वर्ष बयालीस बीते प्रणय पर्व के
पटकथा बन के आने लगे सामने
एक चलचित्र में ढाल कहानी वही
फिर से नज़रों में मेरी समाने आके लगी
थी वो इक्कीस की साँझ जब दिन ढले
हल्का हल्का शरद का भी था जब स्पर्श
मन में अतिरेक था अनुभूत होता हुआ
और उल्लास के सैंग अतिशयी हर्ष था
Jजो न पहले कभी स्वप्न में न दिखा
मन में रोमांच था कोई उम्र हुआ
अनक सी तरंगें लिए उठ रहा
भान के सिंधु पर पूर्ण उत्कर्ष था
इक नये पृष्ठ की से लगे जोड़ने
कुछ कथानक नये मन में जुड़ने लगे
फिर नयन में उभर आये उस साँझ के
जब प्रणय सूत्र बंधन में हम ठ जुड़े
दो डगर बढ़ के थी बिंदु इक पर मिली
और हाम और तुम एक पाथ पर। बढ़े
यज्ञ जी अग्नि का साक्ष्य लेकर उठी
जन्म जन्मांतरों के लिए जो शपथ
वो हुई और सुदृढ़ पुनः आज फिर
सुखद हो रहे पल य दुख हों।हो। बड़े
दूधिया चाँदनी पर पड़े बिंब थे
यज्ञ के, सामने एक फिर मुस्कुराने लगे
ज़िंदगी के सफ़र में रहे साथ हम
वि हों पण्डन या सिंगापुरी वीथियाँ
हो ब्लीज़रे सिंधु का तट या थी कभी
नेक्सिको ही या या हो दुबई बस्तियाँ
घिर रही पर्वतों से झील की हो लहर
में उमंगें से अठखेलियाँ कर यही
या हों अक्षय और चंदन से सकते हुई
उँगलियाँ नोट निभाते हुई रीतियाँ
ये रहे साथ यूँ ही हों जीतने जन्म
भाव फिर आ हृदय को सजाने लगे
आकाश खंडेलवाल
२१ नवानर २०२३
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