नूतन अंकुर यहाँ प्रस्फुटित होने को है

 एक एक कर झरे शाख़ से 

पत्र तीन सौ पेंसठ पूरे 

नई आस का नूतन अंकुर

यहाँ प्रस्फुटित होने वाला


विगत वर्ष इतिहास हो गए 

उनके पृष्ठ न खुलें ज़रा भी 

घटित, पुनः दुहराया जाए 

शेष न हों इच्छाएं बाकी 

पीछे मुड़  कर इस जीवन की 

राहों पर अब नहीं देखना 

मूँद चुकी है जो पलकों को 

नहीं जगानी पुनः वेदना 


अभिलाषा का नया। सूर्य हो

नए वर्ष में उगने वाला


भोगी हुई पीर की पन्ने 

मन पुस्तक से चलो हटा दें

जो अवशेष शेष सपनों के

उन सब का अस्तित्व मिटा दें

वातावरण स्वच्छ रखने का

नव संकल्प उठाएँ हम तुम

आरोगी हर जन गण मन हो

नई आस के फ़ुटे विद्रम


महा काल  के समय ग्रंथ का

नया पृष्ठ हो खुलने वाला


निश्चय की ले कलम हाथ में

लिखें स्वयं अपने आगत को

है हमको अधिकार, द्वार पर

किसे बुला लाएँ स्वागत को 

क्या नकारना । क्या संवारना ।

है इस पर अधिकार हमारा 

किन रंगों की रच  रांगोली

सजा रखें आँगन चौबारा 


नया सूर्य इक, नवल चंद्रमा

यहाँ उदित अब होने वाला 



राकेश खंडेलवाल

वेद की मंत्रित ऋचाएँ

 भोर होते घोलता है

धमनियों में, कौन आकर
वेद की मंत्रित ऋचाएँ 

थरथाराहट शिंजिनी सी
तैरती है
तन बदन में 
चित्र संवरे अँजुरी में
रश्मियों के 
आचमन में 

और फिर आकार लेती 
हैं ह्रदय में
व्यक्तिगत सम्वेदनायें

दीप जलते पंथ में 
आह्वान करते 
हैं गति का 
पाँव  बढ़ते हैं
बिना सोचे हुए 
तय क्या नियति का 

और दिखती सामने
मंज़िल, बिखेरे
दीप्त होकर ज्योत्सनाएँ 

चंद डावाँडोल निश्चय
घोलते हैं
संशयों की धुँध सम्मुख
फिर अनिश्चय 
ला बिछता
है विजन का शून्य सा चुप 

मन क्षितिज के पार ढूँढे
मिल सकें
अब कुछ नई सम्भावनाएँ 

सम्भव नहीं गीत बन पाना

 




शब्द कबूतर के पंखों पर बैठ गगन में उड़ते फिरते
सम्भव नहीं कलम पर आकर उनका गीतों में ढल जाना

उड़े हृदय के तलघर से जब भाव बदलियोंकी सूरत ले 
खुले नयन के वातायन से सब के सब हो गए प्रकाशित 
एक हवा के चपल झकोरे की ऊँगली को थाम चल पड़े 
और लौट कर आना उनका नहीं रह गया था संभावित 

चाहा तो था भावों को कुछ शब्दों की आकृति में ढालूँ 
संभव नहीं, रहा शब्दों का  पर, कोई साँचा बन पाना 

पिघली हुई वेदनाएं हों, या हो करुणा कहीं प्लावित 
उठती हो मल्हार कहीं से या मांझी के स्वर हों गूंजे 
थाप पड़े कोई ढोलक पर, चंग बज रहा हो झम झम झम 
तान छेड़ती  कोई मुरली या कोई अलगोजा गूंजे 

सरगम का हर सुर रह जाता अपने में ही सिमट सिमट कर 
बिना शब्द के अर्थहीन हो रह जाता स्वर का सध पाना 

तितर बितर धागों से उलझे  भाव  ना बंधने पाते क्रम में
बिना व्याकरण  के शब्दों का क्या अस्तित्व कौन बतलाए
रख आना बाहर निकाल कर तार समूचे सारंगी के 
 एक अपेक्षा करते रहना  मीठी कोई तान बजाए 

कभी उमड़ आते भावों का ढलना आकृति में शब्दों की 
सम्भव होता, लेकिन रहता नहीं अर्थ वह ही रह पाना

