नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024 


दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने
खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे 

अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला कर लाई
डेहरी को सज्जित कर डाला अक्षय और कुमकुम बिखरा कर 
छिटके हुए कुहासे को काटा अपनी सिमटी साड़ी से
और अगरबत्ती दीपित की नई आस को ह्रदय बड़ा कर 

नाव वितान पर रक्तिम पीत रंग की चुनिरिया ओढ़ाकर
जाने लगी छोड़ कर आँगन  गली बैठने यूना तेरे 

देव मूर्ति का गोईवि कटाने को जागा निद्रावस्था सीप
कलोगो ने भी गिरी ओज से सारे पटल अपने धोये
चंदन, अक्षत और पुम्शप ने आकर पूज थल सहाय 
पास हो सामाय aa आ गुँथे मिली में खहै जीतने 

आरती में स्टूई गूंजन करने की शंख लग ए  टी ए ट
हुए सरिताओं ताल सजाने, आज ढोलकी और मजीरे 

कड़ी किनारे तने वृक्ष पर शाखाओं में हुई हलचलें
बने नीड में नव वितान को छूने, पाखी पंख पसारे
नये वर्ष की नई सुबह में अभिलाषा हों पूर्ण आपकी
शिल्पियों हो हर स्वप्न और आ दस्तक स्वन आपके द्वारा

बदलें नक्षत्रों की गतियाँ और दिशायें लेकर करवट 
नया वर्ष चाई क़िस्मत पर जमी हुए कोहरे को चीरे 

राकेश खंडेलवाल
दिसंबर २०२३ 


अधूरी रही

 स्नेह भर दीप में वर्तिकाएँ जली

थी दिवाली पे सारी की सारी बुझी
आस जो भी रही हो अधूरी सदाज 
गिरवी अधूरी अधूरी रही 

आस थीएक नये वर्ष की भोर नव
लाएगी धूप की साथ अपने फसल
स्वर्णमय रश्मियों का पारस प्राप्त कर
हाथ जी रेख जाएगी थोड़ा बदल
जो बने मॉड हैं बाधा  बन कर खड़े
वो भी समतल ज़रा और हो जाएँगे
कितने वर्षों से जिनकी प्रतीक्षा रही
चंद अच्छद दिवस सामने आयेंगे

पर नई धूप भी आ मादरी बनी
ज़िंदगी हाँ मिलाते जमरी रही 

जब दिवाली गई आके क्रिसमस सजी
फिर नया वर्ष आकार खड़ा हो गया
उत्तरायण गगन में दिवाकर हुआ
और दिन पहले से अब। बड़ा हो गया
होके बासंतीय चल पड़ी फिर हवा
होली आई थी फगवा सुनाते हुए
उसको कर के। वीसा जेठ हंसाने लगा
धूप में ताप अपना बढ़ाते हुए

तन को झुलसा रहा धूप का ताप,क्रम
दूर होकर के ऊटी मसूरी रही


फिर घिरे सावनी मेघ आकाश में 
और राखी बांधी हाथ बन फुलझड़ी
टेसुओं, सांझियों के मेले लगे
आई दशमी विजयमाल की ले लड़ी
घूम फिर कर वही आई दीपावली
था जहां से शुरू वर्ष भर का सफ़र
बस इसी एक जंजाल में थी उलझ
तय हई ज़िंदगी ये समूची गुजर

आस थी भीख में भी उपेक्षा लिए
भाग्य की करती बस जीहूज़ूरी रही 

राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२३। 









एक बरस अब यह फिर बीत

 विदा २०२३ एक कहानी को दुहराते

ओ विरह की ठुमरी गाते
सुधि के धुंधले पृष्ठ और आ
एक पुस्तक में जुड़ते जाते

मुट्ठी से रिस रहे सामय  ने मन को प्रतिपाल यहाँ छला है

कोर भी संदेश न आया
द्वार लूजर ने न खड़काया
और डाकिया के कदमों को
घर का पाथ भी चूम न पाया 

ये सब अपना ही बोया है ढली उम्र में आम ढाला है 

मेरा अब भी मित्र एम कोई 
मन में बाक़ी चित्र न कोई 
संध्या करे महकमा दे आकर
शेष कोई भी इत्र नहीं कोई

