गीत की फ़सले

 



गीत की फ़सले नई कुछ उग सकें
भाव बोता आ रहा हूँ
नित्य नूतन
मैं ह्रदय  की क्यारियों में

व्यंजना के खोलता आयाम अनजाने
निरंतर
मैं विगत के शब्द सारे ही भुला कर
भावना की बंद धाराओं के रुख़
मोड़ता हूँ
शब्द की नौकाओं की पालें चढ़ाकर

लक्षणा को अर्थ फिर से मिल सकें
कुछ अलग हट कर
बीज बोने लग गया हूँ
काव्य की  फुलवारियों में

छंद के तट बंध सारे तोड़ कर
बहने लगे हैं
वाक्य जो कविताओं का चेहरा लगा कर
कोशिशें मेरी यही होगी अथक अब
हर घड़ी संध्या सहारे
आइना दिखलाऊँ उनको धुँध की परतें हटा कर

गीत को फिर गा सके संगीत
निज सरगम पिरो कर
तार पर बजने लगा हूँ
मैं स्वयं सारंगियों में

व्याकरण की वीथियों से जो निकाल कर
खो गए हैं
सर्जना की भीड़ सी आवारगि में
तोड़ कर वल्गाएँ अपने सारथी के हाथ की
वे घूमते है
पंथ हीना हो दिशा की बिन कहारी पालकी में

थाम कर अनुशासनों की डोर  को
फिर महक जाएँ
 छंद फिर निर्देशिता होकर
खनकते गीत की झनकारियों में

3 comments:

Meena sharma said...


व्याकरण की वीथियों से जो निकाल कर
खो गए हैं
सर्जना की भीड़ सी आवारगि में
तोड़ कर वल्गाएँ अपने सारथी के हाथ की....
वर्तमान समय में हो रहे बेलगाम सृजन एवं लेखन को दिशानिर्देश देता एक सुंदर गीत। साझा करने हेतु सादर आभार आदरणीय।

राकेश खंडेलवाल said...

सादर आभार मान्य

राकेश खंडेलवाल said...

सादर आभार मान्य

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