काल चक्र के महायज्ञ में एक और आहुति देकर के
चल पड़ पथिक, नए संकल्पों से अपनी झोली को भर कर
कितनी बार जलाए अपने हाथ
पुण्य पूजन दीपक से
नीड़ बनाया कितनी बार कहाँ, मरुथल की अंगनाई में
कितनी बार शब्द ने तोड़ा दम
अधरों तक आते आते
कितनी बार भरी है सिसकी, स्वर ने गूंगी शहनाई में
बीत चुके वर्षों की बहियाँ, व्यर्थ रहेगा पुनः खोलना
लिखनी तुझको नयी कहानी, नए पृष्ठ पर हस्ताक्षर कर
क्यों परवाह करे, जीवन के इस मुकाम तक आते आते
कितने जर्जर नैतिकता ने
तेरे पथ विध्वंस किये हैं
बन कर नीलकंठिया विष को
पीकर मन बहला ले अपना
उन सब का आभार प्रकट कर, जो प्राणों को दंश दिए हैं
संचित जितना किया अभी तक
सुख या दुःख अपनी गठरी में
आगे बढ़ चल उन्हें यहीं
लहरों के साथ विसर्जित कर कर
अब बह चुकी पिघल कर रातें
जिनमें घुली चाँदनी रहती
तरल स्वप्न आँखों के सारे
बिखरी सिकता सोख चुकी है
दो ही बूँद ओस के पी
कर फिर बो ले आशा के अंकुर
अनजानी निर्जन राहों में
निर्भय चल, मंज़िलें नई हैं
सरग़म के सुर भर कर अपनी पदचापों से पंथ सजाया
अब आगे बिखराता चल तू इक गूँगी बाँसुरिया का स्वर
रखाएँ जिनको खींचा था, व वापिस कब आ पाएँगी
इस निविंड तिमिर से टकरा कर उजियारा होगा कहाँ विवश
अपराधी मान नहीं खुद को, जब बिकीं रश्मियाँ हाटों में
या ठुकराया मधुमास कभी द्वारे से कह कह कर नीरस
इतिहास एक खंडित प्रतिमा, आगत के भेद कहाँ खुलते
बस वर्तमान जी ले अपना , इक दीपक और प्रज्ज्वलित कर
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