ये किसने दी आवाज़ मुझे

 

गतिमान समय की डोर थाम 
आगे ही बढ़ते रहे कदम
पर इस नुक्कड़ पर जीवन के
किसने दी है आवाज़ मुझे 

चढ़ता ही रहा सफलता की
सीढ़ी, गिन गिन कर रखे कदम
पीछे मुड़ कर देखा न कभी
पगतलियों का चिह्नित उपक्रम 
वह एक राह जो चुनी, उसी
पर नीड़ और पाथेय सजे 
पथभ्रमित हुआ मैं नहीं तनिक
अंकित थे मंज़िल और उद्गम 

करता है आज किंतु कोई 
पदचिह्नों से सम्वाद मुझे
मैं सोच रहा हूँ आख़िर क्यों
किसने दी है आवाज़ मुझे

कर दी खण्डित सारी सुधियों
तोड़े सीमाओं के बंधन
निश्चय से बांधे चलता था
अपने प्राणों का हर  स्पंदन
बस एक लक्ष्य को पाने के
संकल्पों के बोकर अंकुर
मैं चला प्रस्फुटित होने पर
केंद्रित कर चिंतन और दर्शन

सीढ़ी के अंतिम छोर खड़ा
अब देख रहा मुड़ कर पीछे
न जाने क्या खो देने का
अब डँसता है अवसाद मुझे 

न जाने क्यों यह लगता है
कोई स्वर है पहचाना सा
फिर दूजे ही पल उद्वेलन
महसूस हुआ अनजाना सा
यह स्थल लगता एकाकी है
कोई भी नहीं दृष्टि पट पर
यह लक्ष्य आज क्यों लगता है
सब कुछ खोकर, कुछ पाना सा

अब सम्भव चुनना शेष नहीं
राहों में बिखरे जो पल छिन
फिर भी कचोटता है आकर
खोने का एक विषाद मुझे 

देता कोई आवाज़ मुझे

राकेश खंडेलवाल
९ मई २०२२ 



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