*उसमें तेरा राम नहीं है*


अरे उपासक रोली चंदन लेकर जिसको सजा रहा ह

प्रतिमा एक सुशिल्पित है पर उसमें तेरा राम नहीं है!


राम एक विस्तार परे जो किसी कल्पना की सीमा के

राम एक दर्शन है जिससे जन्म लिया है संस्कृतियों ने 

राम एक अध्याय अनवरतसिमट नहीं पाया ग्रंथों में 

वर्णित हो न सका कितने ही यत्न किए युग के कवियों ने!


वाल्मीकि से ले तुलसी तक और गुप्त ने शब्द सँवारे

लेकिन शब्दों की सीमा में बँधने वाला राम नहीं है!


राम एक अध्यात्म समूचा आदि रहित हैअंत रहित है 

पुष्प वाटिका के प्रांगण मेंरूप प्रेम में डूबा लेखन

राम गूढ़ता है अवगुंठितराम एक अनुभूति सहज सी

राम भेजता वन महिषी  कोमौन हृदय का अंतर्वेदन!


तुझ में रामराम में तू हैउसका इंगित तेरा उपक्रम

कोई क्रिया नहीं उत्प्रेरक जिसका होता राम नहीं है!


जीवन की पहली धड़कन सेसाँसों की गति के अंतिम पल

समय सिंधुकी लहर-लहर पर अंकित है बस नाम एक ही

हर बोली मेंहर भाषा में  जन जन के मन का सम्बोधन 

कंठ स्वरों से मुखरित होता आया है बस राम एक ही 


करे प्रतिष्ठित मर्यादाएँकर्मवीर जो वचनबद्ध  हो

हर इक युग में प्रतिमानों से सज्जित होताराम वही है!


क्षणिक दो घड़ी के लिए जग तमाशा

किसी धुँध में तू उलझता रहा है
नज़र के लिए सामने रख छलावा
दिवास्वप्न की थाम रंगीन डोरी
रहा डूबता जब भी उतरा ज़रा सा

अरे वावले सत्य पहचान ले अब
क्षणिक दो घड़ी के लिए जग तमाशा

यहाँ जो है तेरा, तेरी अस्मिता है
सिवा उसके पूँजी कोई भी नहीं है
जो है सिर्फ़ तेरा ही इक दायरा है
परे जिसके कुछ भी तो तेरा नहीं है

कोई साथ तेरे महज़ एक भ्रम है
न दे  खुद को कोई भी झूठा दिलासा

यहाँ एक शातिर मदारी समय का
दिखाता है पल पल नया ही अज़ूबा
कभी एक पल जो नज़र ठहरती है
उभरता वहीं पर कोई दृश्य दूजा

यहाँ बिम्ब संवरे नहीं दर्पणो में
जो दिखता है वो ही  दिखे है धुआँसा

चली रोज झंझा नई  इक उमड़ कर
उठे हर कदम पर हजारों बगूड़े 
दिशाएँ बुलाती उमड़ती घटाएं
हुए फेनिली हर लहार के झकोरे

दिवास्वप्न से दूर कर ले नयन को
हटेगा तभी ये घिरा जो कुहासा



लिखने का कोई अर्थ नहीं होता है



काव्य पंथ पर लम्बी दौड़ लगाने के अभिलाषी, सुन ले
केवल लिखने की ख़ातिर लिखने का अर्थ नहीं होता है 

मन के भावों की क्यारी में  अनुभूति जब बो देती है
बड़े जतन से बीज और फिर देखभाल कर उन्हें सींचती
तब ही तो फूटा करते हैं अर्थ लिए रचना के अंकुर 
अभिव्यक्ति की सीमा तब ही कोई नया आयाम खींचती 

चारण सा व्यवहार भले ही उलट फेर कर ले शब्दों की 
अंतर्मन का भाव कोई भी  उनमे व्यक्त नहीं होता है 

रंगपट्टिका कब रंग पाती इजिल टंका कैनवस यूँ ही 
जब न तूलिका निर्धारण कर उस पर कोई रेख उकेरे
एक प्रवाहित अभिव्यक्ति को दिशाबोध से सज्जित कर के
चुने अलंकण रंगो के जो उसमें नूतन चित्र चितेरे 

दिशाहीन अल्हड़ता देती भले क्षणिक आह्लाद हृदय को
आने वाला पल या कल, उससे आश्वस्त नहीं होता है 

कविता तो होती नित युग में, क्या युग की कविता होती वो 
कोई विरला ही मानस या रश्मि रथी  का सर्जन करता 
विज्ञापन से परे शारदा के आँगन का कोई  पुजारी 
बिना कोई संकल्प संजोए सार्थक यज्ञ नहीं कर सकता 

विद्रोहों के स्वर छेड़े जो कलम, लीक से हट कर चलते 
कितन भी हो आश्वासन, उसको आश्वस्ति नहीं कर सकता 








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