पृष्ठ इतिहास के खोलते दीपाली

 पृष्ठ इतिहास के द्वार को खटखटा

फिर से हंसने लगे आज इस बात पर
पीढ़ियाँ आँजती आ रही ये सपन
रोशनी अब बहेगी यहाँ रात भर 

दीप गाजा में जलता नहीं एक भी
और उकारें पर तम घना छा रहा 
क्या ये होने लगा आज ईरान में 
ये किसी की समझ में।नहीं आ रहा 
सल्तनत तालिबानी बढ़े जा रही
पंथ सारे प्रगति के भी अवरुद्ध हैं
शांति को ओढ़कर,  मुस्कुराते हुए
भित्तिचित्रों।में लगने हुए बुद्ध हैं 

और मन तक जलेगा यहाँ आदमी
साँस की बातियों की यहाँ कत कर 
एक विश्वास खंडहर हुआ जा रहा
रोशनी की नदी बह सके रात भर 

आज भारत में यौवन जला फुलझड़ी
आस ये एक फिर से जगाने लगा
दूर परमादेश में जा बेस ज़िंदगी
टूट बिखरे घरौंदे बनाने लागा 
ज्ञात संभावना एक, दस लाख में
पर दिवास्वप्न आँखों बनते रहे 
साँझ ढलती हुई ले गई थी बहा
वे महल रेट के, भोर सजाते रहे 

jजोड़ते एकविश्वास अनुपात से
जोड़ बाक़ी, गुणा और फिर भाग कर
रोशनी की ये नदी जो बही है यहाँ
आज बहती रहेगीसकल रात भर 

जल उठीरात महताब की रोशनी
फूटती चरखियों से सितारे  झड़े
कार के, फ़्लैट के और सुख शांति की
चाहना के दिये फिर संवारने लगे 
घर की अंगड़ाई में अल्पनाएँ सजी
ईशकी वंदना में झुके शीश आ
हो मुबारक दिवाली ये अब के बरस
वाक्य होठों पे सब के संकरे लगा

कामना मेरी भी आपके वास्ते 
रोली अक्षत लिए पीपली पाट पर
रोशनी की ये नदी बह उठी आज जो
आपके द्वार बहती रहे साल। भर 

राकेश खंडेलवाल
नवम्बर २०२३ 

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