बरस गुजराती डरते डरते, मेरा मोम में हाथ कला है 

राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२३ 

प्यार के इन गीतों को -सोच रहा

 प्यार के गीतों कोसोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को


ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये 
कचनारों के फूलों पर भी चढ़ते नहीं जवानी आकार 
बौराती है नहीं ऋतु में , सावन ऑफ़ आम की बगिया
कोयल बाथी मैना सुनाती लूजर भी धुन को गाकर 

वर्णित करता रहे कहाँ तक घिसे पूरे जैन शब्द प्रीत के 

काजल, मेंहदी, कुमकुम, बिंदिया अब लगते हैं अर्थाहीन सब
गजरा, कुंतल और अलकटक कोई नहीं लुभाता आकार 
बहती हुई हवा जो घोले रहती रही साँस की ख़ुशबू
अब आती ही यहाँ जो रखे कक्ष मेरा थोड़ा महकमा कर 

करता रहे इन्हीं की बातें नये पृष्ठ रच कर संगीत के 

कब तक करूँ अपेक्षा सूखे पपड़ी जमे आधार चुंबन की
कब तक भुजपाशों में बाँधने हों ये मेरी बाँहें
मटमैले काले अंबर के विस्तृत कैनवस पर कब टैम
एक शतारूपे का खाकर खींचे धुंधली हुई निगाहें 

रंग बिखेरे प्राची और प्रतिची हर दिन रक्त पीत को 

राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२३ 

21 November 2023

 वर्ष बयालीस बीते प्रणय पर्व के

पटकथा बन के आने लगे सामने 
एक चलचित्र में ढाल कहानी वही
फिर से नज़रों में मेरी समाने आके लगी

थी वो इक्कीस की साँझ जब दिन ढले
हल्का हल्का शरद का भी था जब स्पर्श
मन में अतिरेक था अनुभूत होता हुआ
और उल्लास के सैंग अतिशयी हर्ष था 
Jजो न पहले कभी स्वप्न में न दिखा
मन में रोमांच था कोई उम्र हुआ
अनक सी तरंगें लिए उठ रहा
भान के सिंधु पर पूर्ण उत्कर्ष था 

इक नये पृष्ठ की से लगे जोड़ने
कुछ कथानक नये मन में जुड़ने लगे

फिर नयन में उभर आये उस साँझ के
जब प्रणय सूत्र बंधन में हम ठ जुड़े 
दो डगर बढ़ के थी बिंदु इक पर मिली
और हाम और तुम एक पाथ पर। बढ़े 
यज्ञ जी अग्नि का साक्ष्य लेकर उठी
जन्म जन्मांतरों के लिए जो शपथ
वो हुई और सुदृढ़ पुनः आज फिर
सुखद हो रहे पल य दुख हों।हो। बड़े 

दूधिया चाँदनी पर पड़े बिंब थे 
यज्ञ के, सामने एक फिर मुस्कुराने लगे

ज़िंदगी के सफ़र में रहे साथ हम
वि हों पण्डन  या सिंगापुरी वीथियाँ 
हो ब्लीज़रे सिंधु का तट या थी कभी
नेक्सिको ही या या हो दुबई बस्तियाँ
घिर रही पर्वतों से झील की हो लहर 
में उमंगें से अठखेलियाँ कर यही 
या हों अक्षय और चंदन से सकते हुई
उँगलियाँ नोट निभाते हुई रीतियाँ 

ये रहे साथ यूँ ही हों जीतने जन्म 
भाव फिर आ हृदय को सजाने लगे 

आकाश खंडेलवाल 
२१ नवानर २०२३ 




दीपावली २०२३


दीप पर्व 

कक्ष की दीवार पर नव लेप चूने का चढ़ा

बारह महीने से जमा था गर्द का बादल उड़ा 

फूल गमलों में उगे थे मुस्कुराने लग गये

सांझियों को ले गये टेसू करा कर के विदा  

 

दादी बोली आंगनबाड़ी अल्पनाएँ काढ़ कर 

रोशनी की ये नदी बहती रहेगी साल भर 

 

