केवल तेरे ही अधरों पर चढ़ पाने में
असफल थे सब
मेरे गीत, जिन्हें सरगम ने साजों पर धुन रच कर
छेड़ा
मैंने चुन चुन कर कलियों के पाटल शब्द शब्द में टाँके
साँसों के गतिक्रम में रंग कर धड़कन की तालों पर साधे
नयनों के रेशमी सपन की दोशाला में उन्हें लपेटा
और बुना उनको। छंदों में अनुभूति के
लेकर धागे
लेकिन तेरे कंठ स्वरों की रही कसौटी दूर पहुँच से
कितनी बार लगाया मेरे गीतों ने आँगन का फेरा
कूकी कोयल अमराई में रागिनियाँ लेकर छंदों की
मधुपों ने कलियों से बातें की गीतों की रसगंधों की
जालतरंग ने पतवारों के वक्ष स्थल पर सहज उकेरा
कंगन की खनकों में घुलती गीत सुधा बाजू बंदों की
लेकिन लगा गीत का सारा ही लालित्य व्यर्थ आख़िर था
तेरे अधरों की गलियों में मिला नहीं था इनको डेरा
गूंजे गीत मेरे ही हर दिन दरगाहों पर खवाजाजी की
सुबह बनारस बना आरती अर्चन में थी शंख स्वरों की
शामें अवध में नर्तित होते रहे गीत वे मेरे ही थे
और निशा ने भीग प्रीत में की बातें मेरे गीतों की
फिर भी लगता है गीतों में मेरे कहीं कमी तो होगी
जो शब्दों ने तेरे अधरों की िजिल पर नहीं चितेरा
केवल तेरे ही अधरों पर
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