकड़ों दावानलों के ज्वार मुझ से
मैं वही हूँ दीप जो रहता रहा होकर अवर्तिक
दिन के समय, पर साँझ ढलते आ रहे तम की
प्रतीक्षा कर रहा है
आरती में प्रज्जलित हूँ मैं सहस शत वर्तिकाएँ साथ लेकर
कर रहा दीपित शहीदों के विजय स्तम्भ को संध्या सकारे
मैं वही हूँ यज्ञ बन जो आहुति ले जा रहा है देव घर तक
हाँ वही मैं नाव दौनो की चढ़ा बहता रहा गंगा किनारे
मैं वही संकल्प, अंतस की घनी गहराइयों में
है अनामित, किंतु अपना धैर्य निष्ठा साथ लेकर के
निरंतर पल रहा है
जो प्रकाशित कर रहा सम्पूर्ण जग,गतियाँ पिरो आदित्य रथ में
मैं वही संकल्प जिससे सब बंधे हैं , शून्य में नक्षत्र औ नीहारिकाएँ
हाँ वही निस्सीमता को बांध देता है समय के दायरे में ला सहज ही
मैं कि जिसकी कल्पना भी कर नहीं पाई अभी तThanks क स्वप्न में भी कल्पनाएँ
मैं वही हूँ चेतना को प्राण देता धड़कनों में
साँस की अविराम निष्ठा को निरंतर
अग्रसर जो कर रहा है
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