दिसम्बर २०२१ 





अधरों की फायल में

 शब्द जिसे सज कर ढलना था

किसी ग़ज़ल में या कि गीत म
होकर क़ैद रह गया अधरों की
फायल की लाल डोर में

बेचारी भावना ह्रदय के
 कितनी बार द्वार से लौटी
रहा निरंतर द्वारपाल देता
ही रहा समय की गोटी
बंधे रह गए अक्षर के सिक्के
आँचल के फटे छोर में

बेघर सारे अलंकार अब
मानचित्र की तानाशाही
व्यर्थ ही रही उपमाओं की
सुबह शाम की आवाजाही
लय के साथ धुनें भी खोई
दरवाज़े पर मचे शोर में

बेचारी लक्षणा व्यंजना
थकी गिड़गिड़ा करते विनती
दिन सप्ताह महीने बीते
एक एक कर के अनगिनती
लौटी मुँह लटकाए संध्या
आस उगी जो तनिक भोर में

प्रीत की अनुभूति मेरी

 


जानता हूँ
शब्द मे क्षमता नहीं
अभिव्यक्त कर दें प्रीत की अनुभूति मेरी

भाव मन के
जब उठे अंगड़ाई लेकर
शब्द में ढलते हुए ही अर्थ बदले हैं अचानक
रूपरेखा जो बनी
वह तनिक आकार ले ले
पूर्व इसके ही बदल देता निदेशक आ कथानक


रह गई
फिर से अधूरी
भूमिकाएँ जो चुनी अपने लिए, अभिनीत मेरी

जब बनाए
आस के कोमल घरोंदे
कामनाओं के दिवास्वप्नों सुनहरी क्यारियों में 
तब चढ़ा कर
त्योरियाँ अपनी कुपित 
मौसम बदल देता उन्हें केवल करीली झाड़ियों में

थी लिए
आवंटनों की 
ही प्रतीक्षा  हर संवारती आस की आपूर्ति मेरी 

पुल बनाए
सांत्वनाओं के सजीले बोल लेकर
ठोकरों वाली डगर को पार कर  मंज़िल सजाने
खोखले आधार
टिक पाते कहाँ बहती हवाओं की बनाई  नींव पर, तो
बढ रहे पहले कदम पर ही लगे हैं भूमि को शैय्या बनाने 

घिर रहे
असमंजसों की
बंदिनी बन रह गई है भावनाओं की सकल अभिव्यक्ति मेरी 

क्या करूँ मीट तुम रूठते ही नहीं

 सोचता हूँ मनाऊं मैं मनुहार कर 
क्या करूँ  मीत तुम रूठते ही नहीं 
जानता हूँ मैं जाने अजाने सदा 
तोड़ता ही रहा साथ चलते कसम 


ध्यान मेरा लगा था धुनों की तरफ़
मैं बजाता रहा हो मगन बांसुरी
और देखा नहीं सामने है खुली
थरथराते अधर की मधुर पाँखुरी
मेरी अवहेलना को नकारे हुए
तुम जलाते रहे प्रीत की बस अगन


चाह है केसरों की  भरी क्यारियाँ
संदली गात में लहलहाती हुई
दृष्टि के एक क्वांरे  परस से रही
इस घड़ी के उतरने तलक़ अनछुई
आज उन्मादिता भर लूँ भुजपाश में
शांत कर लूँ तड़पती हुई सी तपन 


भावनाओं के उठते हुए ज्वार की
एक उद्भ्रांत होती हुई सी लहर
बह रही है नियंत्रण बिना हर घड़ी
भोर हो साँझ हो या कि हो दोपहर 
बस उसी के भँवर में रहे घूमते
रूठी मनुहार के सब अधूरे सपन 

कोहरा

 

साथ में हेमंत के कोहरा घना घिरने लगा
और सूरज दोपहर को उग के फिर छिपने लगा 

भोर वाली लालिमाएँ लुप्त सारी हो गई 
सुरमई संध्याएं लगता पंथ में ही खो  गईं
दॄष्टि के आकाश पर बादल उमड़ तिरने लगा  

सांझ  की बारादरी पे डल  गई काली चिकें 
द्वार की नजदीकयों में  दूर के ही भ्रम दिखें 
सूझ को बस स्पर्श का ही साथ अब मिलने लगा 

रात की ठंडी अंगीठी पर चढ़ा पकता हुआ 
सूप यह मशरूम का कुछ और भी गाढ़ा हुआ 
फिर उफन  कर फर्श पर टिप टिप यहां गिरने लगा 

साथ में हेमंत के कोहरा घना घिरने लगा 




नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...