लिखने का कोई अर्थ नहीं होता है



काव्य पंथ पर लम्बी दौड़ लगाने के अभिलाषी, सुन ले
केवल लिखने की ख़ातिर लिखने का अर्थ नहीं होता है 

मन के भावों की क्यारी में  अनुभूति जब बो देती है
बड़े जतन से बीज और फिर देखभाल कर उन्हें सींचती
तब ही तो फूटा करते हैं अर्थ लिए रचना के अंकुर 
अभिव्यक्ति की सीमा तब ही कोई नया आयाम खींचती 

चारण सा व्यवहार भले ही उलट फेर कर ले शब्दों की 
अंतर्मन का भाव कोई भी  उनमे व्यक्त नहीं होता है 

रंगपट्टिका कब रंग पाती इजिल टंका कैनवस यूँ ही 
जब न तूलिका निर्धारण कर उस पर कोई रेख उकेरे
एक प्रवाहित अभिव्यक्ति को दिशाबोध से सज्जित कर के
चुने अलंकण रंगो के जो उसमें नूतन चित्र चितेरे 

दिशाहीन अल्हड़ता देती भले क्षणिक आह्लाद हृदय को
आने वाला पल या कल, उससे आश्वस्त नहीं होता है 

कविता तो होती नित युग में, क्या युग की कविता होती वो 
कोई विरला ही मानस या रश्मि रथी  का सर्जन करता 
विज्ञापन से परे शारदा के आँगन का कोई  पुजारी 
बिना कोई संकल्प संजोए सार्थक यज्ञ नहीं कर सकता 

विद्रोहों के स्वर छेड़े जो कलम, लीक से हट कर चलते 
कितन भी हो आश्वासन, उसको आश्वस्ति नहीं कर सकता 








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1 comment:

Meena sharma said...

कोई विरला ही मानस या रश्मि रथी का सर्जन करता...
सत्य और सुंदर !
हम लोगों को अभी बहुत सीखना बाकी है।

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