स्वास्थ्य धनवंरुभिखीरे स्वर्ण कलशों से गिरा।

तन बदन पर और मन पर संदली उबटन लगा

कृष्ण पक्षी रूप की इस इक चतुर्दश को यहाँ

हीराजनियों सा दमकता गात का हर इक सिरा

 

पूर्णिमा होती अमावस लगती रहेगी थाल भर

रोशनी की अब नदी बहती रहेगी साल भर 

 

देव पूजन के लिए मोदक इमारतों हैं सजे

गुझिया पपड़ी साथ लेकर सेव बूँदी आ गये 

बालूशाहीचमचमों के साथ रसगुल्ले लिये

देख छप्पन भोग सम्मुख दांत में उँगली दबे

 

ख़ुश्बूएँ चुंबन यही जड़ाती रहेंगी गाल पर

रोशनी की ये नदी बहती रहेगी साल भर

 

कृष्ण की चढ़े गिरी को  पुनः कर परिकल्पना 

लग गया छत्तीस। गंजन भोग छप्पन सिलसिला

सात परकम्मा समेटें सात कोसी। दूरियाँ

जोत जन्मों में न मिलताएक इस दिन वो मिला 

 

गोरधनी की जय सदा बुलाती रहेगी चल पद।

रोशनी की ये नदी बहती रहेगी सालभर

 

पूर्णता यह की यम की  द्विहम को मिले  

भाई की रक्षा करेगीन बहन यम के दूत से

इक नया आयाम हर संबंध को अब के मिले
वे सभी आयें निकट जो आर। हम से दूर हैं

शाह तिमिर को मी न आये , हाँ मिलेगी मात पर

ओढ़नी की ये नदी बहती रहेगी रात भर 

 

कुमुमी फुटेज रात के व्योम में

 कुमकुमी  फुटेज लग गये रात के व्योम में 

जुगनुओं से चमकाने लगी झाड़िया
वादियों में फूलता  बेला और मोतिया 
फुलझड़ी से सजी सारी पादंडियाँ 

पूर्णिमा होके अमानस अब हंसाती रहेगीरहेगी उल्लास भर 
रोशनी की ये नदी बहती रहेगी रात  भर 

खेल के सैंग बताशे उमड़ने लगे खिड़कियों से 
खंड के कुछ खिलौने रहे सील पे आकार के बैठे हुए
चित्र में आके उतरे गगन से देवी और देवता 
हों मुरादें सभी पूरी। अब के बरस जैसे कहते हुए 

दूर चिंताएँ होंगीं,छुपेगा समूचा संत्रास दर
रोशनी की ये नदी बहती। रहेगी रात भर 

काजरी तम का बादल न कोई उमड़े कहीं भी तनिक
और वातावरण में न आये प्रदूषण किसी और से 
भेंट जो भी प्रकृति ने दिया है हमें विश्व में प्यार से
उस में वृद्धि कराटे हुए और झाड़  विभूषित करें 

गीत में लक्षणाएँ उगेंगी अबनये अलंकार भर 
रोशनी की बड़ी ये बहती रहेगी रात भर 

राकेश खंडेलवाल
नवम्बर २०२३ 

पृष्ठ इतिहास के खोलते दीपाली

 पृष्ठ इतिहास के द्वार को खटखटा

फिर से हंसने लगे आज इस बात पर
पीढ़ियाँ आँजती आ रही ये सपन
रोशनी अब बहेगी यहाँ रात भर 

दीप गाजा में जलता नहीं एक भी
और उकारें पर तम घना छा रहा 
क्या ये होने लगा आज ईरान में 
ये किसी की समझ में।नहीं आ रहा 
सल्तनत तालिबानी बढ़े जा रही
पंथ सारे प्रगति के भी अवरुद्ध हैं
शांति को ओढ़कर,  मुस्कुराते हुए
भित्तिचित्रों।में लगने हुए बुद्ध हैं 

और मन तक जलेगा यहाँ आदमी
साँस की बातियों की यहाँ कत कर 
एक विश्वास खंडहर हुआ जा रहा
रोशनी की नदी बह सके रात भर 

