गीत की फ़सले

 



गीत की फ़सले नई कुछ उग सकें
भाव बोता आ रहा हूँ
नित्य नूतन
मैं ह्रदय  की क्यारियों में

व्यंजना के खोलता आयाम अनजाने
निरंतर
मैं विगत के शब्द सारे ही भुला कर
भावना की बंद धाराओं के रुख़
मोड़ता हूँ
शब्द की नौकाओं की पालें चढ़ाकर

लक्षणा को अर्थ फिर से मिल सकें
कुछ अलग हट कर
बीज बोने लग गया हूँ
काव्य की  फुलवारियों में

छंद के तट बंध सारे तोड़ कर
बहने लगे हैं
वाक्य जो कविताओं का चेहरा लगा कर
कोशिशें मेरी यही होगी अथक अब
हर घड़ी संध्या सहारे
आइना दिखलाऊँ उनको धुँध की परतें हटा कर

गीत को फिर गा सके संगीत
निज सरगम पिरो कर
तार पर बजने लगा हूँ
मैं स्वयं सारंगियों में

व्याकरण की वीथियों से जो निकाल कर
खो गए हैं
सर्जना की भीड़ सी आवारगि में
तोड़ कर वल्गाएँ अपने सारथी के हाथ की
वे घूमते है
पंथ हीना हो दिशा की बिन कहारी पालकी में

थाम कर अनुशासनों की डोर  को
फिर महक जाएँ
 छंद फिर निर्देशिता होकर
खनकते गीत की झनकारियों में

चाहा कितनी बार

 

चाहा कितनी बार कहूँ मैं, कितना प्यार तुम्हें करता हूँ
पर अधरो तक आते आते अक्सर शब्द लड़खड़ा जाते 

मन के भाव कहो कब किसके शब्दों में बंधने पाए है
उनका है विस्तार असीमित मुट्ठी भर शब्दों की क्षमता
कितने युग बीते कोशिश में सती कथा से मेघदूत तक
ढाई अक्षर अंतहीन है कैसे व्यक्त कोई कर  सकता 

ग़ालिब मीरा विद्यापति से संत क़बीरा की वाणी तक
रही अधूरी एक कहानी बरसो बीते जिसको गाते

गौतम को जब मिली  अहल्या शिव ने देखा प्रथम सती को
उर्वशी से  नज़रें टकराई राहों  में जब पुरुरवा की 
रति अनंग  के सम्बंधी को बांधे जो अनदेखे धागे 
उनकी करें व्याख्या, सम्भव शब्दों की कब हुआ ज़रा भी 

भाव सिंधु की हिल्लोलित किल्लोलित लहरें उमड़ा करती
शब्दों के बन रहे  घरोंदे  उनसे टकरा कर बह जाते 

ऋतु बसंत में जमना तीरे गूँज रही वंसी की धुन पर
पाँव बंधी पैंजनिया अपने मृदु सुर जो गीत सुनाती
वह अनुभूति व्यक्त पाने में रह गई सदा ही क्षम
और  लेखनी रह जाती है बस हाथों में बल ही खाती 

कोशिश करते करते निशि दिन स्वर रहता है घुटा कंठ में 
सुर सारे ही बिखर गए हैं सरगम का द्वारा खड़काते 





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यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

 



सजाई है तुमने ग़ज़ल की ये महफ़िल 
यहां सर्दियों का गुलाबी है मौसम 
यहां ताकते रह गए खिड़कियों से
 कहाँ सर्दिया का गुलाबी है मौसम ?
नहीं छोड़ती स्याही चौखट कलम की 
नहीं भाव फिसलें अधर की गली में 
कहें कैसे गज़लें ? तुम्ही अब बताओ 
घुले शब्द सब, चाय की केतली में 
सुबह तीन प्याली से की थी शुरू फिर 
दुपहरी तलक काफियों के ही मग  हैं 
अभी शाम को घर पे पहुंचेंगे तब तक 
तबीयत रहेगी उलझ बेकली में 
यहां तो हवाएं हो चालीस मीली
मचाती है दिन में ओ  रातों में उधम 
कहाँ है बताओ गुलाबी वो मौसम 
चुभे तीर बन कर ये बर्फीले झोंके 
गए छुट्टियों पर हैं सूरज के घोड़े 
नहीं धूप उठती  सुबह सात दस तक 
इधर चार बजते , समेटें निगोड़े 
बरफ से भी ठंडी हैं बाहर फ़िजये
 निकल  करके देखें वो हिम्मत नहीं है
जुटाए जो साधन  लड़े सर्दियों से 
सभी के  सभी हैं लगें हमको थोड़े 
गया पारा तलघर समाधि लगाने
तो लौटेगा बन करके बासंत-ए-आज़म
नहीं है गुलाबी ज़रा भी ये मौसम
ठिठुर कँपकँपाती हुई उंगलियां अबन कागज़ ही छूती, न छूती कलम हीयही हाल कल था, यही आज भी हैहै संभव रहेगा यही हारल कल भी 
गये दिन सभी गांव में कंबलों केछुपीं रात जाकर लिहाफ़ों के कोटरखड़ीं कोट कोहरे का पहने दिशायेंहँसे धुंध, बाहों में नभ को समोती 
अभी तो शुरू भी नहीं हो सका है 
अभी तीन हफ्ते में छेड़ेगा सरगम 
तो नीला, सफेदी लिए होगा मौसम 

