अंतिम रंग भररे जाता हूँ

 पता नहीं तूलिका रंग कल भरे न भरे किसी शब्द में

इसीलिए मैं आज साँझ में अंतिम रंग भरे जाता हूँ 

जब किशोर से यौवन की सीढ़ी पर पाँव रखा था मैंने
तब ही।से छंदों ने बाजों में भर कर मुझको दुलराया
विद्यापति जायसी मीरा तुलसी सूरा की कृतियों को
आत्मसात् कर कर के माने खुले। स्वरों में था दोहराया

कल क्या पता कंठ के स्वर भी मुम्खार्त हों या न हो पाएँ
यही सोच कर आज उन्हें फिर एक बार दुहरा जाता जून 

संस्कृति को पौराणिकता को मैंने अपनी भाषा में ढाला 
उपमाओं के अलंकार के नीत नूतन अन्वेषा किए हैं है 
इतिहासों के गहन गर्भ में बंदी जो रह गये कथानक 
उनका किया उत्खनन मैंने और नये उन्मेष दिये हैं हैं 

किसे पता परतों की तह यह खुले न खुले कल की सुबह
इसीलिए मैं परत आज बस एक और खोले जाता हूँ 

मां शारद के आशीषों के जीतने शब्द गिरे झोली में
उन सब में अनुभूति घोल कर भारी आभीरों भेंट चढ़ाया
वीणा की एंट्री की सराहां को फिर सजा होंठ पर अपने
मैंने अपना रचा हुआ हर गीत उसी एक धुन एम में गया

क्या मालूम राग सराहां के कल न सजायें आ अधरों को
सीलिये मैं आज यहाँ पर अंतिम गीत सुना जातांकप्पन 

राकेश खंडेलवाल अक्तूबर z२०२३ 


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