आज भारत में यौवन जला फुलझड़ी
आस ये एक फिर से जगाने लगा
दूर परमादेश में जा बेस ज़िंदगी
टूट बिखरे घरौंदे बनाने लागा 
ज्ञात संभावना एक, दस लाख में
पर दिवास्वप्न आँखों बनते रहे 
साँझ ढलती हुई ले गई थी बहा
वे महल रेट के, भोर सजाते रहे 

jजोड़ते एकविश्वास अनुपात से
जोड़ बाक़ी, गुणा और फिर भाग कर
रोशनी की ये नदी जो बही है यहाँ
आज बहती रहेगीसकल रात भर 

जल उठीरात महताब की रोशनी
फूटती चरखियों से सितारे  झड़े
कार के, फ़्लैट के और सुख शांति की
चाहना के दिये फिर संवारने लगे 
घर की अंगड़ाई में अल्पनाएँ सजी
ईशकी वंदना में झुके शीश आ
हो मुबारक दिवाली ये अब के बरस
वाक्य होठों पे सब के संकरे लगा

कामना मेरी भी आपके वास्ते 
रोली अक्षत लिए पीपली पाट पर
रोशनी की ये नदी बह उठी आज जो
आपके द्वार बहती रहे साल। भर 

राकेश खंडेलवाल
नवम्बर २०२३ 

अंतिम रंग भररे जाता हूँ

 पता नहीं तूलिका रंग कल भरे न भरे किसी शब्द में

इसीलिए मैं आज साँझ में अंतिम रंग भरे जाता हूँ 

जब किशोर से यौवन की सीढ़ी पर पाँव रखा था मैंने
तब ही।से छंदों ने बाजों में भर कर मुझको दुलराया
विद्यापति जायसी मीरा तुलसी सूरा की कृतियों को
आत्मसात् कर कर के माने खुले। स्वरों में था दोहराया

कल क्या पता कंठ के स्वर भी मुम्खार्त हों या न हो पाएँ
यही सोच कर आज उन्हें फिर एक बार दुहरा जाता जून 

संस्कृति को पौराणिकता को मैंने अपनी भाषा में ढाला 
उपमाओं के अलंकार के नीत नूतन अन्वेषा किए हैं है 
इतिहासों के गहन गर्भ में बंदी जो रह गये कथानक 
उनका किया उत्खनन मैंने और नये उन्मेष दिये हैं हैं 

किसे पता परतों की तह यह खुले न खुले कल की सुबह
इसीलिए मैं परत आज बस एक और खोले जाता हूँ 

मां शारद के आशीषों के जीतने शब्द गिरे झोली में
उन सब में अनुभूति घोल कर भारी आभीरों भेंट चढ़ाया
वीणा की एंट्री की सराहां को फिर सजा होंठ पर अपने
मैंने अपना रचा हुआ हर गीत उसी एक धुन एम में गया

क्या मालूम राग सराहां के कल न सजायें आ अधरों को
सीलिये मैं आज यहाँ पर अंतिम गीत सुना जातांकप्पन 

राकेश खंडेलवाल अक्तूबर z२०२३ 


अंतिम धड़कन

 जीवन पूँजी 


चलती हुई घड़ी के सैंग सैंग खर्च हो रही जीवन पूँजी

किसे पारा कब निमिष कौन सा अंतिम धड़कन ख़र्च कर चले 


समय अक्षि कोई रहा ना, न है और न कल ही होगा
बिसलपुर प्रादुर्भाव हुआ है निशित है मित्न ही हिफ़ाज़त
प्राची की क्यारी में उगती साथ भोर के जितनी किरणें
साँझ ढले पर उनको जाकर अस्ताचल में खोना होगा 

कटमे पृष्ठ रोज़ जुड़ते हैं इतिहासों के महाग्रंथों में
किसे पता कब दिवस कौन आ एक वृद्धि आ नई कर चले 

युगों युगों से इतिहासों ने ये ही गतिक्रम हैं दुहराये
 फड़क बदल कर चेहरेवे ही कुछ चरित्र ही सम्मुख आये
कुछ का नाम हुआ है अंकित शिलालेख पर स्वर्ण समय के
और चंद है नाम किसी के अधर तलाक़ को छू न पाये

किसे ज्ञात है नाम किसी का सरगम का स्वर बन कर गूंजे
ताकि मौन की घाटी कोई करे उपेक्षित और फिर चले

