जब प्रतीची की सिंदूरी ओढ़नी

 


जब प्रतीची की सिंदूरी ओढ़नी की
बूटियां कुछ सुरमई सी हो रही थी
और प्राची के क्षितिज के आंगनों में
एक कजरी मृदु स्वरों में बज रही थी

नाव ने धाराओं से कर के किनारा
कुछ नये अनुबंध तट से आ बनाये
नीड को जाती कतारे पाखियों की
द्वार ने मंगल स्वरों के गीत गाये

मंत्र गूंजे घाट पर वाराणसी के
थाप पर घुंघरू अवध में झनझनाते
उस घड़ी आनूरांग भर कर के नयन में
याद है तुमने कहे थे शब्द कुछ तब
मन मेरा वे शब्द अब भी याद करता है
और तब ही तो प्रणय के गीत रचता है 

उस घड़ी पलकें झुकी थी पग नखों पर
उँगलियों से बात कुन्तल कर रहे थे
थरथराते पनख़री जैसे अधर से
ओस से अक्षर फ़िसलते गिर रहे थे 

बोझ कोई आ पलक पर रुक गया था
एक पल उठ कर निरंतर झुक  रही थी 
साँस की गति खो रही थी संतुलन को
दौड़ती थी और थोड़ा रुक रही थी 

स्वर अटकने लग गया था कंठ में ही
देह थी सारंगियों के कम्पनों सी
कोई उहापोह घेरे जा रहा था 
एक असमंजस लपेटे कामना थी 
हर निमिष वह पल उभर कर चित्र बनता है 
और शब्दों से नए नित रंग  भरता है r

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