अब कोई भी गीत लिखें क्या ?

 बदल  गए उपमान आजकल, शब्द न थामें अलंकार को 

और व्याकरण गई नकारी अब गीतों पर कलम चलें क्या 


अलिफ और बे ते से लेकर बहर रदीफ़ो वजन  क़ाफ़िया
इनके चक्रव्यूह में उलझे कोई राह नहीं मिल पाई
पाँच सात को सत्रह करना और माहिए की गिनती तक
सच मानो अपना अनुभव तो रहा हमें होकर दुखदाई 

रहे सदा सब के पीछे ही अध्यापक की नज़र बचा कर
लगी आज गीतों की महफ़िल, दरवाज़े से खिसक  चलें क्या ?

विषयवस्तु लय और गेयता, तथ्यपरक सम्प्रेषणताएँ
एक भाव निर्वाह हो सके पूरी ही रचना के अंदर
घिसी पिटी बातें दुहराई जाएँ फिर से नहीं ज़रा भी
मोती चुनने को शब्दों का भावों का है एक समंदर

रहे देखते साथ रखी जो इक मुट्ठी शब्दों की पूँजी
यह बतलाओ हम अब ख़ुद ही किसी गीत में आज ढलें क्या ?

शतदल कमल ईश का वंदन करते नित स्तुतियाँ दुहराईं
पर भावों के धुले व्योम से कोई बदरी घिर ना बरसी
वीणा पाणि बाँटती अपनी विद्या की जो अमित सुधाएँ 
उनको, अपनी  अक्षमता थी. एक बूँद पाने को तरसी

रहे सदा अनुशासनाहीना छंद शास्त्र की नियमावलि से
नहीं सीख पाना कुछ सम्भव तो फिर खुद को और छलें क्या ?
२२मई   २०२२






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