अव बेताब की और अचेतन,चेतन मन की घिरी घटाएँ
इक दूजे में गूँथी हुई हैं ज्यों पूनम में चंद्र विभाएँ
विधना के कर की उँगली का इंगित निर्धारित करता है
किन दृश्यों को आगे लायें,किसका पटाक्षेप कर जायें

किसे पता हो पतनअवनका इस दुनिया के रंगमंच की
ताकि मुख्य जो पात्र रहा,  अब अपनी पलकें बंद कर चले 

राकेश खंडेलवालल
अक्तूबर २०२३ 


आवंटित जीवन की पूँजी

 अपने विश्वासों को थोड़ा आज सत्य पर पटाखा, जाना

चमक धमक के पीछे केवल एक शून्य है केवल काला

महाम्रुत्युज्य मंत्र जाप तुम चाहे सप्त कोटि कर डालो
मर्यादा पुरुषोत्तम के मंदिर में घी के दीपक  बालों
योगेश्वर की जन्मभूमि को कितनी साहस कारो परकम्माचा
चार धाम की यात्रा करके चाहे जितना मन बहाल ले 

लेकिन विधना ने जितनी आवंटित की। जीवन की पूँजी 
चार धाम की यात्रा करके चाहे मन जितना बहाल लो 

जीतने दिवस बरस में, उतने व्रत और कथा सभी हैं सच्ची
सभी पूर्ण फल देने वाली पंडित की गारंटी पक्की
हम को है मालूम हक़ीक़त जन्नत जी ज्या है, पर फिर भी
दिल को बहलाने की ख़ातिर लगती हैं ये बातें अच्छी

इंसानों की क्या बिसात है, रहा देवताओं के कर में
बिना एक क्षण की वृद्धि के रीता रहा आस का प्याला 

होम हवन ग्रह शांति प्रार्थना, पूजा पाठ सभी बेमानी
जो नक्षत्र दूरियाँ जिनकी पड़े कल्पना के अनजानी
जिनसे इक प्रकाश कान आते आते शंख कोटि युग लगते 
उसके जीवन पर प्रभाव की बातों का क्या होगा मानी

जितना मन यथार्थ से हमने दूर रखा, उतने ही उलझे
सत्य सर्वदा सत्य रहा है, कोई नहीं झुठलाने वाला 

राकेश खंडेलवाल
सितंबर २०२३ 

ऋतु संधि

 अगस्त लढ़लताजुआमाँ महीना और सितंबरमौले धीमे बढ़ाते हुए लड़कों की अजात। सुबह १२-१६अंश सेल्सियस की हवा का गालों को हल्के से चूमना तो ऋतु संधि के इस अवसर पर कलम अपने आप मचलने

लगती है ——-// 

सम की कारावास से कितनी आज खिली यादों की कलियाँ
फिर अतीत के पृष्ठ खोल कर बैठ गया ये आवाजाही मन 

पिछवाड़े की बस्ती में खपरैलों पर गिरती बारिश की
बूँदों का होता तबले पर पड़ती थापों जैसा गुंजन
बरसात पर तनी टीन की चादर से बहती धारों का
छत पर गिरते। हुए बजाना पेंजनियाँ की मादक रुनझुन 

आसमान पर घिरती हुई घटाईं के श्यामल रंगों में
भीग हुए चिकुर से छिटका छिटका सा जैसे अल्हड़ापन

सावन के झूलों की पेंगों में लिपटी हुई उमंगें कितनी 
राखी के धागों में कितने रहे अनुस्यूत है संदेश 
बादल की खीरियों से छानती हुई इ किरणें सतर गोन वाली 
कितने हैं संदेश यक्ष ने मेघदूत के हाथो  भेजे 

नादिया की लहरों ने तट पर फिर आकार खेली अठखेली
रोम रोम को सिहरता है जलतरंग का मद्दम कंपन 

जलाते हुए दिवस के अधरों की तृष्णाएँ तृप्त हो चली
दोपहरी ने तह कर रख दी ओढ़ी गर्म की चादर 
हरियाली शीतल चूनर को ओढ़े सकल दिशायें पुलकित
लगे लौट कर नीड साँझ के , घूम थके दिन के यायावर