जब प्रतीची की सिंदूरी ओढ़नी

 


जब प्रतीची की सिंदूरी ओढ़नी की
बूटियां कुछ सुरमई सी हो रही थी
और प्राची के क्षितिज के आंगनों में
एक कजरी मृदु स्वरों में बज रही थी

नाव ने धाराओं से कर के किनारा
कुछ नये अनुबंध तट से आ बनाये
नीड को जाती कतारे पाखियों की
द्वार ने मंगल स्वरों के गीत गाये

मंत्र गूंजे घाट पर वाराणसी के
थाप पर घुंघरू अवध में झनझनाते
उस घड़ी आनूरांग भर कर के नयन में
याद है तुमने कहे थे शब्द कुछ तब
मन मेरा वे शब्द अब भी याद करता है
और तब ही तो प्रणय के गीत रचता है 

उस घड़ी पलकें झुकी थी पग नखों पर
उँगलियों से बात कुन्तल कर रहे थे
थरथराते पनख़री जैसे अधर से
ओस से अक्षर फ़िसलते गिर रहे थे 

बोझ कोई आ पलक पर रुक गया था
एक पल उठ कर निरंतर झुक  रही थी 
साँस की गति खो रही थी संतुलन को
दौड़ती थी और थोड़ा रुक रही थी 

स्वर अटकने लग गया था कंठ में ही
देह थी सारंगियों के कम्पनों सी
कोई उहापोह घेरे जा रहा था 
एक असमंजस लपेटे कामना थी 
हर निमिष वह पल उभर कर चित्र बनता है 
और शब्दों से नए नित रंग  भरता है r

कौन तुम्हारे पाँव पखारे

 


चली हवाएं जब छूकर के चन्दन गात तुम्हारा रूपसि
उपवन में तब तब ही घिरकर लहराईं हैं मस्त बहारें 

ले चुम्बन आरक्त कपोलों का, अंगड़ाई  ली उषा ने 
प्राची की दुल्हन के मुख पर सज्जित हुई तभी अरुणाई 
रुका देख कर चिकुर तुम्हारे आवारा बादल का टुकडा 
तब सावन की श्याम घटाएं पीछे पीछे दौड़ी आई 

बरखा की मदमाती बूँदें,  करने लगी होड़  आपस में 
किस बदली के घर से निकलें और तुम्हारे पाँव पखारें 

थिरक पैंजनी ने जब छेड़ी मधुर रागिनी, जागी सरगम 
नए सुरों का लगी ढूँढने कैसे क्या वह दे सम्बोधन 
कगन से झुमके की गुपचुप सुनने को आतुर कलियों की
आपाधापी, उलझा उपवन कैसे कर पाए अनुशासन

पगतलियों का स्पर्श ओढ़ कर पथ की धूल हुई रोपहली
राह पड़ गई असमंजस में कैसे अपना रूप सँवारे

देख अलक्तक  की आभा को हरसिंगार लगा अकुलाने
एक बार जो पाए चुम्बन तो फ़िर हो जाए  कचनारी
कटिबन्धन का त्रिवली के भंवरों में  उलझ छनक जाने से 
प्रेरित होता पुष्पधन्व, तरकस से भर मारे पिचकारी 

सृष्टा मन कृति ! शब्द हीन होकर भाषा ये सोच रही है 
क्या कह कर के  सम्बोधन दे और तुम्हारा नाम पुकारे।

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...