रजनी के तन पर चढ़ने लग गया नींद का अलसाया पन
लगी फैलने धीरे धीरे सिमटी हुई देह की सिकुड़नी 

देवलोक में अंगड़ाई ले लगे जागने सारे पूजित
कालिन्दी हो रही आतुरा बालकृष्णन के चरण चूमने
सजे अयोध्या के गलियारे दीप पुष्प की ले मालाएँ
लंका विजय प्राप्त कर आते रघु-सीता के साथ झूम लें

उल्लासों की गागर रह रह छलक रही है है ज़हर से ही
धारावाहिक व्यस्त होने लाह है लगे इंदूर की थिरकने 

राकेश खंडेलवाल
अगस्त २०२३ 

दीपक तामस से लैड रहा है


संस्कृति का अंकुरण तो जन्मभूमि ने किया था 

कर्मभूमि ने उन्हें देकर सहारा कुछ निखारा 
धुंध में खोये हुए अस्तित्व को पहचान देकर 
इक अनूठे शिल्प की अनमोल कृति देकर संवारा  


यह  पथिक विश्वास वह   लेकर चला  अपनी डगर पर
साथ में जिसको लिए दीपक तमस  से लड़ रहा है

ज़िंदगी के इस सफ़र में मंज़िलें निश्चित  नहीं थी 
एक था संकल्प पथ में हर निमिष गतिमान रहना
जाल तो अवरोध फैलाये हुए हर मोड़ पर थे 
संयमित रहते हुए बस लक्ष्य को था  केंद्र रखना

कर्म का प्रतिफल मिला इस भूमि पर हर इक दिशा से 
सूर्य का पथ पालता कर्तव्य अपना बढ़ रहा है

चिह्न जितने सफलता के  देखते अपने सफ़र में
छोड कर वे हैं गए निर्माण जो yकरते दिशा का
चीर पर्वत घाटियों को, लांघ कर नदिया, वनों को
रास्ता करते गए  आसान पथ की यात्रा का

सामने देखो क्षितिज के पार भी बिखरे गगन पर
धनक उनके चित्र में ही रंग अद्भुत भर रहा है 

अनुसरण करना किसी की पग तली की  छाप का या
आप अपने पाँव के  ही चिह्न सिकता पर बनाना
पृष्ठ खोले ज़िंदगी में नित किसी अन्वेषणा के 
या घटे इतिहास की गाथाओं को ही दोहराना 

आज चुनना है विकल्पों में इसी बस एक को ही
सामने फ़ैला हुआ यह पथ, प्रतीक्षा कर रहा है धुंध में खोये हुए अस्तित्व को पहचान देकर 
इक अनूठे शिल्प की अनमोल कृति देकर संवारा  


यह  पथिक विश्वास वह   लेकर चला  अपनी डगर पर
साथ में जिसको लिए दीपक तमस  से लड़ रहा है

ज़िंदगी के इस सफ़र में मंज़िलें निश्चित  नहीं थी 
एक था संकल्प पथ में हर निमिष गतिमान रहना
जाल तो अवरोध फैलाये हुए हर मोड़ पर थे 
संयमित रहते हुए बस लक्ष्य को था  केंद्र रखना

कर्म का प्रतिफल मिला इस भूमि पर हर इक दिशा से 
सूर्य का पथ  पालता  कर्तव्य  अपना   बढ़ रहा है

चिह्न जितने सफलता के  देखते अपने सफ़र में
छोड कर वे हैं गए निर्माण जो yकरते दिशा का
चीर पर्वत घाटियों को, लांघ कर नदिया, वनों को
रास्ता करते गए  आसान पथ की यात्रा का

सामने देखो क्षितिज के पार भी बिखरे गगन पर
धनक उनके चित्र में ही रंग अद्भुत भर रहा है 

अनुसरण करना किसी की पग तली की  छाप का या
आप अपने पाँव के  ही चिह्न सिकता पर बनाना
पृष्ठ खोले ज़िंदगी में नित किसी अन्वेषणा के 
या घटे इतिहास की गाथाओं को ही दोहराना 

आज चुनना है विकल्पों में इसी बस एक को ही
सामने फ़ैला हुआ यह पथ, प्रतीक्षा कर रहा है

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...